झारखंड में राजनीतिक अनिश्चितता शुक्रवार को तब और बढ़ गई जब राज्यपाल रमेश बैस रांची से दिल्ली चले गए। राजभवन के सूत्रों ने इसे गैर राजनीतिक यात्रा बताया पर माना यही जा रहा है कि वे मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के सियासी भविष्य पर फैसला करने से पहले केंद्र सरकार से मंत्रणा करने के मकसद से गए हैं।

इससे पहले यूपीए के प्रतिनिधि मंडल ने उनसे मुलाकात कर चुनाव आयोग की सिफारिश पर फैसला जल्द करने का आग्रह किया था। बैस ने एक तो यह बात मान ली थी कि चुनाव आयोग की सिफारिश उन्हें मिल चुकी है। दूसरे उन्होंने फैसला दो-तीन दिन में करने का भरोसा भी दे दिया था। यह बात अलग है कि राज्यपाल पर फैसला करने के लिए कानूनन समय-सीमा की कोई बाध्यता नहीं है।

चुनाव आयोग ने माना है कि हेमंत सोरेन ने मुख्यमंत्री रहते हुए निजी लाभ के लिए फैसला किया था। इस नाते उनकी विधानसभा सदस्यता का जाना तो तय ही माना जा रहा है। दुविधा बस इसे लेकर है कि उन्हें चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराया जाता है या नहीं? बताते हैं कि चुनाव आयोग ने राज्यपाल से ऐसी कोई सिफारिश नहीं की है। बहरहाल पहले चर्चा थी कि हेमंत विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे। लेकिन अब उन्होंने दो मोर्चों पर रणनीति बनाई है।

एक तो यूपीए के विधायकों को दल-बदल से बचाने के लिए उन्हें छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर भेजा है। दूसरे पांच सितंबर से विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया है, जिसमें बहुमत दिखाने की उनकी योजना है। वैसे इस तरह का संकट मनमोहन सरकार के दौर में एनएसी का अध्यक्ष होने के कारण सोनिया गांधी पर भी आया था।

लेकिन उन्होंने एक तरफ तो लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर उपचुनाव लड़ा था दूसरी तरफ मनमोहन सरकार ने कानून बदलकर एनएसी अध्यक्ष के पद को लाभ के पद के दायरे से बाहर कर दिया था। झारखंड के 81 सदस्यीय सदन में फिलहाल झामुमो के 30, कांग्रेस के 18 और राजद का एक यानी यूपीए के कुल 49 सदस्य हैं।

भाजपा की अपनी सदस्य संख्या 26 और सहयोगी आजसू के दो सदस्य हैं। यूपीए को डर है कि हेमंत सोरेन के इस्तीफे की दशा में भाजपा उनके विधायकों की खरीद-फरोख्त कर खुद सरकार बना सकती है। यह बात अलग है कि अभी तक महाराष्ट्र की तर्ज पर उसे झारखंड में कोई एकनाथ शिंदे नहीं मिल पाया है।

हालांकि कांग्रेस में सेंध आसान दिख रही थी पर पार्टी अपने विधायकों को बुरी नजर से बचाने की पुरजोर कोशिश कर रही है। इसी तरह झामुमो में भी टूट का खतरा फिलहाल तो टल गया ही दिखता है। लेकिन हकीकत तो राज्यपाल के फैसले के बाद ही सामने आ पाएगी कि सियासी घटनाक्रम क्या मोड़ लेगा।

गले में फांस
केसीआर को पटना में पत्रकारों ने उलझा दिया। विपक्षी मोर्चे पर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव इस समय केंद्र की सरकार और भाजपा के सबसे प्रबल विरोधी हैं। वे 2024 की तैयारी को अभी से अंजाम देना चाहते हैं। ममता बनर्जी के बाद वही एक चेहरा हैं जो भाजपा को कड़ी चुनौती देने की बात कहते हैं। लेकिन तेलंगाना में भाजपा उन्हें कड़ी टक्कर दे रही है।

इसलिए केसीआर के सामने अपना अस्तित्व बचाने का भी संकट है। तभी तो पटना में एलान किया कि वे 2024 में भाजपा मुक्त भारत बनाएंगे। लेकिन पत्रकारों ने उन्हें अपने जाल में फंसा लिया। सवाल दाग दिया कि क्या वे प्रधानमंत्री पद के लिए नीतीश की उम्मीदवारी का समर्थन करते हैं। केसीआर ने फरमाया कि इसका फैसला करने वाले वे कौन होते हैं। यह फैसला सब दल मिलकर करेंगे।

दुविधा तो यही है कि विपक्षी एका हो पाए इससे पहले ही प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी का सवाल गैर भाजपा विपक्ष के गले की फांस बन जाता है। कांगे्रस को अछूत मान भी लें तो भी बाकी सारे गैर भाजपाई विरोधी दल एकजुट हो कहां पा रहे हैं।

बात जिम्मेदारी की…
नूपुर शर्मा के विवाद ने भाजपा से जुड़े बुद्धिजीवियों के बीच एक विभाजन की रेखा खींच दी है। हाल ही में अजय सिंह की पुस्तक ‘द आर्किटेक्ट आफ न्यू बीजेपी : हाउ नरेंद्र मोदी ट्रांसफार्म्ड द पार्टी’ के विमोचन समारोह में यह मुद्दा फिर बीच बहस में आया।

कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष रामबहादुर राय ने कहा कि भाजपा कभी काडर आधारित पार्टी नहीं थी, यह न तो आज काडर आधारित है और न आगे होगी। उन्होंने भाजपा को जनमानस पर आधारित और लोकतांत्रिक पार्टी के खाते में रखा। राय ने कहा कि अगर भाजपा काडर आधारित पार्टी होती तो नूपुर शर्मा का इस्तीफा नहीं होता या वे प्रवक्ता ही नहीं नियुक्त होतीं।

राय ने यहां तक कहा कि अगर नूपुर शर्मा को पार्टी से निकाला गया तो उनके बयान की जिम्मेदारी लेते हुए भाजपा अध्यक्ष का भी इस्तीफा होना चाहिए था, जो नहीं हुआ। इस कार्यक्रम में गृह मंत्री राजनाथ सिंह व जम्मू-कश्मीर के उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा भी मौजूद थे। हालांकि, राम बहादुर राय की इस टिप्णणी पर वहां मौजूद भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने मौन ही रखा।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)