तेजी से फैसले लेने की सूबे की कांग्रेस सरकार की प्रवृत्ति से भाजपा खेमा मायूस है। बेचैनी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के सामाजिक सुरक्षा से जुड़े मामलों में तेजी से किए गए फैसलों ने और बढ़ाई है। इससे लोकसभा चुनाव पर असर पड़ने का खतरा है। कांग्रेस का 2014 में लोकसभा में खाता भी नहीं खुल पाया था। इस बार भाजपाई भी मान रहे हैं कि सारी पच्चीस सीटें जीतना आसान नहीं। तब तो सूबे में सरकार भी भाजपा की ही थी। एक तरफ गहलोत की छवि कामकाज के मामले में बेहतर मुख्यमंत्री की रही है तो दूसरी तरफ वसुंधरा का पांच साल का पिछला कार्यकाल सूबे के लोगों पर कोई छाप नहीं छोड़ पाया। सामाजिक योजनाओं का तो भट्ठा ही बैठ गया इस दौरान। सो, दिव्यांग, बुजुर्ग और विधवा ही नहीं दूसरे बेसहारा लोगों की भी खूब अनदेखी हुई। इन तबकों को सत्ता परिवर्तन से आस जगी थी। गहलोत ने उन्हें निराश होने भी नहीं दिया। इतना ही नहीं सरकारी अमले को भी इन तबकों के प्रति संवेदनशीलता से पेश आने की हिदायत दी है। पेंशन राशि में बढ़ोतरी से चुनाव में लाभ की उम्मीद की जा सकती है।
किसानों की कर्जमाफी तो की ही, बेरोजगारी भत्ता दे भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को चकित कर दिया। भाजपा के पास अब कोई कारगर मुद्दा है ही नहीं गहलोत की घेरेबंदी के लिए। सो, भाजपाई इस दुर्दशा के लिए वसुंधरा राजे की कार्यशैली को ही कोस रहे हैं। संघी खेमा भी आलाकमान को नसीहत दे रहा है कि जो काम अपनी सरकार को करने चाहिए थे वे अब गहलोत ने कर दिखाए। भाजपा राज में गौशालाओं की हालत दयनीय हो गई थी। तय अनुदान भी वक्त पर नहीं मिल रहा था। यह बात अलग है कि गऊ को मां बता भाजपाई चिल्ल-पों जरूर कर रहे थे। गहलोत ने एक तो अनुदान दिया, वह भी बढ़ा कर और दायरा भी और बढ़ाया गौशालाओं का। लोकसभा चुनाव में भाजपा का एक खेमा तो जिद पकड़े है कि वसुंधरा समर्थकों को दरकिनार किए बिना जीत नहीं मिल पाएगी। वसुंधरा के चंपू समझे जाने वाले पूर्व सूबेदार अशोक परनामी को तो कोई भाव दे भी नहीं रहा। परनामी ने एक मंदिर के महंत और एक रिटायर आईएएस के साथ मिल पूरे तंत्र को हथिया रखा था। अब इस तिकड़ी के अच्छे दिन फुर्र हो चुके हैं। परनामी के बाकी दोनों सहयोगी अब भी सत्ता के दरबार में पैठ बिठाने की कोशिश में जुटे हैं। गहलोत भाव देंगे या नहीं, वक्त बताएगा।
दीदी का हठ
मुद्दा देश की हिफाजत का है। लिहाजा इस समय हर कोई रक्षा सेनाओं के समर्थन में खड़ा है। सरकार का भी कम से कम पाकिस्तान के साथ लड़ाई के मामले में कोई विरोध नहीं कर रहा। पर दीदी के आक्रामक रुख में बदलाव नहीं आया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री अब भी केंद्र की राजग सरकार के प्रति तीखे तेवर दिखा रही हैं। पुलवामा हमले में मारे गए सीआरपीएफ जवानों की शहादत पर राजनीति करने का केंद्र सरकार और भाजपा पर आरोप जड़ा है दीदी ने। उनकी दलील है कि खुफिया एजंसियों की सूचना के बावजूद वक्त रहते क्यों नहीं चेती केंद्र सरकार।
तो क्या वह खुद चाहती थीं कि हादसा हो और उसे जवानों के शवों पर सियासत का मौका मिले। ममता बनर्जी तो भाजपा और उसके सहयोगियों विश्व हिंदू परिषद व आरएसएस पर लोगों में नफरत फैलाने का आरोप भी शुरू से ही लगाती आ रही हैं। सांप्रदायिकता का जहर घोल देश को मजहब के आधार पर बांटने की कोशिश का भी आरोप वे कई बार लगा चुकी हैं। हालांकि केंद्र की राजग सरकार को सत्ता से बाहर करने का उनका संकल्प भी बरकरार है। उन्हें इस सवाल का जवाब चाहिए कि फिदायीन हमले की आशंका के बावजूद केंद्र सरकार ने जवानों की हिफाजत के लिए पुख्ता कदम क्यों नहीं उठाया? केंद्र सरकार पर बदले की राजनीति करने का उनका राग भी कायम है। विपक्ष की आवाज बंद करने का भी वे भाजपा पर आरोप लगाने से चूक नहीं रहीं। इसके लिए सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय के दुरुपयोग का आरोप भी भाजपा के मत्थे मढ़ती आ रही हैं। प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष द्वारा विपक्षी महागठबंधन की खिल्ली उड़ाना ममता को जंच नहीं रहा। वे तो खुद को ही असली नेता मानती हैं।
कम नहीं किसी से
सियासत ही नहीं राजकाज में भी अब महिलाएं पुरुषों से किसी मायने में कमतर नहीं। उत्तराखंड की सरकार में भी आजकल एक महिला आइएएस की धमक हर तरफ सुनी जा रही है। राधा रतूड़ी कहने को अपर मुख्य सचिव हैं पर अपनी मेहनत, कर्मठता और बेदाग छवि के बल पर वे शासनतंत्र का पर्याय बनी हैं। ऐसा नहीं है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार में ही उन्हें ज्यादा तरजीह मिली हो। अतीत की हर सरकार ने उनकी क्षमता और सामर्थ्य को तवज्जो दी। राधा रतूड़ी के पति अनिल रतूड़ी सूबे की पुलिस के मुखिया ठहरे। उत्पल कुमार सिंह मुख्य सचिव के नाते अच्छी धमक बना पाए हैं तो इसके पीछे उनकी सहयोगी राधा रतूड़ी की भूमिका कम नहीं। राधा रतूड़ी ही क्यों मनीषा पंवार, राधिका झा और सौजन्या जैसी महिला आइएएस अफसरों की तिकड़ी भी उत्तराखंड के राजकाज में बदलाव से पुरजोर सरोकार दिखा रही हैं।