‘केयर’ करे कौन!
केंद्र सरकार की बड़ी महत्वाकांक्षी योजना है देश के दस करोड़ परिवारों को मुफ्त इलाज के लिए पांच लाख रुपए का सेहत बीमा मुहैया कराना। राज्यों को भी करनी होगी इसके प्रीमियम में हिस्सेदारी। श्रेय केवल केंद्र ले और बोझ राज्य भी उठाएं, यह भी कोई हजम होने वाली बात रही। कम से कम भाजपा विरोधी दल तो कतई नहीं चाहेंगे कि भाजपा अगला लोकसभा चुनाव इस अकेले लोकलुभावन कार्यक्रम के बूते ही जीत जाए। सो, विरोध की शुरुआत में भी देर नहीं लगी। बजट तो अभी पारित होना बाकी है पर कोलकाता से तृणमूल कांग्रेस ने एलान कर दिया कि जब दीदी केयर योजना ही अच्छी चल रही है तो फिर केंद्रीय योजना पर पश्चिम बंगाल क्यों लुटाए अपना पैसा। सो, राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना से इस सूबे की सरकार ने किनारा करने का एलान कर दिया है। बकौल ममता उनकी सरकार ने जो स्वास्थ्य सेवा योजना चला रखी है, उसमें सूबे के पचास लाख लोगों को पहले से ही लाभ मिल रहा है। दरअसल केंद्र की योजना में प्रीमियम का चालीस फीसद राज्यों के हिस्से से आएगा। दीदी और केंद्र के बीच टकराव नया नहीं है। केंद्र में भाजपा सरकार के सत्ता पर बैठने के बाद से ही दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा जगजाहिर है। केंद्र की तकरीबन सभी योजनाओं के खिलाफ मुखर तेवर रहे हैं ममता बनर्जी के। नोटबंदी और जीएसटी के बाद अब केंद्र की स्वास्थ्य योजना भी उनका कोपभाजन होगी।

गुप्त एजंडा
खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान, यह कहावत तो कालजयी है। पर सामाजिक संदर्भ में बात करें तो आशय यही है कि सरकार जिस पर मेहरबान हो जाए, उसे फर्श से अर्श तक पहुंचने में देर नहीं लगती। बिहार में तो सरकार का मतलब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही है। जिस पर सुशासन बाबू ने अपनी नजरें इनायत की वह पलक झपकते विधायक हो गया या सांसद। कितनों को लाभ के पदों पर पहुंचा दिया और कितनों को यश वाले ओहदों पर। पार्टी के नेता और कार्यकर्ता ही नहीं पत्रकार तक उनके कृपा पात्रों में शामिल हैं। रिटायर अफसरों का भी खूब किया है उन्होंने कल्याण। उदारता की यह प्रवृत्ति आलोचकों तक को ललचाती है। तभी तो कांग्रेस के एक बड़े नेता सदानंद सिंह भी आजकल बिहार के मुख्यमंत्री की परिक्रमा करते दिख रहे हैं। सात बार विधायक रह चुके हैं। पार्टी की सूबेदारी से लेकर विधानसभा की अध्यक्षता तक का मजा लिया है। इंदिरा गांधी से शुरू हुआ था निकटता का सिलसिला। अब सोनिया गांधी और राहुल गांधी के भी चहेते हैं। व्यवहार कुशलता और मिजाज के बूते हर किसी के सम्मान के पात्र बन जाते हैं। तो फिर भला नीतीश भी उनकी कद्र क्यों न करें? पर अचानक नजदीकी बढ़ने के सियासी हलको में निहितार्थ तो भाईलोग तलाशते ही हैं। बुढ़ापे में अब कौन सी हसरत बाकी बची है। वही जो हर किसी की ताउम्र रहती है। बेटे का कल्याण कौन बाप नहीं चाहता। बेटा कांग्रेस से दूर ही है। जबकि आजकल हर नेता का बेटा या बेटी उसके जीवनकाल में ही पिता की पार्टी में हैसियत बना लेता है। नीतीश कुमार पिछले दिनों कहलगांव गए थे। फिर भला सदानंद सिंह के घर क्यों न जाते। खूब आव-भगत की कांग्रेस के कद्दावर बुजुर्ग ने नीतीश बाबू की। उसके बाद से ही पटना में खुसर-फुसर तेज हो गई है कि नीतीश उनके बेटे का कल्याण जरूर करेंगे।

खतरे की घंटी
तीन सीटों के उपचुनाव में मिली करारी हार के बाद राजस्थान भाजपा में हड़कंप मचा है। सूबे की सरकार के मंत्रियों की तो हालत ही पतली नजर आने लगी है। अब महज दस महीने का बचा है कार्यकाल। रंग बदलने में गिरगिट को भी मात देने वाले नौकरशाह अब परवाह नहीं कर रहे। जो मुंह लगे हैं वे तो अपने मंत्रियों को मजाक-मजाक में कह भी रहे हैं कि वे फिर से सत्ता में आने से रहे। शिक्षा राज्यमंत्री और पंचायत राजमंत्री को भी ऐसी अप्रिय भविष्यवाणी सुननी पड़ गई। नौकरशाह ही क्यों अब तो पार्टी के कार्यकर्ता और आम आदमी भी मंत्रियों से किनारा ही कर रहे हैं। पार्टी के दफ्तर में ऐसा ही वाकया हुआ पिछले दिनों। सवाई माधोपुर जिले के कुछ ग्रामीण अपनी समस्या बताने जयपुर के भाजपा दफ्तर आ धमके। तब पदाधिकारियों की बैठक चल रही थी। ग्रामीणों ने अपनी अनदेखी पर नारेबाजी शुरू कर दी। वे चाहते थे कि भाजपा नेता बैठक के बीच में ही उनकी समस्याएं सुने। नाराज पदाधिकारियों ने पुलिस बुला कर इन नारेबाज गांववालों को दफ्तर से बाहर भगाया। जाते-जाते वे कह गए कि चुनाव में वे भी पार्टी को ही बाहर का रास्ता दिखा देंगे। विधायक लोगों के बीच सफाई देते फिर रहे हैं कि उनकी कोई गलती नहीं। सरकार में किसी ने उनकी सुनी ही नहीं। पार्टी के वरिष्ठ विधायक ज्ञान देव आहूजा तो दुर्वाशा बन बैठे। उपचुनाव की शिकस्त के लिए वसुंधरा राजे और पार्टी के सूबेदार अशोक परनामी को कसूरवार ठहरा दिया। अलवर के रामगढ़ इलाके से चार बार विधायक बने आहूजा ठहरे खांटी संघी। उपचुनाव से पहले ही राष्ट्रीय संगठन मंत्री रामलाल को पत्र लिख कर हार की भविष्यवाणी कर दी थी। आहूजा तो इतने बेबाक हैं कि विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा की सभी पच्चीस सीटों पर भी हारने की आशंका जता दी है। लेकिन प्रधानमंत्री और अमित शाह के प्रशंसक हैं तो अनुशासनहीनता का चाबुक कौन चला सकता है उन पर। आहूजा की अपनी परिभाषा है। पार्टी हित में आलाकमान को हकीकत से अवगत कराने में कैसी अनुशासनहीनता।