उत्तराखंड में भी अरुणाचल दोहराने का आरोप लगाया है कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पर। हालांकि कायदे से तो संकट कांग्रेस का अंदरूनी ठहरा। नौ विधायक असंतुष्ट तो पहले से थे पर बगावत अब की। जाहिर है कि सतपाल महाराज ने रची इस बगावत की इबारत। गनीमत है कि राज्यपाल केके पाल ने वही किया, जो उन्हें संविधान के हिसाब से करना चाहिए था। हरीश रावत को 28 मार्च को बहुमत साबित करने की हिदायत दी है। सुप्रीम कोर्ट कई बार कह चुका है कि राजभवन या पार्टियों के दफ्तर बहुमत के परीक्षण की जगह नहीं हो सकते। सरकार के बहुमत का परीक्षण सदन के भीतर ही हो सकता है। उत्तराखंड की बगावत अप्रत्याशित नहीं है। विजय बहुगुणा और हरीश रावत में छत्तीस का आंकड़ा शुरू से ही बरकरार रहा।

आलाकमान ने इसमें सक्रिय भूमिका निभाई होती, तो बगावत थम सकती थी। साफ है कि यह संकट कहीं न कहीं पार्टी के नेतृत्व, यानी सोनिया गांधी और राहुल गांधी, की कार्यशैली पर भी सवाल उठाता है। विजय बहुगुणा के लिए पार्टी ने क्या नहीं किया? उन्हें सांसद होने के बावजूद मुख्यमंत्री बनाया। उनकी लोकसभा सीट पर उनके बेटे साकेत को टिकट दिया, जो पिता के मुख्यमंत्री रहते उपचुनाव हार गए। अपनी बहन रीता बहुगुणा को पार्टी में मिल रही अहमियत को भी तवज्जो नहीं दी विजय बहुगुणा ने। बागी विधायकों ने हरीश रावत को हटाने के चक्कर में भाजपा नेताओं पर अति भरोसा कर लिया। उन्हीं के साथ बस में सवार होकर राजभवन चले गए। कायदे से कांग्रेस के चौबीस विधायक ही एक साथ अलग हों, तब जाकर इसे पार्टी का वैधानिक विभाजन माना जा सकता है। नौ विधायकों की बगावत दल-बदल कानून के दायरे में उन पर गाज गिराएगी। रावत ने जवाबी रणनीति बना ली है।

विधायकों को विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने कारण बताओ नोटिस भेज कर संकेत दे दिया है कि उनकी सदस्यता खतरे में पड़ेगी। 28 मार्च को वे मुख्यमंत्री के विश्वास प्रस्ताव के दौरान सदन में जा ही नहीं पाएंगे। लब्बोलुआब यह है कि रावत सरकार का भविष्य अब बसपा, यूकेडी और निर्दलीय विधायकों के रुख पर टिका है, जो मंत्री पद का मोह आसानी से शायद ही छोड़ें। वैसे भी अब उत्तराखंड सरकार का कार्यकाल बचा भी तो एक साल से कम ही है। भाजपा या असंतुष्टों की सरकार बनने के तो आसार कानूनी नजरिए से लगते नहीं। केंद्र ने भूमिका निभाई तो राष्ट्रपति शासन की नौबत जरूर आ सकती है सूबे में। पर बहुमत साबित करते ही अगर रावत ने विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी तो वैकल्पिक सरकार के गठन की संभावना पूरी तरह धूमिल पड़ जाएगी।

श्रेय बीवी को
लालू यादव बात ही ऐसी कहते हैं कि सुनने वाला अपनी हंसी रोक नहीं पाता। इतना ही नहीं उसे यकीन भी हो जाता है कि लालू ठीक ही कह रहे हैं। अब अचानक लालू ने फरमाया है कि आरएसएस राबड़ी देवी के डर से अपना ड्रेस ही बदलने को मजबूर हो गया है। दरअसल एक बार राबड़ी ने कटाक्ष किया था कि आरएसएस के बड़े-बूढ़े भी खाकी हाफ पैंट पहनते हैं। औरतों का भी लिहाज नहीं है इन्हें। मजाक में कही हुई यह बात उस समय तो बात आई-गई हो गई थी। लेकिन अब तो इस कट्टर हिंदुत्ववादी संगठन ने बाकायदा अपनी ड्रेस बदलने का फैसला ही कर लिया। हाफ पैंट की जगह फुल पैंट पहनेंगे अब संघी। इस बदलाव के बाद भला लालू क्यों चूकते? वे तो वैसे भी आरएसएस को कठघरे में खड़ा करने का मौका ढूंढ़ते रहते हैं। विधानसभा चुनाव के दौरान मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कह दी थी। भाजपा उसका खामियाजा अभी तक भुगत रही है। चुनाव में भागवत की टिप्पणी को ही लालू ने बड़ा मुद्दा बना दिया था। इससे उन्हें खासा फायदा हुआ। अब भी वे उसी बहाने भाजपा पर वार कर रहे हैं। सो ड्रेस के मुद्दे पर भी आरएसएस का मजाक उड़ाया। बोले- आरएसएस डर गया राबड़ी देवी से। साधारण लोगों को भी लग रहा है कि राबड़ी ने आरएसएस के ड्रेस के बारे में जो इशारा किया था वह गलत नहीं है। आरएसएस ने ड्रेस बदलने का फैसला कर लिया है, यह मामूली बात नहीं है। लालू प्रसाद अपनी पत्नी को किस कदर श्रेय दिलवा रहे हैं, आरएसएस के नेतृत्व को अब समझ आ रहा होगा। लेकिन समझ कर करेंगे क्या? कोई काट तो है नहीं उनके पास।

उतार-चढ़ाव
नीकु आजकल भाजपा नेताओं को भाने लगे हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पटना में थे। विधानसभा चुनाव के बाद वे पहली बार बिहार आए थे। नीकु यानी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी एक कार्यक्रम में उनके साथ थे। नीकु ने नमो से काफी उम्मीद जताई। यहां तक कह दिया कि नमो सूबे में आएंगे तो सूबे का विकास होगा। जितनी बार आएंगे, उतनी बार विकास होगा। भाजपा नेताओं ने कभी नहीं सोचा होगा कि नीकु नमो के प्रति अचानक इस हद तक नरम हो जाएंगे। उन्हें उस दौर की बातें याद आने लगी हैं जब नीकु राजग में थे और वाजपेयी मंत्रिमंडल में मंत्री भी थे। सत्ता में रहते हुए भी नीकु और नमो में अनबन हुई। फिर रास्ते भी दोनों के अलग-अलग हो गए। एकाएक नीकु और नमो के रिश्तों में जमी बर्फ पिघले तो भाजपा नेताओं को नीकु अच्छे लगने लगे। नमो ने भी नीकु की खूब तारीफ की। भाजपा नेताओं की खुशी की असली वजह तो दूसरी है। उन्हें लगता है कि नीकु और नमो के रिश्ते सुधरेंगे तो नीकु का लालू के साथ गठबंधन ज्यादा दिन टिक ही नहीं पाएगा।

अपनों का बेगानापन
मोदी ने बिहार में कितना समझाया था मतदाताओं को। तर्क दिया था कि केंद्र की तरह सूबे में भी भाजपा की सरकार बनेगी तो विशेष पैकेज भी मिलेगा और विकास भी होगा। मतदाताओं को लुभा नहीं पाया था प्रधानमंत्री का यह प्रलोभन। पर जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, वहां भी विकास की आंधी तो दिख नहीं रही। राजस्थान में तो उलटा है। लगता है कि एक ही दल की होने के बावजूद दोनों सरकारों में छत्तीस का आंकड़ा है। वसुंधरा सरकार की गलत वित्तीय नीतियों ने सूबे की आर्थिक सेहत को खस्ता हाल बना दिया है। पर दोष मढ़ रही है केंद्र की सरकार पर। कम से कम विधानसभा में तो बजट पेश करते वक्त उनका रवैया ऐसा ही नजर आया। सूबे के बजट का पोस्टमार्टम तो असंतुष्ट पर सबसे वरिष्ठ भाजपा विधायक घनश्याम तिवाड़ी के भाषण से हो गया। वसुंधरा से कतई नहीं पटती तिवाड़ी की। बजट पर हुई चर्चा के दौरान सदन में डंके की चोट पर बोले कि सूबे की नौकरशाही के जरिए वसुंधरा सरकार यह भ्रम फैला रही है कि उसका काम तो बहुत अच्छा है पर केंद्र सरकार मदद नहीं कर रही। केंद्र को बुरा बताने में वसुंधरा समर्थक भी पीछे नहीं हैं। ऐसे समर्थकों में गैर संघियों और पूर्व नौकरशाहों की भरमार है। भाजपा के ही तमाम नेता दबी जुबान से कह रहे हैं कि शासन में मलाई मारने वाले अफसर कुंडली मार कर बैठ गए हैं। छवि पार्टी की बिगड़ रही है। ढाई साल के कार्यकाल में ढिंढ़ोरा पीटने लायक कुछ भी तो नहीं कर पाई वसुंधरा सरकार। उपाध्यक्ष ओम माथुर राजस्थान के प्रभारी नहीं हैं तो क्या? जड़ें तो इसी सूबे में ंहैं उनकी। अमित शाह को हर छोटी-बड़ी जानकारी पहुंचाते हैं वे। वसुंधरा को खुश होना चाहिए कि सूबे के पार्टी प्रभारी वी सतीश भले मानुष ठहरे। सरकार की छवि के बारे में बेबाक रिपोर्ट नहीं देते आलाकमान को। अन्यथा संकट और बढ़ जाता महारानी का।

कठघरे में दीदी
चुनाव से पहले सियासी दल एक दूसरे को फंसाने का कोई मौका नहीं चूकते। पश्चिम बंगाल में भी इस समय ऐसे ही खुलासों का दौर चल रहा है। चुनाव में महज तीन हफ्ते ही बचे थे कि स्टिंग आपरेशन सामने आ गया। तृणमूल कांग्रेस के सांसदों, मंत्रियों और अन्य नेताओं को लाखों की रिश्वत लेते दिखाया गया है। संसद में भी खूब हंगामा हुआ इस मुद्दे पर। हद तो तब पार हो गई जब माकपा के प्रस्ताव का कांग्रेस ही नहीं भाजपा के सदस्यों ने भी खुल कर समर्थन कर दिया। विपक्ष ने वार तेज किया तो तृणमूल कांग्रेस ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि चुनाव से पहले उसे बदनाम करने की सियासी साजिश है। स्टिंग का वीडियो सामने आने के अगले ही दिन मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी कोलकाता पधारे तो विपक्षी दलों ने उनसे भी शिकायत कर जांच की मांग कर डाली। आयोग ने जांच का भरोसा दे भी दिया। उधर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक चुनावी रैली में गरजीं कि वे ऐसी साजिशों से डरने वाली नहीं। तृणमूल कांग्रेस की जीत की संभावनाओं पर कोई पलीता नहीं लगा सकता। गौरतलब है कि यह स्टिंग आपरेशन खबर की एक वेबसाइट नारद डॉट काम ने किया है। लोकसभा में तो अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने मामले को सदन की आचार समिति को सौंपने में देर नहीं लगाईं। पाठकों को बता दें कि इसी समिति की सिफारिश पर पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने वाले कई सदस्यों की सदस्यता छिन गई थी। माकपा अभी तो सूबे में राष्ट्रपति शासन लगाने की जिद पकड़े है। तृणमूल कांग्रेस इसे बकवास बता कर लोक दिखावे के लिए भले बेखौफ दिख रही हो पर बेचैनी बढ़ गई है इस खुलासे के बाद ममता की।

प्रभु कृपा
आशा कुमारी को सजा हो गई। लेकिन वे फिर भी परमात्मा की कृपा मान रही हैं। आखिर हाईकोर्ट ने सजा को निलंबित कर दिया। राहत तो हो ही गई। भाजपा ने भी एक साल कैद की उन्हें मिली सजा को मुद्दा नहीं बनाया। धूमल से करीबी रिश्तों का असर मान सकते हैं इसे। अदालत ने अगर एक साल की जगह तीन साल कैद की सजा सुना दी होती तो विधानसभा की सदस्यता भी छिन जाती। परमात्मा की कृपा है तभी तो सजा हो जाने के बावजूद आलाकमान ने उनसे राष्ट्रीय सचिव का पार्टी पद नहीं छीना। अलबत्ता राज्यसभा का नामाकंन करने के मकसद से शिमला आए आनंद शर्मा ने जब जीत का प्रमाण पत्र लिया तो आशा कुमारी को साथ रखा। यानी संकेत दे दिया कि संकट की घड़ी में भी आलाकमान उनके साथ है। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह से छत्तीस का आंकड़ा है उनका। पर वीरभद्र खेमा भी उनको मिली सजा पर जश्न मनाने की हालत में कहां है। बेचारे तो मुख्यमंत्री तो खुद ही घोषित आय से ज्यादा संपत्ति के मामले को लेकर सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय की प्रताड़ना झेल रहे हैं। दिल्ली हाईकोर्ट में चल रहे प्रकरण ने ही नींद उड़ा रखी है।

रिश्तों की कैमिस्ट्री
सियासत में रिश्ते सदा समान नहीं रहते। हिमाचल में मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह और पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के बीच सियासी अदावत तो समझ में आती है पर खुन्नस के स्तर तक खटास हो गई थी उनके रिश्तों में। अचानक घटी है तल्खी। हर कोई इस जुगलबंदी पर हैरान है। विधानसभा को चलाने के लिए दोनों ने तालमेल दिखाया। जबकि धर्मशाला में प्रस्तावित क्रिकेट मैच के रद्द हो जाने से आशंकाएं दूसरी जताई जा रही थी। बजट सत्र में भाजपा के हमलावर तेवर होने की अटकलें लग रही थीं। धूमल के सांसद पुत्र अनुराग ठाकुर जिस तरह गरज रहे थे, उससे बजट सत्र में हंगामे की संभावना को कोई नहीं नकार रहा था। पर हुआ उलटा। वीरभद्र ने तो धूमल को बाकायदा लंच तक दे दिया। शिमला में हर कोई यही जानने को आतुर है कि रिश्तों में आए बदलाव का राज क्या है? जानकार तो यहां तक कह रहे हैं कि धूमल नहीं चाहते कि वीरभद्र उन्हें कानूनी दांव-पेंच में उलझाने के लिए उनके राज के गड़े मुर्दे उखाड़ें। दरअसल ऐसा होने से अगले चुनाव के मौके पर अधर में लटक सकता है मुख्यमंत्री पद पर उनका दावा। तभी तो मिल कर चलो और अपना स्वार्थ साध लो का मंत्र फूंका है।
लाइलाज बीमारी
मध्य प्रदेश विधानसभा में पिछले हफ्ते रेत माफिया के आतंक और अवैध खनन के मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस दोनों के सदस्य लामबंद दिखे। उच्च स्तरीय जांच की ऐसी साझा मांग से मुख्यमंत्री शिवराज चौहान दुखी जरूर हुए होंगे। मामला उठाया भी भाजपा विधायक अर्चना चिटनीस ने। बुरहानपुर में अवैध खनन रोकने गए एसडीएम और दूसरे अफसरों पर हुए हमले का मुद्दा उठाते हुए सदन को बताया कि सरकारी अमला माफिया से अपनी जान बामुश्किल भाग कर बचा पाया। मौका ताड़ कांग्रेस के गोविंद सिंह ने मुरैना और भिंड की घटनाएं उठा दी। बताया कि मुरैना में वन रक्षक को खनिज माफिया ने डंपर से कुचल दिया तो भिंड में गोलियां चलाई। कांग्रेस के मुकेश नायक ने अवैध खनन का विरोध करने वाले अनुसूचित जनजाति के एक युवक की हत्या का उल्लेख कर सरकार पर वार किया। अगले दिन ध्यानाकर्षण के दौरान भी कांग्रेस के गोविंद सिंह और रामनिवास रावत जब सरकार पर हमला बोल रहे थे तो भाजपा के नरेंद्र सिंह कुशवाहा भी उनके सुर में सुर मिलाते दिखे। सरकार पर खनिज माफिया के आगे सरेंडर करने जैसे आरोप जड़े इन विधायकों ने।

सात साल में हुई तेरह हत्याओं की भी याद दिलाई। कांग्रेस के रामनिवास रावत तो हत्या के शिकार हुए ऐसे अफसरों को शहीद का दर्जा देने का आग्रह करते दिखे। गृहमंत्री बाबू लाल गौर ने भी उनके सुझाव पर विचार का भरोसा भी दिया। गोविंद सिंह जब रेत माफिया द्वारा पुलिस थानों को मासिक चौथ देने का आरोप लगा रहे थे तब भाजपा की अर्चना चिटनीस भी उन्हीं की भाषा बोलने लगीं। बेचारे बाबू लाल गौर को कुछ नहीं सूझा तो इसे खनिज विभाग से जुड़ा मामला बता अपना पीछा छुड़ाया। फरमाया कि राजस्व और वन विभाग जब तक पुलिस की मांग न करे, पुलिस कुछ नहीं कर सकती। कांग्रेस के विधायक गौर के टालू जवाब से संतुष्ट क्यों होते? उन्हें तो नारे लगा सदन से वाकआउट करने का अच्छा मौका मिल गया। ऊपर से कांग्रेस के सूबेदार अरुण यादव ने फिर दोहरा दिया कि खनिज माफिया को शिवराज सरकार का संरक्षण है। तभी तो बेखौफ है। नकेल कसने के बजाए सरकार इस माफिया को पनाह दे रही है। बेचारे भाजपा सूबेदार नंद कुमार सिंह चौहान ने दलील दी कि रेत माफिया का कोई दल नहीं होता। वे तो सिर्फ पैसों के होते हैं। रही ऐसे माफिया के जाल की बात तो मध्यप्रदेश अपवाद नहीं है। समस्या तो सारे देश में है। भला यह भी कोई तार्किक बचाव हुआ सरकार का।
पर उपदेश
मध्यप्रदेश के वित्तीय प्रबंधन में कुछ तो गड़बड़ होगी ही। अन्यथा सीएजी की रिपोर्ट को लेकर यह मामला विधानसभा में क्यों गंूजता। कांग्रेस के बाला बच्चन ने सरकार पर हमले के लिए सीएजी रिपोर्ट को आधार बनाया। फरमाया कि वित्तीय प्रबंधन सही होता तो सरकार को अनुपूरक बजट लाने की जरूरत ही न पड़ती। राजस्व की वसूली में फेल हो जाने का आरोप भी लगा दिया लगे हाथ। सरकार की कमियों, भ्रष्टाचार और विसंगतियों की चर्चा की तो सदन में मौजूद मंत्रियों के चेहरे फीके पड़ गए। अध्यक्ष से रिपोर्ट पर चर्चा नहीं होने देने का आग्रह कर दिया। ऊपर से यह तुर्रा अलग कि सरकार सीएजी की रिपोर्ट को तवज्जो नहीं देगी। यह भी कोई बात हुई। केंद्र में सीएजी की रिपोर्ट के चलते भाजपा ने संचार मंत्री ए राजा से इस्तीफा मांगा था। फिर क्यों वही कसौटी मध्यप्रदेश के वित्त मंत्री जयंत मलैया पर लागू न हो। सीएजी की रिपोर्ट में खनन के धंधे में सरकारी खजाने को 139 करोड़ रुपए की चपत लगने का जिक्र है। खदान मालिकों से अफसरों ने यह रकम जानबूझ कर नहीं वसूली। राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम के तहत केंद्र से मिली रकम का भी पूरा इस्तेमाल नहीं कर पाई चौहान सरकार। पेंशन भोगियों को पेंशन कम दी। भाजपाई सीएजी रिपोर्ट को पक्षपातपूर्ण बता इस पर सदन में चर्चा करने को तैयार ही नहीं। ऐसे दोहरे नजरिए को ही तो पर उपदेश कुशल बहुतेरे कहा जाता है। विपक्ष में अलग नजरिया और सत्ता में उसका उलटा।

राज की बात
उत्तराखंड में हरीश रावत अस्तित्व के जिस संकट से गुजर रहे हैं, उसके पीछे उनके करीबियों की भी भूमिका बताई जा रही है। एक दौर में हरक सिंह रावत बड़े खास थे हरीश रावत के। विजय बहुगुणा को विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद जब आलाकमान ने मुख्यमंत्री बनाया था तो हरक सिंह दिल्ली में हरीश रावत के लिए लाबिंग कर रहे थे। अब उन्होंने ही बगावत का झंडा उठाया। अब कांग्रेसी कह रहे हैं कि वे दलबदलू ठहरे। पहले भाजपा में थे। फिर बसपा में गए। उसके बाद कुर्सी के लालच में कांग्रेस में आए। हरक सिंह डंके की चोट पर कह रहे हैं कि उन्होंने पीठ पर वार नहीं किया। हरीश रावत का संकट बढ़ाने में असली भूमिका तो उनके मुख्य प्रधान सचिव राकेश शर्मा की बताई जा रही है। जिन्होंने विजय बहुगुणा और उनके करीबी विधायक सुबोध उनियाल की गतिविधियों के बारे में हरीश रावत को लगातार गुमराह किया। अब रावत पछता रहे होंगे कि ऐसे अविश्वसनीय और दागी नौकरशाह को जरूरत से ज्यादा भाव देकर अपना ही नुकसान कर बैठे वे।