याकूब मेमन की फांसी रोकी न जा सकी। राष्ट्रपति को आखिरी मिनट की उसकी दया याचिका विचलित न कर सकी, वे शक्ति-आकांक्षी देश के प्रमुख जो ठहरे। सर्वोच्च न्यायालय को फांसी के फैसले में कोई प्रक्रियागत त्रुटि नजर नहीं आई, हालांकि ‘मौत’ जैसे शब्द के आगे प्रक्रिया और त्रुटि जैसे शब्दों का प्रयोग कितना विडंबनापूर्ण है, कहने की जरूरत नहीं।
याकूब मेमन को फांसी हो गई है।

ज्योति पुनवानी ने लिखा कि यह फांसी रोकी जा सकती थी, अगर पीवी नरसिंह राव को हिम्मत होती कि वे यह सार्वजनिक तौर पर कबूल करते, जो वे अच्छी तरह जानते थे कि टाइगर मेमन के परिवार के सबसे सुशिक्षित व्यक्ति याकूब ने दरअसल काफी खतरा उठा कर यह फैसला किया था कि वह भारत लौटेगा। मुंबई बम धमाकों के पीछे के षड्यंत्र की जानकारी भारत को देगा। पुनवानी लिखती हैं कि उन्हें तत्कालीन भारतीय जनता पार्टी नीत विपक्ष के घृणापूर्ण प्रचार की परवाह किए बगैर यह करना चाहिए था। लेकिन राव ने ऐसा नहीं किया। क्या वे डर गए थे या जैसे उन्होंने बाबरी मस्जिद को इसलिए शहीद होने दिया कि एक घाघ राजनेता होने के नाते वे जानते थे कि इसके बाद लंबे समय तक भाजपा के पास कोई मुद्दा नहीं रह जाएगा, उसी तरह याकूब के बारे में सच्चाई निगल कर उसकी बलि इसलिए ली कि आतंकवाद-विरोधी हिंदू जनमत को संतुष्ट करने का श्रेय उन्हें ही मिल जाएगा?

यही तो कांग्रेस पार्टी ने सोचा था जब उसने अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ा दिया, बावजूद सारी अपीलों के, लेकिन जैसे राव की उम्मीद गलत निकली वैसे ही मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी की भी। हिंदू जनभावना का लाभ कांग्रेस को कभी नहीं मिल सकता, भले उसे पैदा करने और सहलाने में वह कितना ही बढ़-चढ़ कर काम क्यों न करे। क्या बाबरी मस्जिद का ताला रामभक्तों के लिए खुलवाने का खमियाजा वह अब तक नहीं भुगत रही है?

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नरसिंह राव की चाणक्य-राजनीति की फसल आखिरकार हर बार भारतीय जनता पार्टी ने ही काटी। इस बार यह उम्मीद करना फिजूल था कि वह दया और विवेक के तर्कों पर कान देगी और यह सुनहरा मौका जाने देगी की कम से कम एक ‘आतंकवादी’ को तो सबक सिखा दिया गया।

ज्योति पुनवानी के लेख में कई ‘अगर’ हैं: अगर राष्ट्रपति को हिम्मत होती तो वे याकूब की दया-याचिका को ठुकराते नहीं, समाज के अपने-अपने पेशों के माहिर लोगों के उन तर्कों पर ध्यान देते, जो इस फांसी को रोकने की गुहार लगाते हुए उन्होंने दिए थे।

अगर सर्वोच्च न्यायालय अपने ही एक पूर्व न्यायाधीश बेदी के लेख को गौर से पढ़ लेता, जिसमें उन्होंने जोरदार तरीके से इस पूरे मामले को दुबारा सुने जाने की दलील दी थी। उन्होंने कहा कि याकूब मेमन को भारत लाने की कार्रवाई को संयोजित करने वाले खुफिया अधिकारी बी. रमन का लेख प्रकाशित हो जाने के बाद मामला बदल गया है। नए तथ्य सामने आ गए हैं और सर्वोच्च न्यायालय को इस लेख का स्वत: संज्ञान लेना चाहिए। न्यायमूर्ति बेदी ने तो यहां तक कहा कि अदालत को दोनों पक्षों को सुनने के बाद मामले को ‘ट्रायल कोर्ट’ को वापस करना चाहिए, ताकि वह फैसले पर और अधिक सबूतों पर विचार कर उनकी गुणवत्ता की समीक्षा करे। उनके मुताबिक संविधान की धारा 142 अदालत को यह अधिकार देती है।

PHOTOS: याकूब मेमन का फांसी तक का सफर…

 

न्यायमूर्ति बेदी ने कहा कि चूंकि रमन का लेख फांसी के फैसले में सुधार की याकूब की अर्जी के खारिज हो जाने के बाद छपा है, अदालत अगर अपने निर्णय पर उसकी रोशनी में पुनर्विचार करती है तो उसका कद कहीं ऊंचा ही होगा।

अगर, अगर, अगर! इसका कोई अंत नहीं। ज्योति के मुताबिक यह सब तभी मुमकिन था, अगर हमारे राजकीय तंत्र में रहम होता। वह नहीं है, यह वह पहले कई अवसरों पर जाहिर कर चुका है। फिर आज उसकी उम्मीद क्यों?

लेकिन यह रहम कोई भावुकता से पैदा हुआ नहीं है। यह राज्य नामक एक अत्यंत व्यावहारिक संस्था के व्यावहारिक विवेक का रहम है। राज्य ताकत के सहारे ही चलने वाली संस्था है। उसे ताकत का इस्तेमाल छोड़ने को कहना आत्महत्या करने की अपील जैसा है। इसलिए इस सारी चर्चा को हम व्यावहारिक नजरिए से ही देखें।

भारतीय जनता पार्टी ने, जैसा उसकी भारतीय सभ्यता और संस्कृति की शिक्षा से अपेक्षित था, उन सबको, जो फांसी रोकने की अपील कर रहे थे, ‘दिमागी रूप से कमजोर’ घोषित कर दिया है।

इस सूची में सबसे पहला नाम है दिवंगत बी रमन का। वे ‘रॉ’ के शीर्ष अधिकारी थे, याकूब मेमन की भारत वापसी को अंजाम दिया था, विचारों से दक्षिणपंथी थे, वर्तमान प्रधानमंत्री के प्रशंसक भी। फिर क्यों याकूब को फांसी की सजा की खबर सुन कर यह कर्तव्यनिष्ठ राष्ट्रवादी अधिकारी बेचैन हो उठा? उन्होंने लिखा कि वे भीषण मानसिक द्वंद्व से लिखने को बाध्य हुए, क्योंकि उनके सामने सवाल था कि अगर वे इस समय ‘राष्ट्रीय भावना’ से डर कर सच नहीं बोलेंगे, तो खुद अपनी निगाह में नैतिक रूप से कायर सिद्ध होंगे।

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अपनी आत्मा को बचाने के लिए ही रमन ने लिखा कि याकूब को भारत की खुफिया संस्था ने कुछ वादा किया था, जिसके बिना मुंबई बम धमाकों के पीछे की साजिश का पता लगाना नामुमकिन था। उन्होंने लिखा कि जब एक संप्रभु राज्य के प्रतिनिधि के रूप में उसके अधिकारी कोई वादा करते हैं, तो उससे मुकर जाना अशोभन कृत्य भर नहीं। किसी राज्य की प्रतिष्ठा उसके वादे की रक्षा पर टिकी है।

न्यायमूर्ति हरजीत सिंह बेदी कोई वामपंथी नहीं। वे काटजू की तरह बात-बात पर राय देने के आदी नहीं। वे सेवामुक्त होने के बाद कई अन्य न्यायाधीशों की तरह सार्वजनिक सक्रियता में भी नहीं। लेकिन रमन का लेख पढ़ कर कानून के पेशे की उनकी नैतिकता ने उन्हें बाध्य किया कि वे न्यायाधीशों की अभिजात गरिमा द्वारा आरोपित खामोशी तोड़ कर अपने विक्षोभ को जाहिर करें। अक्सर बड़े लोग जबान खाली होने के डर से सही बात कहने से कतरा जाते हैं। इस सारी हिचक को पार कर उन्होंने अपनी पेशागत नैतिकता के तहत सर्वोच्च न्यायालय को राय दी कि वह अपने फैसले पर फिर से सोचे।

रेडिफ डॉट कॉम की शीला भट, जिन्होंने 2007 का लिखा और तब छपवाने से हिचक गए अपने मित्र, पूर्व खुफिया अधिकारी बी रमन का लेख अब प्रकाशित करने का निर्णय किया, ‘धर्मनिरपेक्ष’ पत्रकारों की जमात की नहीं। वे पक्की पत्रकार हैं और ‘पक्षपातपूर्ण’ पत्रकारिता में यकीन नहीं करतीं। वे खुद को गर्व से पेशेवर कहती हैं। शीला ने अगर अपने पेशे की नैतिकता को नजरअंदाज कर दिया होता तो आठ साल पुराने लेख को छापने की न सोचतीं।

याकूब मेमन की फांसी रोकने की दरख्वास्त, इसलिए व्यावहारिक कारणों से की गई थी: भारत नामक राज्य की विश्वसनीयता की चिंता से, इसकी संस्थाओं की प्रामाणिकता की चिंता से, न्याय को, जो कि भारतीय संविधान की मूल प्रतिज्ञा है, सुनिश्चित करने की चिंता से। अगर पेशों की विश्वसनीयता खत्म हो जाती है, तो शायद ही कुछ बचता है। इसलिए राष्ट्रवादी हिचक और रोष का अतिक्रमण करके सबने बोलना जरूरी समझा। अगर ये सब भारत के शासक दल की निगाह में कमजोर दिमाग हैं, तो भारत का रखवाला ईश्वर ही हो सकता है!

क्या यह फांसी दहशतगर्दी से लड़ने के भारत के दृढ़ संकल्प की अभिव्यक्ति है? वह भले हो, लेकिन यह है आत्मघाती। इसलिए कि दहशतगर्दी का तंत्र एक पेचीदा चीज है। उसमें याकूब जैसे कई लोग अनचाहे फंस जाते हैं। अगर वे निकलना चाहें, राज्य का सहयोग करना चाहें और राज्य उन्हें ही सजाए-मौत दे दे, क्योंकि दहशत के असली स्रोत तक वह पहुंच ही नहीं सकता, तो वह दरअसल दहशत का दायरा बढ़ा रहा है। उसने याकूब को दी गई टाइगर मेमन की इस चेतावनी को सच साबित कर दिया है, तुम चले हो खुद को गांधीवादी साबित करने और वे तुम्हें आतंकवादी बना देंगे।’

इस फांसी ने उन तमाम लोगों को फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया होगा, जो दहशतगर्दी के चंगुल से निकलने का रास्ता खोज रहे होंगे। राज्य को इस्तेमाल में आने देना जोखिम का काम है, यह अफजल गुरु और याकूब के हश्र से साबित होता है। तो भारत खुद को अधिक सुरक्षित कर रहा है या असुरक्षित?

कई लोगों ने कहा कि क्या बाबरी मस्जिद ध्वंस, नेल्ली में मुसलिम संहार, राम जन्मभूमि अभियान के दौरान हुई मुसलिम विरोधी हिंसा के मामलों में इंसाफ नहीं हुआ, तो मुंबई धमाकों में भी न हो? वे ठीक कह रहे हैं। किसी एक प्रसंग में न्याय न होना दूसरे प्रसंग में न्याय को बाधित नहीं कर सकता। लेकिन ध्यान रहे कि एक तरह के मामलों में न्याय की वंचना से एक संदर्भ बनता है, जो अन्याय की भावना को जन्म देता है।

न्यायमूर्ति बेदी ने लिखा है कि असली चीज है इंसाफ, न कि सजा। इसलिए राजकीय अधिवक्ता सिर्फ राज्य के हित की नहीं, अभियुक्त के हित का भी रक्षक है। वह इंसाफ का प्रहरी है। यह सिर्फ बचाव पक्ष का जिम्मा नहीं कि वह अभियुक्त के पक्ष में सारे संभव तर्क और उनकी स्थितियां पेश करे। यह काम राजकीय अधिवक्ता का है। याकूब मेमन के प्रसंग में अगर वे स्थितियां और तर्क पहले पेश नहीं किए गए, जो इधर बी रमन के लेख से उगागर हुए, अगर याकूब ‘अप्रूवर’ न बना तो यह उसके वकीलों का ही नहीं, राजकीय पक्ष का भी दोष है।

पेशेवर राय को नजरअंदाज किया जाना चिंताजनक है। यह इसलिए और अधिक गंभीर है कि न्यायपालिका भी विलंब के आरोप के दबाव में पुनर्विचार के सिद्धांत को ठुकरा रही है। वह ध्यान रखे कि एक ऐसे दल के सत्तासीन होने की स्थिति में, जो धार्मिक बहुसंख्यकवादी रहा है, भारत के धर्मनिरपेक्ष आधार को बनाए रखने की अतिरिक्त जिम्मेदारी उस पर है। उसे हर प्रकार के राष्ट्रवादी संकोच से हर वक्त संघर्ष करना होगा।

 

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