कारोबारियों को फायदा पहुंचाने के लिए अंतत: सरकार ने छोटी बचत योजनाओं पर दिए जाने वाले ब्याज की दरों में 1.3 प्रतिशत तक की कटौती की है। पब्लिक प्रोविडेंट फंड (पीपीएफ) की ब्याज दर में 0.60 प्रतिशत, सुकन्या समृद्धि की ब्याज दर में भी 0.60 प्रतिशत, किसान विकास पत्र (केवीपी) की ब्याज दर में 0.90 प्रतिशत, पांच साल की नेशनल सेविंग स्कीम (एनएससी) की ब्याज दर में 0.40 प्रतिशत, डाकघर के एक उत्पाद पर दिए जा रहे ब्याज की दर में 1.30 प्रतिशत आदि की कटौती की गई है। एक अप्रैल से लागू की जाने वाली नई व्यवस्था के तहत छोटी जमा योजनाओं पर दिए जा रहे ब्याज की दरों की समीक्षा हर तीन महीने पर की जाएगी। इस तरह, अब हर तीन महीने पर इन ब्याज दरों में बदलाव किया जा सकेगा।

सरकार का कहना है ऐसा निर्णय इसलिए लिया गया है, ताकि छोटी जमा योजनाओं पर दिए जाने वाले ब्याज की दरों को सरकारी प्रतिभूतियों के बाजार भाव के अनुरूप रखा जा सके, लेकिन जानकारों के मुताबिक ऐसा निर्णय कारोबारियों के हित को साधने के लिया गया है। इस निर्णय के तुरंत बाद कारोबारी कर्ज की ब्याज दरों में कटौती की मांग भी करने लगे हैं।

दरअसल, काफी समय से छोटी बचत योजनाओं पर मिलने वाले ज्यादा ब्याज को, कर्ज ब्याज दर में कटौती की राह का सबसे बड़ा रोड़ा माना जा रहा था। कहा जा रहा था कि छोटी बचत योजनाओं पर ज्यादा ब्याज देने के कारण बैंक, रिजर्व बैंक द्वारा नीतिगत दरों में कटौती के बावजूद उसका फायदा कारोबारियों को नहीं दे पा रहे हैं।

लिहाजा, कारोबारियों व सरकार के दबाव में बैंक एक लंबे अरसे से छोटी बचत योजनाओं जैसे, पीपीएफ, एनएससी, केवीपी आदि में दिए जा रहे ज्यादा ब्याज की दरों को लेकर अपने एतराज सरकार के समक्ष रख रहे थे। सुकन्या समृद्धि योजना व बुजुर्गों के लिए चलाई जा रही छोटी जमा योजनाओं में दिए जा रहे ब्याज की दरों को लेकर भी वे अपनी आपत्ति जता रहे थे। गौरतलब है कि बैंक महंगी जमा लागत वाली पूंजी के बूते कर्ज दर में कटौती नहीं कर सकते हैं। पूंजी की लागत सस्ती होने पर ही ऐसा करना उनके लिए संभव हो सकता है।

बहरहाल, सरकार के ताजा फैसले के आलोक में कहा जा रहा है कि छोटी योजनाओं में दी जा रही ब्याज दरों में कटौती करने के बाद बैंक अपने आधार दरों में आधा फीसद से एक फीसद तक कटौती कर सकते हैं। आधार दर वह न्यूनतम कर्ज दर है, जिससेकम दर पर बैंक कर्ज नहीं दे सकते हैं।
बैंक-कार्यों को मोटे तौर पर दो भाग में बांटा जा सकता है। पहला, लोगों से पैसा जमा के रूप में स्वीकार करना। दूसरा, जमा पैसे को कर्ज के रूप में जरूरतमंदों के बीच वितरित करना। स्पष्ट है कि बैंकों के पास कर्ज देने के लिए पैसा मुख्य रूप से आम आदमी से प्राप्त होता है। आजकल बैंकों को सस्ती दर पर पूंजी बमुश्किल मिल पा रही है। महंगी दर पर पूंजी मिलने के कारण बैंकों की जमा और कर्ज दर के बीच का अंतराल कम होता जा रहा है, जिससे बैंकों की लाभप्रदता पर लगातार दबाव बना हुआ है।

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने बीते साल नीतिगत दरों में सवा फीसद की कटौती की थी, जिससे बैंकिंग प्रणाली में कर्ज दर में कटौती करने लायक पर्याप्त नकदी का संचार हुआ था, लेकिन बैंकों ने राजन की फटकार के बाद भी इसका फायदा कारोबारियों को नहीं दिया। कहा कि नीतिगत दरों में कमी के बावजूद उनके पास पूंजी की कमी है। अगर रिजर्व बैंक नीतिगत दरों में उल्लेखनीय कटौती करेगा तो ही वे इसका फायदा कर्जदारों को देने में समर्थ हो सकेंगे।

कर्ज दर में अगर कटौती होती तो बाजार में नकदी का संचार होता, जिससे औद्योगिक उत्पादन में तेजी, उत्पादों की बिक्री में बढ़ोतरी, विकास दर में इजाफा, रोजगार के अवसरों में तेजी, अर्थव्यवस्था में मजबूती आदि संभव हो सकते थे। मालूम हो कि रिजर्व बैंक, रेपो व रिवर्स रेपो दर की मदद से बाजार की मौद्रिक स्थिति को संतुलित रखता है। केंद्रीय बैंक बाजार में नकदी की उपलब्धता को सुनिश्चित करने के लिए रेपो दर में कटौती करता है, जबकि रिवर्स रेपो दर के माध्यम से रिजर्व बैंक बाजार में उपलब्ध अतिरिक्त नकदी को सोख लेता है।

दोनों का इस्तेमाल बाजार में नकदी पर नियंत्रण करने के लिए किया जाता है। रेपो दर वह दर होती है जिस पर वाणिज्यिक बैंक, रिजर्व बैंक से, अल्पकालिक जरूरतों को पूरा करने के लिए नकदी लेते हैं, और रिवर्स रेपो दर ठीक इससे उलट होती है, वहीं सीआरआर बैंकों के पास जमा राशि का वह हिस्सा है जिसे बैंकों को केंद्रीय बैंक के नियंत्रण में रखना होता है, लेकिन केंद्रीय बैंक, वाणिज्यिक बैंकों को इस पर कोई ब्याज नहीं देता है।

इधर, एनपीए के कारण बैंकों का मुनाफा लगातार कम हो रहा है। बैंक पूंजी के अभाव में कर्ज वितरण का कार्य नहीं कर पा रहे हैं, जिससे देश में औद्योगिक मंदी को बढ़ावा मिल रहा है। बैंक एनपीए वसूली के लिए लगातार अभियान चला रहे हैं, लेकिन अभी तक अपेक्षित परिणाम नहीं दिखा है। एनपीए पर नियंत्रण रखने के लिए अब बैंकों को कर्ज बांटने में विशेष सतर्कता बरतनी पड़ रही है।

एक अनुमान के अनुसार अर्थव्यवस्था में छाई मंदी को दूर करने व बैंकिंग उद्योग को संबल प्रदान करने के लिए कर्ज वृद्धि दर का बीस प्रतिशत होना जरूरी है, लेकिन फिलहाल सरकारी बैंक बढ़ते एनपीए के कारण कर्ज देने से परहेज कर रहे हैं। एनपीए मद में बैंकों को हर साल ज्यादा प्रावधान करना पड़ रहा है, जिसके कारण बैंकों को पूंजी की कमी पड़ जाती है। बेसल तृतीय के विविध मानकों को पूरा करने के लिए बैंकों को कम से कम आठ प्रतिशत इक्विटी कैपिटल रेशियो रखना होगा और पूंजी पर्याप्तता अनुपात को नौ प्रतिशत से बढ़ा कर साढ़े ग्यारह प्रतिशत करना होगा, जिसके लिए सरकारी बैंकों को पच्चीस हजार करोड़ से छत्तीस हजार करोड़ रुपए तक अपनी पूंजी का दायरा 2019 तक बढ़ाना है।
बैंक कर्ज दर में कटौती करने के लिए विवश हो जाएं इसके लिए रिजर्व बैंक 1 अप्रैल, 2016 से नई आधार दर को अमली जामा पहनाने जा रहा है।

इसके लिए न्यूनतम कोष लागत पर कर्ज (एमसीएलआर) को मानक बनाया गया है। इसके अनुपालन के लिए बैंकों को पांच बेंचमार्क दर का निर्धारण करना होगा, जिसकी अवधि एक दिन से एक साल तक हो सकती है। इस प्रणाली के तहत जमा कोष की लागत, परिचालन खर्च, लंबी अवधि के कर्ज से बैंकों को मिलने वाले लाभ के हिस्से को कर्जदारों से साझा करना, सीआरआर के अनुपालन के लिए केंद्रीय बैंक के पास रखे गए कोष (जिस पर केंद्रीय बैंक कोई ब्याज नहीं देता है) से होने वाले नुकसान की भरपाई कर्जदारों से नहीं करना, रेपो दर आदि को दृष्टिगत रखते हुए बैंक कर्ज दर का निर्धारण आदि पर बैंक अमल करेंगे। याद रहे, रिजर्व बैंक जब रेपो दर में कटौती करता है तो बैंकों को कम लागत पर नकदी मिलती है। कम लागत व बिना जोखिम के नकदी मिलने के बाद बैंकों को तुरंत नीतिगत दरों की कटौती का फायदा कर्जदारों को देने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

इसमें दो राय नहीं कि कर्ज दर में कमी आने से लोग गृह, वाहन, उपभोक्ता, व्यक्तिगत आदि श्रेणियों के कर्ज लेने में समर्थ हो सकेंगे, जिससे वाहनों व अन्य उत्पादों की बिक्री में तेजी आएगी, क्योंकि महंगे उत्पादों को खरीदना कर्ज के बिना मुश्किल है। रघुराम राजन पहले ही नीतिगत दरों में पर्याप्त कटौती कर चुके हैं। बैंकों को अपना कार्य करना बाकी है, लेकिन वे पूंजी की कमी, बढ़ते एनपीए, बेसल तृतीय के विविध मानकों का अनुपालन करने तथा छोटी योजनाओं में दी जा रही ज्यादा ब्याज दरों के कारण इस महत्त्वपूर्ण कार्य को नहीं कर पा रहे हैं।
भले ही सरकार ने छोटी बचत योजनाओं पर दी जा रही ज्यादा ब्याज दरों में कटौती का फैसला ले लिया है, लेकिन ऐसा करने से वित्तीय समावेशन की सरकार की संकल्पना खटाई में पड़ सकती है, क्योंकि छोटी योजनाओं पर कम ब्याज मिलने से आम लोग ग्रामीण इलाकों में सूद पर पैसा लगाना ज्यादा बेहतर समझेंगे। इससे सोने की जमाखोरी को भी बल मिल सकता है, क्योंकि छोटी जमा योजनाओं पर कम ब्याज मिलने पर लोग स्वर्ण में निवेश के लिए प्रेरित होंगे, जिससे सोने के आयात में बढ़ोतरी होगी। आयात के बढ़ने से विदेशी मुद्रा की मांग बढ़ेगी। साथ ही, आयात के बढ़ने और निर्यात के कम होने से व्यापार घाटा और बढ़ेगा।

सरकार ने बजट में छोटी जमा योजनाओं से अरबों-खरबों करोड़ रुपए इकट्ठा करने की योजना बजटीय घाटे को कम करने के लिए बनाई थी, जिस पर पानी फिर सकता है। इसका सबसे बड़ा नुकसान आम आदमी को होगा, क्योंकि देश की एक से दो प्रतिशत आबादी ही शेयर बाजार में पैसा लगाने का जोखिम उठाती है। शेष लोग छोटी जमा योजनाओं के माध्यम से ही बचत कर पाते हैं। ऐसे में लोगों की बचत करने की आदत को धक्का लगेगा।