योगेश कुमार गोयल

संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान दुनिया को चेता चुके हैं कि उन्हें इस बात का डर है कि आगामी वर्षों में पानी की कमी गंभीर संघर्ष का कारण बन सकती है। अगर पृथ्वी पर जल संकट इसी कदर गहराता रहा तो इसे निश्चित मानकर चलना होगा कि पानी हासिल करने के लिए विभिन्न देश आपस में टकराने लगेंगे और दो अलग-अलग देशों के बीच युद्ध की नौबत भी आ सकती है।

पानी के मसले पर ‘ग्लोबल कमीशन आन द इकोनोमिक्स आफ वाटर’ (जीसीईडब्लू) द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह चौंकाने वाला तथ्य दुनिया के समक्ष रखा गया है कि दुनियाभर में इस दशक के अंत तक ताजे पानी की आपूर्ति की मांग चालीस फीसद तक बढ़ जाएगी और पानी की कमी के साथ ही निरंतर बढ़ती गर्मी के कारण आगामी दो दशकों में खाद्यान्न उत्पादन काफी घट जाएगा।

इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत को भी इस वजह से खाद्य आपूर्ति में सोलह फीसद से अधिक की कमी का सामना करना पड़ेगा, जिससे खाद्य असुरक्षित आबादी में पचास फीसद से ज्यादा की वृद्धि होगी। रिपोर्ट के अनुसार भारत में जल आपूर्ति की उपलब्धता 1,100 से 1,197 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) के बीच है और पानी की मांग भारत में 2010 के मुकाबले 2050 तक दोगुनी होने की उम्मीद है।

वास्तविकता यही है कि जल संकट अब दुनिया के लगभग सभी देशों के साथ भारत के लिए भी एक विकट समस्या बन चुका है। यहां गर्मी के मौसम की शुरुआत के साथ ही स्थिति बिगड़ने लगती है। भारत में वैश्विक जनसंख्या का करीब अठारह फीसदी हिस्सा निवास करता है, जबकि भारत को केवल चार फीसदी जल संसाधन ही उपलब्ध हैं।

हालांकि देश के सात राज्यों की 8,220 ग्राम पंचायतों में भूजल प्रबंधन के लिए ‘अटल भूजल योजना’ चल रही है, लेकिन भूजल के गिरते स्तर के मद्देनजर इसे पूरी गंभीरता के साथ देशभर में चलाए जाने की दरकार है। हाल ही में न्यूयार्क में करीब पांच दशक बाद ताजे पानी के संबंध में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें संयुक्त राष्ट्र महासचिव गुतारेस ने दुनिया और भारत में पानी की स्थिति के बारे में भयावह चित्र प्रस्तुत किया।

नदियों को भारत की जीवनरेखा माना जाता रहा है, लेकिन इस सम्मेलन में कहा गया कि गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र जैसी विशाल नदियों में पानी कम होता जाएगा और 2050 तक पानी की उपलब्धता जरूरत से एक तिहाई कम रह जाएगी। करीब ढ़ाई हजार किलोमीटर लंबी गंगा देश की सबसे प्रमुख नदी है, जिस पर कई राज्यों के करोड़ों लोग निर्भर करते हैं। हिमालय में 9,575 हिमनद यानी ग्लेशियर हैं और नदियों में पानी हिमनदों से आता है।

केवल उत्तराखंड में ही 968 हिमनद हैं, लेकिन मौसम के असाधारण परिवर्तन के कारण हिमनद तेजी से पिघलने लगे हैं। पिछले 87 वर्षों में 30 किलोमीटर लंबे गंगोत्री हिमनद का 1.75 किलोमीटर हिस्सा पिघल गया है। हिमनदों के तेजी से पिघलने से देश में पानी की भयावह किल्लत पैदा होने के अनुमान लगाए जा रहे हैं। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की सीएसई रिपोर्ट में चेताते हुए कहा गया है कि भारत में गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु जैसी नदियां करोड़ों लोगों को पानी देती हैं, लेकिन नई वैज्ञानिक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की दस नदियों के सूखने का खतरा पैदा हो गया है।

एक आकलन के अनुसार, दुनियाभर में इस समय करीब दो अरब लोग ऐसे हैं, जिन्हें स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं हो पा रहा और इसके कारण लाखों लोग बीमार होकर असमय काल का ग्रास बन जाते हैं। हालांकि पृथ्वी का करीब तीन चौथाई हिस्सा पानी से लबालब है, लेकिन धरती पर मौजूद पानी के विशाल स्रोत में से महज एक-डेढ़ फीसदी पानी ही ऐसा है, जिसका उपयोग पेयजल या दैनिक क्रियाकलापों के लिए किया जाना संभव है।

‘इंटरनेशनल एटमिक एनर्जी एजेंसी’ का कहना है कि पृथ्वी पर उपलब्ध पानी की कुल मात्रा में से मात्र तीन प्रतिशत पानी ही स्वच्छ बचा है और उसमें से भी करीब दो प्रतिशत पानी पहाड़ों और ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा है, जबकि शेष एक प्रतिशत पानी का उपयोग ही पेयजल, सिंचाई, कृषि और उद्योगों के लिए किया जाता है। बाकी पानी खारा होने या अन्य कारणों से उपयोगी या जीवनदायी नहीं है।

पृथ्वी पर उपलब्ध पानी में से इस एक प्रतिशत में से भी करीब 95 फीसदी पानी भूमिगत जल के रूप में पृथ्वी की निचली परतों में है और बाकी पृथ्वी पर सतही जल के रूप में तालाबों, झीलों, नदियों या नहरों में और मिट्टी में नमी के रूप में उपलब्ध है। स्पष्ट है कि पानी की हमारी अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति भूमिगत जल से ही होती है, लेकिन इसकी मात्रा इतनी नहीं है कि इससे लोगों की आवश्यकताएं पूरी हो सकें।

इस समय दुनियाभर में करीब तीन बिलियन लोगों के समक्ष पानी की समस्या मुंह बाए खड़ी है और विकासशील देशों में तो यह समस्या कुछ ज्यादा ही विकराल हो रही है, जहां करीब 95 फीसदी लोग इस समस्या को झेल रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान दुनिया को चेता चुके हैं कि उन्हें इस बात का डर है कि आगामी वर्षों में पानी की कमी गंभीर संघर्ष का कारण बन सकती है।

अगर पृथ्वी पर जल संकट इसी कदर गहराता रहा तो इसे निश्चित मानकर चलना होगा कि पानी हासिल करने के लिए विभिन्न देश आपस में टकराने लगेंगे और दो अलग-अलग देशों के बीच युद्ध की नौबत भी आ सकती है। जैसी कि आशंकाएं जताई जा रही है कि अगला विश्व युद्ध भी पानी की वजह से लड़ा जा सकता है। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच पानी के मुद्दे को लेकर तनातनी चलती रही है।

उत्तरी अफ्रीका के कुछ देशों के बीच भी पानी की वजह से झगड़े होते रहे हैं। इजराइल और जार्डन, मिस्र और इथोपिया जैसे कुछ अन्य देशों के बीच भी पानी को लेकर काफी गर्मागर्मी देखी जाती रही है। अपने ही देश में विभिन्न राज्यों के बीच पानी के बंटवारे के मामले में पिछले कुछ दशकों से गहरे मतभेद बरकरार हैं और वर्तमान में भी जल वितरण का मामला लगातार अधर में लटका रहने से कुछ राज्यों में जलसंकट की स्थिति काफी गंभीर बनी हुई है। इसलिए बेशकीमती पानी की महत्ता को समय रहते समझना होगा।

कहा जाता रहा है कि भारत ऐसा देश है, जिसकी गोद में कभी हजारों नदियां खेलती थीं, लेकिन आज इन हजारों नदियों में से कुछ सौ ही शेष बची हैं और वे भी अच्छी हालत में नहीं हैं। हर गांव-मोहल्ले में कुएं और तालाब हुआ करते थे, जो अब पूरी तरह गायब हो गए हैं। महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि पृथ्वी की सतह पर उपयोग में आने लायक पानी की मात्रा वैसे ही बहुत कम है और अगर भूमिगत जलस्तर भी निरंतर गिर रहा है तो हमारी पानी की आवश्यकताएं कैसे पूरी होंगी?

इसके लिए हमें वर्षा के पानी पर आश्रित रहना पड़ता है, लेकिन वर्षा के पानी का भी सही तरीके से संग्रहण न हो पाने के कारण इस पानी का भी समुचित उपयोग नहीं हो पाता। वर्षा के पानी का करीब 15 फीसद वाष्प के रूप में उड़ जाता है और करीब 40 फीसद पानी नदियों में बह जाता है, जबकि शेष पानी जमीन द्वारा सोख लिया जाता है, जिससे थोड़ा बहुत भूमिगत जल स्तर बढ़ता है और मिट्टी में नमी की मात्रा में कुछ बढ़ोतरी होती है।

हमें समझना होगा कि बारिश की एक-एक बूंद बेशकीमती है, जिसे सहेजना बहुत जरूरी है। अगर वर्षा के पानी का संरक्षण किए जाने की ओर खास ध्यान दें तो व्यर्थ बहकर नदियों में जाने वाले पानी का संरक्षण कर उससे पानी की कमी की पूर्ति आसानी से की जा सकती है और इस तरह जल संकट से काफी हद तक निपटा जा सकता है। अगर हम वाकई जल संकट का समाधान चाहते हैं तो समय रहते हमें समझना होगा कि पानी प्रकृति की अमूल्य देन है और यह बेहद जरूरी है कि हम प्राकृतिक संसाधनों को दूषित होने से बचाएं, वर्षा जल का संरक्षण करें और पानी का अनावश्यक दोहन करने से बचें।