संजय ठाकुर

कभी बड़े-बड़े झुंडों में बैठे या मंडराते गिद्धों को देखकर यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि बहुत जल्द ये विलुप्त होने के कगार पर पहुंच जाएंगे। समय ने तेजी से करवट बदली और 1990 में तीन प्रजातियों के गिद्धों की जो अनुमानित संख्या दो से चार करोड़ थी, वह अब घट कर दस हजार से भी कम रह गई है। स्लैंडर बिल्ड नामक प्रजाति के गिद्ध तो चार सौ से भी कम रह गए हैं। उत्तरी अमेरिका के पैसेंजर पिजन के बाद यह पक्षियों की अब तक की सबसे बड़ी तबाही है। वर्ष 1870 से 1914 के बीच उत्तरी अमेरिका के पैसेंजर पिजन की संख्या पांच अरब से शून्य पहुंच गई थी। वैसे तो गिद्ध समूचे भारत में पाए जाते हैं मगर उत्तर और पूर्व में इनकी संख्या अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा ज्यादा रही है। भारत में लगभग सभी तरह के गिद्ध होते हैं। इनमें यूरेशियन ग्रिफन, हिमालयन ग्रिफन, व्हाइट-बैक्ड और स्लैंडर बिल्ड जैसी प्रजातियों के गिद्ध प्रमुख हैं। अब देश के हर क्षेत्र में इन सभी प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट छा गया है। मसलन, यूरेशियन ग्रिफन, हिमालयन ग्रिफन, व्हाइट-बैक्ड और स्लैंडर बिल्ड प्रजातियों के गिद्धों की अच्छी संख्या वाले राज्यों में शुमार हिमाचल प्रदेश में अब इन्हें वन्य-प्राणियों की सूची में ‘क्रिटिकली ऐनडेंजर्ड’ घोषित कर दिया गया है। वहां पिछले कुछ वर्षों में व्हाइट-बैक्ड गिद्धों की संख्या में लगभग उनतालीस प्रतिशत कमी आई है। यूरेशियन ग्रिफन गिद्ध भी लगभग उनतीस प्रतिशत और स्लैण्डर बिल्ड गिद्ध तकरीबन सतहत्तर प्रतिशत की दर से कम हुए हैं। वर्ष 2018 तक आते-आते स्थिति यह बन गई कि हिमाचल में गिद्ध नाममात्र के ही रह गए हैं। कई स्थानों पर तो वे नजर आना ही बंद हो गए हैं।

गिद्धों की तेजी से घटती संख्या का कारण पूरी तरह से मानव-जनित है। विकास के इस दौर में बहुत-सी इंसानी खोजें कई रूपों में प्राणी-मात्र, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के सामने संकट बन कर खड़ी हो जाती हैं। विकास की ऐसी तस्वीर का ही एक रंग गिद्धों को भी भू-पटल से मिटाने पर आमादा है। बहुत समय हुआ जब घरेलू पशुओं के उपचार के लिए डिक्लोप्लस के ब्रांड नाम से बेची जाने वाली एक दवा इस्तेमाल की जाने लगी। यह दवा डिक्लोफैनेक सोडियम और पैरासिटामॉल के अवयवों से तैयार की जाती है। डिक्लोफैनेक के नाम से प्रचलित इस दवा का इस्तेमाल पशुओं की विभिन्न बीमारियों के उपचार के लिए किया जाता है। वैसे तो इस दवा का विकास मनुष्यों की विभिन्न बीमारियों के उपचार के लिए किया गया था लेकिन अस्सी के दशक में इसका उपयोग गाय, बैल, भैंस और भैंसा जैसे मवेशियों के लिए भी शुरू कर दिया गया। इस तरह यह दवा कई वर्षों से पशुओं की विभिन्न बीमारियों के उपचार के लिए इस्तेमाल की जा रही है।

एक लंबा समय बीता कि तेजी से गिद्धों की संख्या कम होने का जब कोई कारण नजर नहीं आया तो इस दवा की जांच की जरूरत महसूस हुई। यह बात चौंकाने वाली थी कि गिद्धों की तेजी से घटती संख्या का कारण इस दवा में छुपा मिला। जांच में पाया गया कि डिक्लोफैनेक सोडियम एक ऐसा अवयव है जो गिद्धों के गुर्दों पर बहुत बुरा असर डालता है। इससे उनके गुर्दे खराब हो जाते हैं और उनकी जान पर बन आती है। यह अवयव गिद्धों के शरीर में तब जाता है जब वे किसी ऐसे मृत पशु को खाते हैं जिसका उपचार कभी डिक्लोफैनेक दवा से किया गया हो। गिद्धों पर इस तरह के असर से यह दवा अंतरराष्ट्रीय चिंता का कारण बन गई। उन्हें इस दवा की मार से बचाने का एक ही उपाय था कि इसे पूर्ण रूप से प्रतिबंधित कर दिया जाता। इस तरह डिक्लोफैनेक दवा पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगा दिया गया।

लेकिन अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध के बावजूद सभी देशों ने इस दवा के निर्माण और बिक्री पर पूरी तरह रोक लगाने में एक-सा उत्साह नहीं दिखाया। नतीजा यह निकला कि इसके निर्माण व उपयोग को विभिन्न देशों की सरकारों व प्रशासन की मौन-स्वीकृति मिली रही। भारत में भी स्थिति कुछ ऐसी ही रही जिस कारण गिद्ध मरते रहे और इनके विलुप्त होने जैसे हालात बन गए। जब हालात इतने बिगड़े कि गिनती भर के गिद्ध रह गए और नजर भी आना लगभग बंद हो गए तो सरकार ने 2007 में डिक्लोफैनेक दवा के निर्माण व इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन कोशिश आधी-अधूरी ही साबित हुई क्योंकि प्रतिबंध के बाद भी इसका निर्माण व इस्तेमाल हो रहा है। यह स्थिति तब है कि जब डिक्लोफैनेक दवा के विकल्प के तौर पर मैलौक्सीकैम जैसी दवा बनाई जा चुकी है जो गिद्धों के लिए सुरक्षित है।

गिद्धों को विलुप्त होने से बचाने के पीछे सिर्फ भावनात्मक कारण नहीं हैं। इनका पारिस्थितिकी संतुलन स्थापित करने में भी अहम योगदान है जिससे इनका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। मृत पशुओं का मांस गिद्धों का भोजन है। अकेले भारत में ही लगभग बीस करोड़ गाय, बैल, भैंस और भैंसा जैसे मवेशी हैं। भारतीय, विशेषकर हिंदू समुदाय के लोग स्वाभाविक रूप से गोमांस नहीं खाते। ऐसे में किसानों द्वारा मृत गाय-भैंस आदि पशुओं को भूमि में दबा दिया जाता है। कुछ स्थानों पर मृत पशुओं के लिए स्थानीय क्षेपण भूमि का भी इस्तेमाल किया जाता है। कभी-कभार ऐसा भी देखा गया है कि पशुओं को मृतावस्था में वहीं छोड़ दिया जाता है जहां गिरने से उनकी मौत हुई होती है। भूमि में दबाए गए, स्थानीय क्षेपण भूमि में पड़े और जहां-तहां गिरकर मरने वाले पशुओं को गिद्ध कुछ ही घंटों में साफ कर जाते हैं। गिद्धों के लगातार घटने से अब किसान मृत पशुओं को सड़ने के लिए छोड़ने लगे हैं जिससे कई तरह की बीमारियों के खतरे बढ़ गए हैं। गिद्धों के कम होने से जंगली कुत्तों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। यह बात भारत जैसे देश के लिए अच्छी नहीं है जहां पहले ही दुनिया के अस्सी प्रतिशत जलातंक या अलर्करोग (रैबीज) के मामले सामने आते हैं।

गिद्धों की एक अन्य भूमिका भी है। भारत दुनिया के ज्यादातर पारसियों का भी घर है। यहां विशेषकर मुंबई में बहुत-से पारसी रहते हैं। पारसी जरतुश्ती (जोरोऐस्ट्रियन) होते हैं जो प्राचीन फारसी अग्नि-पूजकों के धार्मिक वंशज कहे जाते हैं। जरतुश्त-धर्म (जोरोऐसिट्रयनिज्म) में मूल तत्त्व (ऐलीमैंट्स) को पवित्र और शरीर को अपवित्र माना जाता है। इसीलिए पारसी लोग शवों का न तो दाह-संस्कार करते हैं और न दफनाते हैं। पारसियों द्वारा शवों को बुर्जों (टॉवर्ज) पर जिन्हें ‘डोखमा’ कहा जाता है, गिद्ध जैसे पक्षियों के खाने लिए खुला छोड़ दिया जाता है। उनकी मान्यता है कि ऐसा करके वे न तो भूमि और न ही आग को दूषित करते हैं। अब गिद्ध कम होने से वे बुर्जों पर शवों को समाप्त करने के लिए सौर-परावर्तक स्थापित करने लगे हैं।

गिद्धों की इतनी ज्यादा उपयोगिता के बावजूद समाज में उनके संरक्षण के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई देती। हमें दरअसल गिद्धों को प्रकृति की एक सुंदर रचना के रूप में देखना चाहिए जो जरा-सी लापरवाही से समाप्त हो सकती है। इस पर गंभीरता से विचार कर गिद्धों के संरक्षण के प्रयास किए जाने चाहिए। गिद्धों के संरक्षण को अंतरराष्ट्रीय स्तर की मुहिम बनाया जाना चाहिए। कैलिफोर्निया में गिद्धों को बचाने के लिए पहले ही एक बहुत महंगा कार्यक्रम चलाया जा रहा है। भारत में भी इस तरह के प्रयास किए जा सकते हैं। इस दिशा में भारत, पाकिस्तान और नेपाल मिल कर भी काम कर सकते हैं। डिक्लोफैनेक दवा का इस्तेमाल पूरी तरह बंद कर गिद्धों की संख्या बढ़ाने के लिए सुरक्षित प्रजनन और आहार केंद्रों की स्थापना की जानी चाहिए ताकि इन्हें भोजन के अभाव जैसी समस्या का सामना न करना पड़े।