विशेष गुप्ता
जबकि तेंतालीस फीसद मामलों में आरोपी साक्ष्यों अथवा अन्य कानूनी पेचीदगियों के चलते छूट गए। इन अदालतों में तेंतालीस फीसद से भी अधिक मामले अभी भी लंबित हैं।पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) और किशोर न्याय कानून पर बनी सुप्रीम कोर्ट की समिति की बैठक में पाक्सो कानून (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण) में सुधार को लेकर प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने जो सुझाव दिए, वे अत्यंत सामयिक और विचारणीय हैं। उन्होंने साफ कहा कि यह कानून दोनों पक्षों की सहमति के बावजूद अठारह वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के साथ हुए सभी यौन कृत्यों को आपराधिक बनाता है।
इस कानून की धारणा यह है कि अठारह वर्ष से कम उम्र की लड़कियों की सहमति कोई मायने नहीं रखती। उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि इस प्रकार के मामले न्यायाधीशों के समक्ष उलझन पैदा करते हैं और बड़े सवाल भी खड़े कर रहे हैं। उन्होंने विधायिका से इस ज्वलंत मुद्दे पर गंभीरता से विचार करने की भी अपील की।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रधान न्यायाधीश का यह सुझाव मद्रास हाईकोर्ट की उस टिप्पणी के कुछ ही दिनों बाद आया जिसमें कहा गया था कि पाक्सो अधिनियम के तहत सहमति की आयु को कम करने के लिए अब विधायिका के निर्णय की प्रतीक्षा है। यहां कड़वा सच यह है कि जब तक यह कानून अठारह वर्ष से कम आयु के किसी भी किशोर को एक बच्चे के रूप में परिभाषित करता है, तब तक न्यायालय सहमति की आयु की किसी अन्य तरीके से व्याख्या नहीं कर सकता।
इस विचार से भी आगे जाकर प्रधान न्यायाधीश ने यह भी स्पष्ट किया कि बच्चों के यौन शोषण के मामले में परिवारों को भी आवाज उठानी होगी, क्योंकि बच्चों का यौन शोषण परिवारों के भीतर ही एक छिपी हुई समस्या है। साथ ही, परिवारों को अब ‘गुड टच’ यानी अच्छा स्पर्श और ‘बैड टच’ यानी बुरा स्पर्श से आगे जाकर बच्चों को सुरक्षित और असुरक्षित स्पर्श के बीच का अंतर भी सिखाना होगा। उन्होंने सरकार से भी इस मुद्दे पर लोगों को प्रोत्साहित करने की अपील की।
कहना न होगा कि हमारे संविधान के अनुच्छेद 15(3) में बच्चों के लिए विशेष उपबंध करने का प्रावधान किया गया है। इसलिए बच्चों को यौन हमले, यौन उत्पीड़न, बाल तस्करी और अश्लील साहित्य से जुड़े अपराधों से बचाने और ऐसे अपराधों पर विचार करने के लिए विशेष अदालतों की स्थापना करने के उद्देश्य से 2012 में पाक्सो कानून लागू किया गया था। इसमें कुल छियालीस धाराएं हैं।
बच्चों के विरुद्ध यौन हमले जैसे अपराधों के लिए न्यूनतम सात वर्ष से लेकर आजीवन करावास तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान इस कानून में किया गया है। इसमें कोई शक नहीं कि बच्चों को यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए लाया गया यह कानून ऐसे लोगों को पकड़ने और सजा दिलाने में कमोबेश अपना काम कर रहा है। लेकिन आज इस कानून से जुड़ा ज्वलंत मुद्दा आपसी सहमति से बने यौन संबंधों की सहमति को लेकर अधिक प्रबल होता जा रहा है।
मुश्किल यह है कि आज अदालतों के सामने पाक्सो कानून के जो मामले आ रहे हैं, उनमें सोलह से अठारह वर्ष तक के किशोर-किशोरियों के मध्य आपसी सहमति से बने यौन संबंध उन्हें अपराधियों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर रहे हैं। यही वजह है कि गैर इरादतन अपराधी बने इन किशोरों को आपराधिक मामलों से बचाने के लिए पाक्सो कानून में यौन संबंध बनाने के लिए सहमति की उम्र से जुड़ा मुद्दा पुनर्विचार करने की मांग कर रहा है। हाल में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जो बताते हैं कि इस कानून में उम्र की सहमति से जुड़े मुद्दे में परिवर्तन समयानुकूल और अवश्यंभावी है।
हाल में कर्नाटक हाईकोर्ट ने भी यही मुद्दा विचार के लिए विधि आयोग को भेजा है। पिछले दिनों मद्रास हाईकोर्ट की जेजेसी (जुवेनाइल जस्टिस कमेटी) ने किशोर न्याय कानून और पाक्सो कानून के मुद्दे पर विचार के लिए ऐसे मामलों के उदाहरण प्रस्तुत किए थे। बीती तीन दिसबंर को तमिलनाडु के पुलिस महानिदेशक ने भी राज्य की पुलिस को पारस्परिक सहमति से बनाए गए संबंधों के मामले में जल्दबाजी में पाक्सो कानून के तहत गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी।
हाल में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक अट्ठाईस राज्यों की चार सौ आठ त्वरित अदालतों में पाक्सो के तहत दर्ज दो लाख इकतीस हजार मुकदमों में केवल चौदह फीसद आरोपी ही दोषी पाए गए, जबकि तेंतालीस फीसद मामलों में आरोपी साक्ष्यों अथवा अन्य कानूनी पेचीदगियों के चलते छूट गए। इन अदालतों में तेंतालीस फीसद से भी अधिक मामले लंबित हैं। साल 2012 से 2021 तक के आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन बताता है कि बच्चों के यौन शोषण के मामलों में 48.66 फीसद आरोपी परिचित ही निकले।
हैरान करने वाला तथ्य यह है कि 3.7 फीसद मामलों में तो आरोपी परिवार का ही कोई सदस्य रहा था। मात्र छह फीसद मामलों में आरोपी वारदात से पहले बच्ची अथवा बच्चे से परिचित नहीं थे। यह सच भी सामने आया कि पाक्सो से जुड़े मामलों के निपटान की गति साल-दर-साल धीमी हो रही है। वर्ष 2016 में साठ फीसद मामले एक साल में निपटाए गए, वहीं 2018 में यह औसत बयालीस फीसद रह गया।
2020 में मात्र 19.7 फीसद और 2021 में मात्र बीस फीसद मामले ही निपटाए गए। जबकि पाक्सो अदालतों में लंबित मामले हर साल बीस फीसद से भी ज्यादा दर से बढ़ रहे हैं। दस फीसद से भी ज्यादा मामलों में न्याय मिलने में तीन साल से भी अधिक का समय लग रहा है। यानी बच्चों के यौन शोषण में जितने दोषियों को सजा मिल रही है, उससे तीन गुना ज्यादा दोषमुक्त हो रहे हैं। आज पाक्सो के सबसे कम 19.7 फीसद मामले तमिलनाडु में और सबसे ज्यादा 77.7 फीसद मामले उत्तर प्रदेश में लंबित हैं।
पाक्सो मामलों में आपसी सहमति की आयु से जुड़ी यह बहस के देश में अब और तेज होगी। इससे साफ है कि आज के खुले और उदार माहौल में अब पाक्सो कानून में निर्धारित अठारह वर्ष से कम आयु में किशोर-किशोरियों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबंधों को नए सिरे से पारिभाषित करने की महती आवश्यकता है। सोशल मीडिया के विस्तार और सूचनाओं के विस्फोट से बच्चे कम उम्र में ही प्रौढ़ हो रहे हैं।
मित्रता की उभरती नई और उदार संस्कृति ने यौन संबंधों की वर्जनाओं को तोड़ते हुए उनमें खुलेपन को बढ़ाया है। आभासी समाज के तीव्र प्रवाह के सामने प्रत्यक्ष समाज का मूल्य लगातार घट रहा है। परिवार और स्कूल भी इस प्रभाव के सामने कमजोर पड़ रहे हैं। समाज विज्ञानी तेजी से बदलते इस वैश्विक समाज के सामाजिक संबंधों के ढांचे को नए सिरे से पारिभाषित कर रहे हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि देश का कानून बदलते समाज की गति का सीमांकन करता है। लेकिन अगर समाज ही उन सीमाओं का उल्लंघन करने पर उतारू हो जाए तो वहां समय के अनुसार मौजूदा कानून की समीक्षा करना भी अपरिहार्य हो जाता है। यही सच पाक्सो कानून पर भी लागू होता है। विगत एक दशक में यौन संबंधों की परंपरागत शुचिता ने नई इबारत लिखी है। समय रहते उसको पढ़ने की आवश्यकता है। परिवार के तथाकथित सम्मान के सामने अब बच्चों के सर्वोत्तम हित और हक का संरक्षण करने के लिए जितना जल्दी हो सके, कार्यपालिका और न्यायपालिका को इस मुद्दे पर हाथ मिलाने की आवश्यकता है।