हर साल हम चौदह नवंबर को बाल सभाओं, रैलियों, वाद-विवाद, भाषण, परिचर्चाओं जैसे कार्यक्रमों के जरिए बाल दिवस मना कर गौरवान्वित महसूस करते हैं। क्या इतने वर्षों में हम बच्चों को अभिशप्त जीवन जीने से बचा पाए हैं? कतई नहीं। देश में बड़ी संख्या में बच्चों का लगातार गुम होना चिंता का विषय है। चिंता केवल उनके अभिभावकों के लिए नहीं बल्कि समाज और देश के लिए भी क्योंकि इन बच्चों की तस्करी भी हो रही है। मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले मंडला से गायब हुई बालिका ईरान में मिली है। बच्चों को अपराध की अंधी दुनिया में धकेला जा रहा है, भिक्षावृत्ति कराई जा रही है, देह व्यापार में लगाया जा रहा है, उनके अंगों को निकाल कर बेचा जा रहा है। यहां तक कि आतंकवाद फैलाने में भी उनका उपयोग किया जाता है।
नोबेल पुरस्कार विजेता और ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के अध्यक्ष कैलाश सत्यार्थी का कहना है कि ‘जो बच्चे गायब हो रहे हैं उन्हें गुमशुदा बच्चे कहना सही नहीं है। ये गुम नहीं होते बल्कि इन्हें चुराया जाता है। मानव तस्करी दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा अवैध व्यापार है।’ वर्ष 2013 में बचपन बचाओ आंदोलन के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों को निर्देश दिए थे कि बच्चे के गुमशुदा होने पर प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है लेकिन अफसोस की बात है कि ऐसा होता नहीं है। जब अभिभावक थाने में एफआइआर दर्ज कराने जाते हैं तो कह दिया जाता है कि एक दिन इंतजार करो, न मिले तो हमें बताना। गौरतलब है कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने 2012 में एक प्रमुख सुझाव दिया था कि प्रत्येक गुमशुदा बच्चे की 24 घंटे में एफआईआर दर्ज करना चाहिए क्योंकि जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, बच्चा दूर होता जाता है। हर थाने में एक अलग से सेल का गठन करना चाहिए। बच्चों को खोजने की प्रक्रिया युद्ध स्तर पर शुरू करनी चाहिए क्योंकि देर होने पर उनके मिलने की संभावनाएं क्षीण होती जाती हैं। एक बच्चे को खोजने का अर्थ उसे सुरक्षित करना, परिवार को खुशियां लौटाना, समाज को संबल देना और देश को कई मुसीबतों से बचा लेना होता है।
बहुत अफसोसनाक है कि पिछले कुछ दिनों से देश में बच्चों के शोषण के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। उनका मानसिक-शारीरिक ही नहीं बल्कि यौन शोषण भी हो रहा है। इस शोषण के शिकार लड़कियां-लड़के दोनों हैं। कई मामलों में यह शोषण उनकी हत्या तक पहुंच जाता है। बच्चों का शिकार करने वाले और कोई नहीं, अधिकांश मामलों में उनके परिवार के सदस्य, पड़ोसी और नाते-रिश्तेदार होते हैं। आखिर बच्चे किन पर विश्वास करें और कहां जाएं?
आज सामाजिक वातावरण इतना अधिक दूषित होता जा रहा है कि मानसिक विकारों से ग्रस्त व्यक्ति गैरकानूनी और अनैतिक कार्य करने में कोई गुरेज नहीं कर रहे हैं। बच्चे न तो घर में, न रिश्तेदारी में, न स्कूल में और न समाज में सुरक्षित हैं। सरकार ने बच्चों के साथ हो रहे संगीन अपराधों को देखते हुए 2012 में ‘पोक्सो एक्ट’ नामक एक विशेष कानून बनाया था जो उन्हें छेड़खानी, बलात्कार और कुकर्म जैसे अपराधों से सुरक्षा प्रदान करता है। इसके बावजूद बाल यौन शोषण के मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है। संसद में पेश आंकड़ों के अनुसार अक्तूबर 2014 तक पोक्सो के तहत दर्ज 6,816 मामलों में से सिर्फ 166 में दोषियों को सजा हो सकी जो 2.4 प्रतिशत से भी कम है जबकि 389 मामलों में लोग बरी कर दिए गए और शेष मामले वर्षों से लंबित हैं।
पोक्सो कानून की धारा चार के तहत बच्चे के साथ दुष्कर्म करने पर सात साल की सजा से लेकर उम्रकैद और अर्थदंड का प्रावधान है। इसी की धारा छह, सात और आठ के तहत दुष्कर्मी को उम्रकैद और जुर्माने की सजा भी दी जा सकती है। प्रश्न है कि इतने कड़े कानून के बावजूद बच्चों के साथ दुष्कर्म रुक क्यों नहीं रहे हैं? इसके कारणों में एकाकी परिवार का होना, माता-पिता का बच्चों को पर्याप्त समय न दे पाना, अड़ोसी-पड़ोसी पर अति विश्वास, बच्चों की एकांत में रहने की प्रवृत्ति, इंटरनेट का दुरुपयोग, उस पर अनुचित साइट्स उपलब्ध होना और समाज का प्रदूषित होता वातावरण आदि प्रमुख हैं। केवल कड़े कानून के भरोसे हम अपने बच्चों को नहीं छोड़ सकते। कानून के सख्ती से पालन की आवश्यकता तो है ही, दोषियों को त्वरित न्यायालयों के दायरे में लाकर उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दिलानी होगी।
आज भी बच्चे बाल श्रमिक के रूप में कई खतरनाक कार्यों में लगे हुए हैं। न तो उन्हें शिक्षा का अधिकार मिल पा रहा है और न ही पौष्टिक भोजन। परिणाम यह कि शिक्षा के अभाव और गरीबी के कारण ये बच्चे श्रमिक और बंधुआ मजदूर बन कर रह गए हैं। बाल श्रम देश के समक्ष आज भी चुनौती के रूप में मौजूद है। सैंतीस वर्ष पूर्व सन 1979 में इससे निपटने के लिए गुरुपदस्वामी समिति गठित की गई थी। इस समिति ने गहन अध्ययन के बाद कहा था कि जब तक देश में गरीबी रहेगी, बाल श्रम भी रहेगा इसलिए सर्वप्रथम गरीबी से निजात पाना और बाल श्रम पर प्रतिबंध लगाना होगा। समिति की सिफारिशों के आधार पर 1986 में बाल श्रम (निषेध एवं विनिमयन) अधिनियम लागू किया गया। इसके अंतर्गत बच्चों को खतरनाक व्यवसायों और प्रक्रियाओं से दूर रखा जाना था। सन 1987 में इस बाबत एक राष्ट्रीय नीति तैयार की गई। बावजूद इसके आज भी लाखों बच्चे खतरनाक उद्योग-धंधों में काम कर रहे हैं।
सन 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में छह से चौदह साल के एक करोड़ से अधिक बाल मजदूर थे। इनमें से सात लाख बच्चे मध्यप्रदेश के हैं। शहरों में रहने वाले बच्चे ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों से अधिक संख्या में मजदूरी कर रहे हैं। ये बच्चे बीड़ी बनाने, कांच उद्योग, चमड़ा एवं प्लास्टिक का सामान या विस्फोटक बनाने जैसे खतरनाक और जोखिम भरे उद्योगों में कार्य कर रहे हैं। होटलों, ढाबों, आॅटो रिपेयरिंग जैसे कामों में भी इनका शोषण होता है। जिन बच्चों को स्कूल जाना चाहिए वे कारखानों, गैरेजों और घरेलू नौकरों के रूप में कार्य कर रहे हैं। यह विडंबना ही है कि शिक्षा का अधिकार कानून भी इन बच्चों को स्कूलों तक नहीं पहुंचा पाया है।
बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) संशोधन बिल 2016 सदन में पास हो चुका है। उम्मीद है कि इस कानून के बाद बच्चों को बाल श्रम से मुक्त किया जा सकेगा। कैलाश सत्यार्थी ने बचपन बचाओ आंदोलन के तहत हजारों बच्चों को खतरनाक काम धंधों से मुक्त कराया है। देश के अन्य एनजीओ को भी बच्चों के भविष्य को शिक्षा के प्रकाश से उज्ज्वल बनाना चाहिए। ऐसा करना केवल सरकार की जिम्मेदारी है, यह मान लेना उचित नहीं होगा। सभी स्वयंसेवी-सामाजिक संगठनों, अभिभावकों और समाज के हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि जब बच्चों को कहीं मजदूरी करते देखें तो उन्हें वहां से मुक्त कराएं। उन्हें स्कूल जाने के लिए प्रेरित करें। वरना इस वर्ष भी बाल दिवस के नाम पर तमाम आयोजनों और उत्सवों में बातें बड़ी-बड़ी होंगी और अंत में किसी ‘छोटू’ की लाई चाय पीकर इतिश्री हो जाएगी।