सत्येंद्र श्रीवास्तव
हम अपनी सफलता को लेकर इतने आत्ममुग्ध और स्व-केंद्रित हो जाते हैं कि सामाजिक सरोकार ही भूल जाते हैं। धनी लोगों का अतिशय स्व-केंद्रित होते जाना, विकास का लाभ केवल कुछ लोगों को मिलना और उससे बहुत बड़ी आबादी का बाहर होना जैसी प्रवृत्तियां हमारी सामाजिकता और संवेदनशीलता पर बहुत बड़े सवाल खड़ा करती हैं।
बच्चों के मन को ‘इग्नाइट’ करने वाली अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘इग्नाइटेड माइंड्स’ को भूतपूर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम ने बारहवीं कक्षा की एक छात्रा को समर्पित किया था। 11 अप्रैल 2002 को गुजरात के एक स्कूल में कलाम मुख्य अतिथि थे। उसमें एक कार्यक्रम के दौरान प्रश्न पूछा गया- ‘हमारा दुश्मन कौन है?’ जिस उत्तर पर लगभग सभी लोगों ने सहमति जताई, वह स्नेहल ने दिया था कि ‘गरीबी हमारी सबसे बड़ी दुश्मन है।’ कोरोना काल के दौरान पूर्णबंदी और उसके बाद बदलते आर्थिक-सामाजिक परिवेश के परिप्रेक्ष्य में इस उत्तर का मर्म आसानी से समझा जा सकता है।
पूर्णबंदी का सबसे बुरा असर गरीब दिहाड़ी मजदूरों पर पड़ा। विडंबना देखिए कि ये मजदूर लोग कोविड-19 महामारी के बजाय गरीबी, अव्यवस्था, सरकार और अतिशय अमीर लोगों की अतिशय संवेदनशून्यता से मर रहे हैं। हमें फणीश्वर रेणु के ‘मैला आंचल’ की वह बात याद आती हैं, जिसमें लोग मलेरिया के बजाय गरीबी और पिछड़ेपन से मरते हैं। रेणु डाक्टर प्रशांत के बारे में लिखते हैं- ‘डाक्टर ने रोग की जड़ पकड़ ली है, गरीबी और जहालत इस रोग के दो सबसे बड़े कीटाणु हैं।’
यह अपने आप में कितना विरोधाभासी है कि अपने श्रम से इस देश के निर्माण में सर्वाधिक योगदान करने वाला गरीब-मजदूर वर्ग आज के समय में सर्वाधिक पीड़ित और उपेक्षित है। हमने देखा कि पूर्णबंदी के दौरान अपना काम-धंधा बंद होने की वजह से ये लोग असहाय हो गए और न्यूनतम जरूरतें भी पूरी न हो पाने के कारण अपने गृह राज्य पैदल या अन्य असुरक्षित वाहनों से जाने को मजबूर हो गए। इस दौरान कभी रेल-दुर्घटना, कभी सड़क दुर्घटना, तो कभी पैदल चलते-चलते थक कर बेसुध होकर उन्हें जान गंवानी पड़ी। इनके नियोक्ता और हमारी राज्य सरकारें इन्हें यह भरोसा नहीं दिला पार्इं कि उन्हें जरूरत के आवश्यक सामान उपलब्ध कराए जाएंगे। इन मजदूरों की त्रासद स्थिति केवल राजनीतिक असफलता ही नहीं, बल्कि हमारी नैतिक विफलता भी है।
प्रेमचंद का ‘गोदान’ (1936) अगर किसान के मजदूर में परिवर्तित होने की त्रासद गाथा है तो आज के उत्तर-भूमंडलीकरण की अर्थव्यवस्था इन मजदूरों के अतिशय शोषण की गाथा भी है, जहां हर चीज का मूल्यांकन केवल आर्थिक लाभ के मापदंड पर किया जाता है। अपने श्रम से आलीशान भवन, अस्पताल, होटल, सड़क, पुल आदि बनाने वाले मजदूर, उद्योगपतियों की धन-लिप्सा और असंवेदनशील रवैये के कारण अमानवीय स्थिति में जीवन व्यतीत करने को अभिशप्त होते हैं। हम अक्सर महात्मा गांधी को उद्धृत करते हैं कि ‘उद्योगपति स्वयं को ट्रस्टी और गरीबों का सेवक समझें’, लेकिन व्यवहार में उद्योगपति और श्रमिक का संबंध मालिक और नौकर का दिखता है।
हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि भारत की 58 फीसद संपदा इस देश के सर्वाधिक अमीर एक फीसद लोगों के पास है तो दूसरी ओर 21.9 फीसद लोग गरीबी रेखा के नीचे का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ये आंकड़े अमीरी और गरीबी की तीव्र विषमता को दर्शाने के लिए पर्याप्त हैं। इस देश का सामान्य-जन केवल कल्पना ही कर सकता है कि इन एक फीसद लोगों का अति-वैभवशाली जीवन-स्तर कैसा होगा! अफसोस कि यह विषमता हर वर्ष और गहरी होती चली जा रही है।
विकास के इसी विरोधाभासी चरित्र को उजागर करते हुए अदम गोंडवी ने लिखा था- ‘झील पर बादल बरसता है हमारे देश में, खेत पानी को तरसता है हमारे देश में।’ हमारे देश के नीति-निर्माता क्यों समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को केंद्र में रख कर अपनी नीतियां नहीं बनाते, जिसे स्वामी विवेकानंद और गांधी जैसे लोगों ने भारत की ‘रीढ़’ कहा था। जनवरी 1902 में एक विचार-विमर्श के दौरान विवेकानंद ने कहा था- ‘कोई भी इस धरती के गरीब लोगों के बारे में नहीं सोचता। वे इस देश का मेरुदंड हैं, जो अपनी मेहनत से खाद्यान्न का उत्पादन और अन्य शारीरिक श्रम वाले काम करते हैं। अगर वे एक दिन के लिए भी काम करना बंद कर दें तो बहुत बड़ी अव्यवस्था उत्पन्न हो जाएगी।’
सही है कि सरकार के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है, लेकिन सरकार इस तीव्रतम विषमता को कम करने के लिए ठोस और गंभीर कदम उठा कर एक रास्ता दिखा सकती है। इस देश के सभी धनाढ्य वर्ग को सरकार के इस महान मिशन में स्वेच्छा से सहयोग करना चाहिए, अन्यथा हमारे सभी विकास एकांगी और हत-भाग्य वाले होंगे। इसका वीभत्स रूप कोरोना के दूसरे लहर में दिखा, जिसमें केवल इंसान ही नहीं मरे, बल्कि इंसानियत भी मरी। यह अपने आप में आडंबर और अनैतिकता की पराकाष्ठा है कि फिल्मों में गरीबी का अभिनय करने वाले लोग कुछ वर्षों में अरबपति बन जाते हैं, जबकि गरीब वहीं के वहीं रह जाते हैं। यानी इस देश के गरीब अमीरों के आगे बढ़ने के लिए एक सीढ़ी मात्र हैं। सामाजिक सरोकार के अभाव में अतिशय समृद्धि और निजी सफलता व्यक्ति को बहुत ज्यादा अनैतिक बना देती है।
अकालग्रस्त सूडान के 1993 की ‘द वल्चर एंड द लिटिल गर्ल’ में गिद्ध के सामने भूख से मरती एक छोटी लड़की की तस्वीर (बाद में जिसकी पहचान कोंग न्योंग नामक लड़के के रूप में हुई) लेकर फोटोग्राफर केविन कार्टर रातों-रात एक बड़ी हस्ती बन गए और इसके लिए उन्हें पुलित्जर पुरस्कार भी मिला। लेकिन इसके कुछ महीने बाद ही केविन कार्टर ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि वे इस अपराध-बोध को बर्दाश्त नहीं कर पाए कि उन्होंने लड़की की जान बचाने के बजाय फोटो लेना क्यों जरूरी समझा।
हम अपनी सफलता को लेकर इतने आत्ममुग्ध और स्व-केंद्रित हो जाते हैं कि सामाजिक सरोकार ही भूल जाते हैं। धनी लोगों का अतिशय स्व-केंद्रित होते जाना, विकास का लाभ केवल कुछ लोगों को मिलना और उससे बहुत बड़ी आबादी का बाहर होना जैसी प्रवृत्तियां हमारी सामाजिकता और संवेदनशीलता पर बहुत बड़ा सवाल खड़ा करती हैं। भीम राव आंबेडकर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि न्यायपूर्ण समाज वह है, जिसमें परस्पर सम्मान की बढ़ती हुए भावना और अपमान की घटती हुई भावना एक साथ मिल कर एक करुणा भरे समाज का निर्माण करें।
कुछ दार्शनिक और धार्मिक प्रवृति के लोग गरीबों की पीड़ा और संघर्ष की व्याख्या पूर्व-जन्म के कर्म-सिद्धांत के आधार पर करते हैं। कर्म-सिद्धांत एक ऐसी अबूझ पहेली है, जिसकी तार्किक व्याख्या शायद ही किसी के पास हो। फिर भी ऐसे लोग गरीबी को ‘दैवीय अभिशाप’ और अतिशय अमीरी को ‘प्रतिभा का सम्मान’ मानते हैं। उनके लिए लाल बहादुर शास्त्री, एपीजे कलाम, राम मनोहर लोहिया, नानाजी देशमुख जैसे लोग महज एक नाम हैं। जबकि सच्चे अर्थ में इन लोगों ने अपने कार्य की सार्थकता बेहद गरीब लोगों की सेवा में पाई, न कि निजी संपत्ति-अर्जन में। गरीबी और भुखमरी इस दुनिया की एक आनुभविक समस्या है, जिसका समाधान भी हमें इसी दुनिया में निकालना होगा। कर्म-सिद्धांत के आधार पर इसकी व्याख्या कर हम अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते।
अगर हम वैश्विक महामारी और प्राकृतिक आपदा के इतिहास का अध्ययन करें तो पाएंगे कि इनसे होने वाली ज्यादातर मौतें संसाधनों के अभाव के कारण नहीं, बल्कि सत्ता की लापरवाही और अतिशय समृद्ध-वर्ग की संवेदनशून्यता के कारण हुई हैं। किसी भी सभ्य समाज के लिए इस तरह की त्रासद स्थापनाएं अच्छा संकेत नहीं हैं। प्रख्यात नीतिशास्त्री पीटर सिंगर अपने लेख ‘फैमिन, अफ्लुएंस एंड मारल्टी’ में लिखते हैं कि एक समृद्ध राष्ट्र या व्यक्ति का यह दायित्व है कि वह निर्धन व्यक्ति या राष्ट्र की मदद करे, क्योंकि ऐसा न करना केवल अनैतिक ही नहीं है, बल्कि मानवता के विरुद्ध एक अपराध भी है। संदेश साफ है कि अगर इस वैश्विक महामारी से उत्पन्न अतिशय गरीबी से मानवता को बचाना है तो हम सभी को अपनी जिम्मेदारी बहुत संजीदगी से निभानी होगी।