नवनीत शर्मा
ऐसी कौन-सी शिक्षा हो, जो अपने धर्म के प्रति आस्था के साथ-साथ दूसरे के धर्म के प्रति सम्मान भी सिखाए। ऐसा कौन-सा पाठ्यक्रम हो, जो जातीय गौरव बनाम जातीय अभिशाप के बीच मानवता को तिरोहित न करता हो।
भारत के पहले शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम गुलाम मुहियुद्दीन, जो मौलाना अबुल कलाम आजाद के नाम से ख्यात हैं, की स्मृति में तत्कालीन ‘मानव संसाधन विकास’ मंत्रालय ने 2008 से प्रत्येक वर्ष इनके जन्म दिवस को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी। शिक्षा के संस्थानीकरण के प्रयासों में तमाम विश्वविद्यालयों, तकनीकी संस्थानों और स्कूलों की स्थापना में उनके योगदान और समर्थन को रेखांकित करने के साथ ही उनके धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी चिंतन से प्रभावित शिक्षा दर्शन और शिक्षा समाजशास्त्र को भी नए सिरे से पढ़े जाने की आवश्यकता है।
भारत के पहले शिक्षा मंत्री होने के नाते आजाद से अपेक्षित था कि वे इस बात की विवेचना और नेतृत्व करते कि एक शिक्षित भारतीय नागरिक कैसा होगा और उसकी क्या चारित्रिक संकल्पनाएं होंगी? औपनिवेशिक शिक्षा के माडल से लदी भारतीय शिक्षा-व्यवस्था का भारतीयकरण कैसा होगा और दुनियावी दौड़ में बने रहने के लिए कितना भारतीय और कितना आधुनिक बने रहने की संभावना है।
नए-नए आजाद हुए भारत की संकल्पना में उस राष्ट्रवादी भारतीय को गढ़े जाने की जटिलता भी थी, जो बतौर नागरिक माटी और मनुजता से जुड़ा हो। नए भारत को दुनिया के शीर्ष पर लाने की कवायद में विज्ञान और विज्ञानजनित पद्धति के सहारे ही तमाम रोगों का रामबाण या नमक सुलेमानी बनाना भी मौलाना आजाद की ही जिम्मेदारी थी।
यह सवाल हर समय में बना रहता है कि कालजयी और पारंपरिक ज्ञान या आधुनिक ज्ञान के बीच क्या पढ़ाया जाए, जो मनुष्य को मनुज होने का भाव दे। ऐसी कौन-सी शिक्षा हो, जो अपने धर्म के प्रति आस्था के साथ-साथ दूसरे के धर्म के प्रति सम्मान भी सिखाए। ऐसा कौन-सा पाठ्यक्रम हो, जो जातीय गौरव बनाम जातीय अभिशाप के बीच मानवता को तिरोहित न करता हो। ऐसी कौन-सी शिक्षा-व्यवस्था हो, जो वर्गीय, वर्णीय, लैंगिक, भाषाई, प्रांतीय, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय विभेदों को चिह्नित करने का दृष्टिकोण देते हुए उन्हें मिटा न पाने की अवस्था में कम से कम उन्हें भोथरा करने का सजग प्रयास तो करे।
भारतीय समाज के नए राष्ट्रीय स्वरूप में किस तरह के स्कूल, कालेज या विश्वविद्यालय खोले जाएं, जो उत्कृष्ट ज्ञान को सर्वसुलभ बनाएं। सौ फीसद नामांकन हासिल करने और शिक्षा गुणवत्ता की चुनौती आजाद के लिए भी उतनी ही विकट थी, जितनी आज आजादी का अमृत महोत्सव मनाने के क्रम में वर्तमान शिक्षा मंत्री के समक्ष है। अल्पसंख्यकों, दलितों और लड़कियों की शिक्षा के लिए आवश्यक प्रयासों के प्रभावकारी सुझावों की लंबी सूची तमाम शिक्षा आयोगों द्वारा दिए जाने और उन पर आधे-अधूरे अमल किए जाने से इसकी दशा और दिशा बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं है। नए आर्थिक उदारवाद के सघन संक्रमण और राजनीतिक अर्थशास्त्र की इच्छाशक्ति की कमी के बाद सबसे ज्यादा संकट हाशिये के लोगों की शिक्षा पर ही आ रहा है।
इसी तरह स्कूली अध्यापकों से लेकर विश्वविद्यालय स्तर के अध्यापकों तक को ‘सरकारी कर्मचारी’ मानने, उनके वेतनमान और तमाम अन्य सुविधाओं को लेकर जद्दोजहद औपनिवेशिक शिक्षा के युग में ही शुरू हो गई थी। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ही लगभग अठारह हजार पदों में से छह हजार पद रिक्त हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे शीर्ष विश्वविद्यालय में कुल अध्यापकों में साठ फीसद तदर्थ अध्यापक हैं।
यह स्थिति देश के शीर्ष विश्वविद्यालयों की है। स्कूली स्तर पर यह और भी भयावह है, जहां सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश की राजधानी में चौंसठ हजार पदों में से पैंतीस हजार ही नियमित रूप से नियुक्त अध्यापक हैं। बाईस हजार अतिथि अध्यापकों के साथ भी आवश्यक कुल संख्या के दस फीसद अध्यापक कम ही रह जाते हैं। अतिथि और तदर्थ अध्यापक, पैरा टीचर और शिक्षा मित्र, जैसे शब्द अपने आप में अध्यापक, अध्यापन, ज्ञान निर्मिति और हमारे विश्व गुरु बनने की संकल्पना और ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था बनने की चेष्टा पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं।
इस प्रकार बिना ‘सरकारी कर्मचारी’ माने अध्यापकों को राजकीय वेतन और प्रोत्साहन दिया जाना असंभव-सा प्रतीत होता है। इसी विमर्श की चिंता में अध्यापक के मूक तानाशाह बन जाने को कृष्ण कुमार शिक्षा में औपनिवेशिक देन कहते हैं। शिक्षा विमर्श में आज के दिन हमें इस सबसे प्रमुख कड़ी के बारे में सोचने की आवश्यकता है। प्रत्येक शिक्षा-व्यवस्था अपनी वैधता, मूल्यांकन करने की क्षमता और योग्यता को चिह्नित करने की क्षमता से प्राप्त करती है। इस व्यवस्था में जांचने से अधिक छांटने पर अधिक बल दिया जाना सहज है। नई राष्ट्रीय परीक्षा एजंसियों की स्थापना और तीसरी कक्षा में ही बोर्ड की परीक्षा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का सुझाव इंगित करती है।
शिक्षा संबंधी तमाम चिंताओं में सबसे महत्त्वपूर्ण चिंता है राज्य द्वारा शिक्षा के लिए वित्तीय आबंटन और शिक्षा के मद में ‘खर्च’ की। शिक्षा के समवर्ती सूची में होने की अवस्था में शिक्षा पर खर्च का फुटबाल मैच केंद्र और राज्यों के बीच निरंतर एक नया प्रहसन उत्पन्न करता है। राष्ट्रीय बजट में लगातार शिक्षा के प्रति वित्तीय आबंटन में आ रही गिरावट शिक्षा के प्रति राज्य के सरोकार को रंखांकित करती है।
वर्ष 2021-22 का बजटीय प्रावधान पिछले वर्ष के मुकाबले छह फीसद की कटौती करता है और इस साल के जीडीपी का पौने तीन फीसद शिक्षा पर खर्च करने की योजना प्रस्तुत करता है। वित्तवर्ष 2021-22 में शिक्षा का कुल बजट लगभग 93,224 करोड़ है, जो कुल बजट का लगभग पौने तीन फीसद है। इस बजट में उच्चतर शिक्षा विभाग को 38350 करोड़ रुपए का आबंटन किया गया है, जो कुल शिक्षा बजट का लगभग इकतालीस फीसद है। हालांकि वित्तवर्ष 2020-21 में शिक्षा का कुल बजट 99311 करोड़ रुपए था, जिसमें उच्चतर शिक्षा विभाग का बजट 39466 करोड़ रुपए था।
इस प्रकार तुलनात्मक रूप से देखें तो शिक्षा बजट में लगभग साढ़े छह फीसद (6,087 करोड़ रुपए) और उच्चतर शिक्षा में लगभग पौने तीन फीसद (1115 करोड़ रुपए) की कमी की गई है। इसलिए मानव को संसाधन मान कर उसके विकास में होने वाले खर्च को ‘निवेश’ मानने वाला मानव संसाधन विकास मंत्रालय और शिक्षा को संसाधन से अधिक मान मानवीय गुणों को परिष्कृत मानने वाला शिक्षा मंत्रालय दोनों ही शिक्षा के प्रति वित्तीय आबंटन को लेकर वित्त मंत्रालय की कृपा दृष्टि नहीं ले पा रहे हैं।
शिक्षा के प्रति कृपा कहां अटकी हुई है, इसकी पड़ताल में रोजाना एक नया दस्तावेज जारी हो रहा है, पर शोध और शिक्षा पर वित्तीय कृपा न मौलाना आजाद के समय में हुई और न आज हो पा रही है। सकल घरेलू उत्पाद का छह फीसद शिक्षा पर खर्च हो, ऐसा सुझाव कोठारी आयोग ने सन 1966 में दिया था। 2011-12 के वित्तीय बजट में सर्वाधिक ऊंचाई चार फीसद हासिल करने के बाद इसमें लगातार हुई गिरावट इसे पौने तीन फीसद के आसपास ले आई है।
राष्ट्रीय शिक्षा दिवस मनाने के क्रम में मौलाना आजाद के चित्र के सामने द्वीप प्रज्वलन और रस्मी जलपान के बाद नामांकन, पाठ्यक्रम, मूल्यांकन, अध्यापक प्रशिक्षण और शिक्षा को वित्तीय आबंटन की चिंता का राष्ट्रीय विमर्श जनित हो, ऐसा प्रयास तमाम शिक्षा संस्थानों और शिक्षाविदों से आपेक्षित है, अन्यथा मौलाना अबुल कलाम आजाद की मृत्यु की खबर के साथ ही यह छपना कि इससे कैबिनेट में एक जगह खाली हो गई और जिसके लिए तमाम नेताओं ने आपसी होड़ शुरू कर दी है, मौलाना आजाद के अवदान के साथ-साथ शिक्षा और शिक्षा-व्यवस्था के प्रति हमारी तात्कालिक और समकालिक चिंता को रेखांकित करता है।