प्रभात झा
जीवन हो, समाज हो, संस्था हो या राष्ट्र हो, इन सभी में प्रारंभ से ही उतार-चढ़ाव आते रहे हैं। कोरोना वैश्विक महामारी भी इसी तरह की एक घटना है। सुघटना हो या दुर्घटना, दोनों के ही दो पहलू देखे जा सकते हैं। एक सकारात्मक, एक नकारात्मक। कोरोना का नकारात्मक पक्ष यह है कि वह मानव का जीवन समाप्त कर रहा है। वहीं, उसका दूसरा पक्ष है कि कोरोना के कारण शहरों में रहने वाले परदेसी लोगों को गांव की बहुत याद आ रही है। ग्रामीण परिवेश से निकल कर भारत के भिन्न-भिन्न शहरों और बड़े-बड़े महानगरों में जीविकोपार्जन के लिए जाने वाले गांव भूल गए और आज उन्हें सबसे ज्यादा गांव की याद आ रही है।
वैश्विक महामारी कोरोना का संदेश है कि गांव और शहर के बीच में सदैव संतुलन रहना चाहिए। जैसे संतुलित आहार शरीर को स्वस्थ रखता है, वैसे ही गांव और शहर का संतुलन रहने से ही भारत की संस्कृति भी बचेगी और प्रगति भी होगी। भारत के गांव वैदिककाल से ही प्रतिभा संपन्न थे। गांव में ज्ञान था, विज्ञान था, वेद थे, उपनिषद थे, पुराण थे, महाभारत था और रामचरितमानस भी। भारत की ग्राम्य सभ्यता और संस्कृति की विश्व में धाक थी। महात्मा गांधी ने 1909 में ‘हिंद स्वराज’ में भारतीय गांवों का चित्र खींचते हुए भारतीय ग्राम संस्कृति को विश्व संस्कृति बताया था।
उन्होंने जोर देकर कहा था, ‘अगर गांव नष्ट होता है तो भारत भी नष्ट हो जाएगा, भारत किसी मायने में भारत नहीं रहेगा।’ उन्होंने ‘गांव को भारत की आत्मा’ कहा था। उनका मानना था कि न केवल भारत, बल्कि विश्व व्यवस्था का उज्ज्वजल भविष्य भी गांवों पर निर्भर करता है।
लेकिन आजादी के बाद दशकों तक सरकारी नीतियां ऐसी रहीं कि शहर फैलता गया और गांव को निगलता गया। महानगरों के आसपास के गांव दुबकते गए, वहीं गांव में शहर घुस आया। शहर अमीर होते चले गए और गांव गरीब। शहर खाने वाला, जबकि गांव उगाने वाला बन कर रह गया। शहर की स्वार्थी सभ्यता ने गांव को गुलाम बना दिया।
शहरी लालच में गांव वीरान होने लगा। किसी ने सुध नहीं ली, न सरकारों ने, न व्यक्ति ने और न ही समाज ने। इन सबका दुष्परिणाम आज सामने है। 1951 में भारत की तिरासी फीसद आबादी गांवों में रहती थी, जो आज घट कर उनहत्तर फीसद रह गई है। गांव समृद्ध हो, इसकी न नीयत रही है और न नीति।
1951 में गांव का बजट का कुल बजट का 11. 4 फीसद था, 1960-61 में यह बारह फीसद, 1970-71 में साढ़े नौ फीसद, 1980-81 में 10.9 फीसद, 1990-91 में 10.8 फीसद, 2000-01 में 9.7 फीसद और 2019-20 में 9.83 फीसद रहा। वहीं 1970-71 में देश के कुल कार्यबल का चौरासी फीसद गांवों में था, जो 1980-81 में घट कर 80.8 फीसद, 1990-91 में 77. 8 फीसद, 2010-11 में 70.9 फीसद और वर्तमान में घट कर लगभग
सत्तर फीसद रह गया है। देश के सत्तर फीसद कार्यबल के लिए दस फीसद से भी कम बजट। ऐसे में गांव की समृद्धि में अभिवृद्धि कैसे हो सकती है? ग्राम स्वराज्य का सपना कैसे पूरा हो सकता है?
आजादी के बाद देश की बागडोर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के हाथ में आई थी। पर आजादी के बाद महात्मा गांधी के विचारों, खासकर उनके ग्राम स्वराज के विचारों की सबसे अधिक अनदेखी अगर किसी ने की तो वे जवाहरलाल नेहरू ही थे। हालांकि वे अपने भाषणों में कहा करते थे, ‘सब कुछ इंतजार कर सकता है, पर कृषि नहीं’। पर उनकी करनी में कहीं पर भी कृषि को महत्त्व नहीं दिया गया। भारत गांवों का देश है, अब तक के सभी प्रधानमंत्रियों ने यही बात कही है।
कौन नहीं जानता भारत गांवों में बसता है! लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि गांव की कितनी चिंता की गई? डेढ़ वर्षों के अपने अल्प कार्यकाल में भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने गांव और किसान की चिंता करते हुए ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया था। गांव और किसान के जीवन में आशा की नई किरण का संचार हुआ, लेकिन उनकी आकस्मिक मृत्यु ने आशा की उस किरण को भी मृत कर दिया। नतीजा यह हुआ कि गांव और शहर का संतुलन बिगड़ता गया, भ्रष्टाचार और लालच गांव की संस्कृति और संवृद्धि को निगलता गया।
गांव की समृद्धि ही भारत की समृद्धि है। भारत एक वेद है। हजारों गांव इस वेद की ऋचाएं हैं। वेद में प्रत्येक ऋचा का अलग भाव और व्यक्तित्व है। भारत के प्रत्येक गांव का भी अलग भाव और व्यक्तित्व है। लेकिन आज का सच क्या है? गांव शहर का उपनिवेश बनता जा रहा। शहर अमीर है, गांव गरीब है। गांवों में अस्पताल नहीं हैं। अगर हैं तो स्वास्थ्य सेवाएं पूरी नहीं हैं। स्कूलों की भी हालत अच्छी नहीं है। आज चूल्हे से मुक्ति जरूरी है, वन की रक्षा हुई है।
स्किल इंडिया जरूरी है, लेकिन इसकी सफलता गांव में लघु-कुटीर उद्योग के रूप में है। प्रकृति और संस्कृति के सौंदर्य की रक्षा करते हुए गांव की रक्षा होनी चाहिए। गांव में संवृद्धि आए, लेकिन बिना किसी विकृति के। विकास की नीतियां ऐसी हों, जिसमें गांव-शहर का संतुलित विकास हो। शहर बाजार है, तो गांव संस्कृति और विचार। संवृद्धि का आधार सांस्कृतिक हो, प्राकृतिक हो, संस्कृतिविहीन और प्रलयकारी नहीं।
वैश्विक महामारी कोरोना से आज विश्व का हर राष्ट्र हिल गया है। उसके इलाज के लिए टीके या दवा की खोज में पूरी दुनिया लगी है। अनेक संस्थाएं, जो गांव आधारित सर्वे और विश्लेषण करती हैं, उनका मानना है कि कोरोना से भारत अब भी इसलिए बचा है क्योंकि अधिकांश आबादी गांवों में बसती है। वैज्ञानिकों और स्वास्थ्य विशेषज्ञों का भी यही कहना है। गांवों में शुद्ध जल है, शुद्ध हवा है, पेड़-पौधे हैं, नदी है, सरोवर हैं, पर्वत हैं, खेत हैं, खलिहान हैं। लेकिन शहरों-महानगरों ने प्रकृति के पंच महाभूतों- क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर पर धावा बोल कर उन्हें क्षतिग्रस्त कर दिया है। गांव, खेत-खलिहान, वन-उपवन की छाती चीरते शहर सीमेंट कंक्रीट की बेतरतीब इमारतें लेकर फैलते जा रहे हैं।
गंदे नाले, खराब जल, प्रदूषित हवा के कारण शहर-महानगर महामारी के शिकार हो रहे हैं। कारण है, गांवों से शहरों में अनियोजित पलायन। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 45.36 करोड़ अंतरराज्यीय प्रवासी हैं, जो देश की कुल जनसंख्या का सैंतीस फीसद है। वहीं हाल के आर्थिक सर्वेक्षण में यह बताया गया है कि शहरों में प्रवासी कार्यबल की आबादी दस करोड़ (बीस फीसद) से अधिक है। केवल दिल्ली और मुंबई में यह आबादी लगभग तीन करोड़ है। 2019 में किए गए एक अध्ययन की मानें तो दिल्ली, मुंबई, कोलकत्ता महानगर और हैदराबाद, बंगलुरु जैसे देश के बड़े शहरों की उनतीस फीसद आबादी दैनिक मजदूरों की है।
आज कोरोना महामारी से शहरों-महानगरों में उत्पन्न कंपन और डर ने रेलवे की पटरियों पर झुग्गी बस्तियों, रेलवे पुलों के नीचे, सड़कों के किनारे बने अस्थायी बस्तियों में रहने वाले, मुंबई की धारावी जैसी झुग्गी बस्ती में रहने वाले लोगों के मन में अब आने लगा है कि गांव का फूस और खपरैल का घर इन नारकीय बस्तियों से बेहतर है। कोरोना माहामारी के इस काल में लोगों में आतुरता बढ़ी है और सहज कहने लगे हैं -‘चलो गांव की ओर’। पूरे देश को खिलाने की ताकत गांवों में है। इसी ताकत के कारण कोरोना महामारी में भारत आज बचा है। इसी ताकत के कारण भारत आज बचा है।
(लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद एवं भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं)