शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद ने शनि शिंगणापुर मंदिर के गर्भगृह में महिलाओं के प्रवेश पर उस क्षेत्र में बलात्कारों में बढ़ोतरी का जो बयान दिया, अगर 1980-90 के दशक में यही कहा होता तो देश भर में महिला संगठन व जनसंगठन सड़कों पर उतर गए होते और बयान वापस लिये जाने तक आंदोलन समाप्त न होता। यही नहीं, मंदिरों में प्रवेश की इजाजत भी महिलाएं लेकर ही मानतीं। महाराष्ट्र या केरल ही नहीं, अन्य राज्यों में भी जिन मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश की इजाजत नहीं है उन सभी के बाहर महिला संगठनों के विरोध-प्रदर्शन देखने को मिलते। यह महिला आंदोलन का वह दौर था जब देश के किसी एक हिस्से से आवाज उठती थी और सारे देश में स्वत: ही महिला संगठन सड़कों पर उतर आते थे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नाम पर दूरदर्शन ही था। प्रिंट मीडिया में काफी बड़ा हिस्सा उनका साथ देता था।

मगर आज के आईटी, कॉरपोरेट व सीएसआर के दौर में महिला हितों को लेकर काम कर रहे संगठन भी कॉरपोरेटी हो गए हैं और इसलिए सड़क पर उतर कर संघर्ष करने की उनकी क्षमता का भी ह्रास हो चुका है। लड़ाई का मैदान सोशल मीडिया हो गया है। टीवी चैनलों पर एक-दो दिन बहस होती है और बात खत्म। प्रिंट मीडिया में यह मुद्दा प्रमुखता से आ रहा है तो इसलिए कि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का इसमें आदेश है। अन्यथा केवल भूमाता ब्रिगेड का मुद््दा होता तो अंदर के पृष्ठों में कहीं छोटी-सी खबर ही देखने को मिलती।

तो सड़क पर संघर्ष के इस कमजोर दौर में हो सकता है महिलाओं के प्रति स्वामी स्वरूपानंद के आपत्तिजनक बयान पर सोशल मीडिया में कहीं कोई बहस अब भी चल रही हो, मगर मोटे तौर पर इसे लेकर अब कहीं कोई रोष नहीं है। ऐसा मान भी लिया जाए तो भी यह सवाल उठता ही है कि धर्मसत्ता के सर्वोच्च पद पर बैठे इस धर्मगुरु ने महिलाओं को परंपरा के नाम पर सदियों से चले आ रहे अन्याय से मुक्त कराने के बजाय लोगों को भय दिखाया कि अगर वे शनि शिंगणापुर मंदिर में पूजा करेंगी तो इलाके में बलात्कार बढ़ेंगे। यह एक तरह से मंदिर गर्भगृह में प्रवेश की मांग कर रही महिलाओं और उनके परिवारों को संकेत था कि वे अपना आंदोलन खत्म करें और घर बैठ जाएं। अन्यथा उनके साथ कुछ भी अनिष्ट हो सकता है।

पर सवाल है कि एक धर्मगुरु जिसका तन-मन सदैव जन-कल्याण में ही विचरण करता है उसके दिमाग में भयभीत करने के लिए स्त्री के प्रति सर्वाधिक निकृष्ट अपराध का ही खयाल क्यों आया। वे स्त्रियों के पुत्र-विहीन हो जाने जैसा भय भी दिखा सकते थे। शायद वह ज्यादा कारगर भी होता। पर नहीं। उन्होंने स्त्री की इज्जत पर सीधे चोट करने वाले अपराध का भय दिखाया। कारण? इसलिए कि हिंदू धर्म में स्त्री के प्रति इस अपराध को बतौर एक हथियार खुद देवताओं ने भी इस्तेमाल किया है।

पौराणिक कथा के अनुसार शिव भी जब जलंधर राक्षस का वध नही कर पाए तो विष्णु ने उसकी पत्नी वृंदा से छल किया। वृंदा विष्णु की भक्त थी। उसके तप से उसका तेज भी बहुत बढ़ गया था और वही जलंधर की ताकत भी था। देवताओं ने जब देखा कि वृंदा के इस तेज के रहते जलंधर को नहीं मारा जा सकता तो कोई और नहीं खुद विष्णु ही जलंधर का रूप धर उसके सामने आए। स्वाभाविक था कि वृंदा ने उनका उसी तरह स्वागत किया जिस तरह वह अपने पति का करती थी। बस देवताओं का काम सिद्ध हो गया। दूसरे पुरुष को छूते ही उसके तप की ताकत चली गई और जलंधर का नाश हो गया।

सच्चाई का पता लगने पर वृंदा सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाई और अपनी देहलीला समाप्त कर ली। आज के कानून की भाषा में कहें तो उसने आत्महत्या कर ली। पर क्योंकि वह एक तेजस्वी महिला थी इसलिए समुद्र में लीन होने से पहले उसने विष्णु को श्राप दिया कि जिस तरह आज वह अपने पति के वियोग में तड़प रही है उसी तरह उन्हें भी पत्नी के वियोग में तड़पना पड़ेगा। शंकराचार्य तो पुरानी परंपराओं का ही निर्वाह कर रहे हैं और ये परंपराएं ऐसी किसी भी सत्ता या ताकत को स्वीकार नहीं करतीं जो उन्हें चुनौती देती हैं। स्त्री की चुनौती को तो और भी नहीं, क्योंकि उसे वे धर्म के साथ-साथ अपनी पुरुष-सत्ता को चुनौती के रूप में भी देखते हैं। फिर भी आज जब तमाम कोशिशों के बावजूद यौनहिंसा संबंधी वारदातों की संख्या बढ़ती ही जा रही है, एक धर्मगुरु का इस तरह का बयान क्या क्षम्य है?

जहां तक चुनौती का सवाल है तो मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश का मामला धर्मगुरुओं या पंडे-पुजारियों की सत्ता को चुनौती नहीं है। चुनौती होती अगर महिलाएं मंदिरों के प्रबंधन में कोई हिस्सा मांगतीं। ऐसी उनकी अभी तक कोई मांग नहीं है। वे केवल गर्भगृह में पूजा का अधिकार चाहती हैं। जो सिर्फ इसलिए छीन लिया गया कि महिलाएं मासिक धर्म के प्राकृतिक चक्र की धनी हैं। हिंदुओं में रजस्वला स्त्री अस्पृश्य है। इस काल में उसे अपवित्र माना जाता है। पूजा के संदर्भ में अपवित्रता का यह भाव स्वयं हिदू महिलाओं में इतना अधिक है कि वे खुद अपने को मंदिर से दूर रखती हैं। नियमित व्रत तक को इस अवस्था में वे तिलांजलि दे देती हैं। गर्भगृह में जाने की तो वे कल्पना भी नहीं करतीं। यह सब भी सदियों पुरानी परंपराओं से ही बना मानस है।

तो जब स्त्री स्थिति-विशेष के प्रति खुद सावधान है तो उस पर भरोसा क्यों नहीं! और फिर प्रवेश पर पाबंदी कुछ ही मंदिरों में क्यों? अमरनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, महाकाल सभी हिंदुओं के बड़े व पवित्र तीर्थ हैं। जब इन सब के गर्भगृह में स्त्रियां जा रही हैं तो फिर कुछ में ही उनकी स्थिति-विशेष को आधार बना कर उस पर रोक क्यों? इन सब से परे देवियों के मंदिर में तो गर्भगृह में स्त्री ही बैठी है, फिर उसका नाम चाहे लक्ष्मी हो, पार्वती या सरस्वती। स्त्री देह में ये भी तो हर माह रजस्वला होती होंगी। तब पुजारी, जो कि पुरुष हैं, इन्हें कैसे छूते हैं। उनका तो स्नान, श्रृंगार सब वही करते हैं।

क्या देवियों के मंदिरों में यह व्यवस्था महिलाओं के हाथ में नहीं होनी चाहिए?
बात अगर तर्क की है तो मूर्तियों के मानवीयकरण के संदर्भ में तर्क यहां तक जाता ही है। अन्यथा निराकार स्वरूप में तो परमात्मा का न कोई रंग है न रूप। उसी तरह जीव-आत्मा भी रंग, रूप व आकार से परे है। स्त्री न पुरुष। तो ऐसा नहीं हो सकता कि पंडे-पुजारी देवियों को स्नान कराते रहें और मानव देह में स्त्री को उनके स्पर्श से भी महरूम रखा जाए। फिर भी भूमाता ब्रिगेड की महिलाएं मंदिर की दैनिक व्यवस्था में कोई हिस्सा नहीं मांग रही थींं। वे तो केवल संविधान में दिए समानता के अधिकार के तहत केवल पूजा का अधिकार मांग रही थीं। इसमें किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पर है। हिंदुओं में ही नहीं, मुसलमानों में भी। शनि शिंगणापुर में पाबंदी के पक्ष में अरसे से यह दलील दी जा रही थी कि यह आस्था का मामला है, इसलिए इसमें समानता के अधिकार, संविधान वगैरह को नहीं लाना चाहिए। पर आस्था तो महिलाओं में भी होती है। फिर प्रतिबंध क्यों चलता रहा?

सूफी संत हाजी अली की दरगाह में भीतर के हिस्से में महिलाओं के जाने पर रोक है। दरगाह के ट्रस्ट का मुंबई हाईकोर्ट को कहना था कि इस्लाम के तहत एक पुरुष संत की कब्र के पास औरतों का जाना गुनाह है। इसलिए उन्हें यह छूट नहीं दी जा सकती। संविधान के अनुच्छेद 26 के तहत ट्रस्ट को अपने धर्म के मुताबिक दरगाह का प्रबंधन करने का अधिकार है इसलिए उसे ऐसे किसी परिवर्तन के लिए मजबूर भी नहीं किया जा सकता। कैसी विडंबना है। सभी सूफी संत परमात्मा को पुरुष व अपने को स्त्री मान कर ईश्वर या अल्लाह की आराधना करते रहे और अब उनकी कब्रों पर कब्जा कर धर्म की ठेकेदारी करने वाले कहते हैं स्त्री का उनके पास जाना पाप है!

अरे जिसने खुद को ही स्त्री मान कर अपना जीवन जिया उसे स्त्री से परहेज कैसे हो सकता है। वे प्रेमी थे। प्रेम करते थे। प्रेम देते थे और पे्रम ही फैलाते थे। उनके जीवन का मर्म जुड़ाव था, अलगाव नहीं। वे तो भेद से अभेद हो जाने के लिए ही सारा जीवन आराधना करते रहे। दो जीवों के बीच लिंग उनकी कसौटी कभी रहा ही नहीं। तो फिर इस तर्क के क्या मायने? वही पुरुष के वर्चस्व को बनाए रखना। अगर मुंबई हाईकोर्ट ने मस्जिद के संदर्भ में भी महिलाओं के पक्ष में फैसला दे दिया तो कौन जानता है कि कोई मौलवी स्वामी स्वरूपानंद जैसा अनिष्टकारी, असामाजिक व भड़काऊ बयान न देगा। फिर ऐसे ही अगर दो-चार बार किसी न किसी ने उसे दोहरा दिया तो जड़बुद्धि अनुयायियों में उसका असर क्या होगा? इस बात को समझने और समझाए जाने की जरूरत है। सरकार को अगर यह बात समझ नहीं आती तो उसे महिला सशक्तीकरण का राग अलापना बंद कर देना चाहिए।