सुशील कुमार सिंह

ग्रामीण उद्यमी जिस प्रकार डिजिटलीकरण की ओर अग्रसर हुए हैं, वे कुशलता से बाजार प्रतिस्पर्धा का मुकाबला रहे हैं। वस्तु उद्योग से लेकर कलात्मक उत्पादों तक उनकी पहुंच बाजार का डिजिटलीकरण होने से ही बनी है और जन-जन तक उनका सामान पहुंच रहा है।

भारत आज ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां से देश के एक सौ छत्तीस करोड़ नागरिकों की आकांक्षाएं पूरी करने के लिए सूचना और संचार प्रौद्योगिकी एक बड़े हथियार से कम नहीं है। भले ही यह दशकों पहले अनुभव कर लिया गया था, मगर इसका डिजिटल रूप मौजूदा समय में एक नई ताकत बन कर उभर चुका है। डिजिटल इंडिया का विस्तार केवल शहरी डिजिटलीकरण तक सीमित होने से काम नहीं चलेगा, बल्कि इसके लिए मजबूत बुनियादी ढांचे के साथ देश के हर ग्रामीण तक इसकी पहुंच बनानी होगी। गौरतलब है कि भारत में साढ़े छह लाख गांव और ढाई लाख ग्राम पंचायतें हैं। आंकड़े बताते हैं कि दो साल पहले करीब आधी ग्राम पंचायतें तेज गति नेटवर्क से जुड़ चुकी थीं।

भारत की ग्रामीण आबादी खेती से जुड़ी है। ऐसे में रोजगार और उद्यमशीलता का एक बड़ा क्षेत्र यहां समावेशी दृष्टिकोण के अंतर्गत कृषि में जांचा और परखा जा सकता है। गांवों में भी अब डिजिटल उद्यमी तैयार हो रहे हैं। आठ करोड़ से अधिक ग्रामीण महिलाएं स्वयं सहायता समूहों से जुड़ कर उत्पाद तैयार कर रही हैं। इन उत्पादों को देश-विदेश में बाजार मिले, इसके लिए सरकार ई-कारोबार बढ़ाने के तरीकों पर जोर दे रही है। गौरतलब है कि 30 जून 2021 तक दीनदयाल अंत्योदय योजना- राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (डीएवाई-एनआरएलएम) के तहत देश भर में लगभग सत्तर लाख महिला स्वयं सहायता समूह बन चुके थे, जिनसे आठ करोड़ से अधिक महिलाएं जुड़ी हैं।

इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन की सर्वे आधारित एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल यानी 2020 में ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या तीस करोड़ तक पहुंच चुकी थी। देखा जाए तो औसतन हर तीसरे ग्रामीण के पास इंटरनेट की सुविधा है। खास बात यह भी है कि इसका इस्तेमाल करने वालों में बयालीस फीसद महिलाएं हैं।

ये आंकड़े इस बात को समझने में मददगार हैं कि ग्रामीण उत्पादों को डिजिटलीकरण के माध्यम से आनलाइन बाजार के लिए मजबूत आधार देना संभव है। जाहिर है, गांवों में महिलाओं की श्रम शक्ति में हिस्सेदारी बढ़ रही है। कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अभी भी साठ फीसद के साथ बढ़त लिए हुए है। इतना ही नहीं, बचत दर सकल घरेलू उत्पाद का तैंतीस फीसद इन्हीं से संभव है। डेयरी उत्पादन में कुल रोजगार का चौरानवे फीसद महिलाएं ही हैं, जबकि लघु उद्योगों में महिलाओं की भागीदारी कुल श्रमिक संख्या का चौवन फीसद ही है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में स्वयं सहायता समूह किस पैमाने पर अपनी भूमिका निभा सकते हैं, इसे समझने के लिए ग्रामीण आर्थिकी और डिजिटलीकरण को समझना जरूरी है। दरअसल गांवों में गरीबी की एक बड़ी वजह ग्रामीण आबादी की वित्तीय संसाधनों तक पहुंच नहीं हो पाना है। मालूम हो कि साल 2008 में वित्तीय समावेशन पर रंगराजन रिपोर्ट में कहा गया था कि महिलाओं के सशक्तिकरण में स्वयं सहायता समूह न केवल कारगर सिद्ध होंगे, बल्कि सामाजिक पूंजी विकसित करने में भी मदद करेंगे।

साल 2025 तक देश में नब्बे करोड़ से अधिक लोगों की इंटरनेट तक पहुंच हो जाएगी, जो सही मायने में बाजार को बढ़ावा देने में मददगार होगी। वर्तमान में देश ‘वोकल फार लोकल’ के मंत्र पर भी आगे बढ़ रहा है जिसके लिए डिजिटल मंच होना अपरिहार्य है। डिजिटलीकरण के माध्यम से ही स्थानीय उत्पादों को दूरस्थ क्षेत्रों और विदेशों तक पहुंच बनाई जा सकती है। इससे ग्रामीण उद्यमी को नई राह मिलेगी। दरअसल डिजिटलीकरण वित्तीय स्थिति पर निर्भर है और वित्तीय स्थिति उत्पाद की बिक्री पर निर्भर करती है। ऐसे में बाजार को बड़ा रूप देने के लिए तकनीक के इस्तेमाल को व्यापक स्तर पर व्यावहारिक बनाना होगा।

गौरतलब है कि देश के दो सौ पचास पिछड़े जिलों में स्वयं सहायता समूह को अतिरिक्तसुविधा दी जा रही है। सरकार ने राज्यसभा में बताया कि स्वयं सहायता समूह द्वारा कर्ज वापसी का आंकड़ा सनतानवे फीसद से अधिक है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ता श्रम और वित्त को लेकर बढ़ते अनुशासन ग्रामीण उद्यमी को व्यापक स्वरूप लेने में मदद कर रहा है जिसका लाभ इनसे जुड़ी महिलाओं को मिल रहा है। यह बदलाव आनलाइन व्यवस्था के चलते भी संभव हुआ है।

सवाल यह भी है कि गांव में डिजिटल उद्यमी महिला भागीदारी को बड़ा स्वरूप देने के लिए जरूरी पक्ष और क्या-क्या हैं? क्या ग्रामीणों को वित्त, कौशल और बाजार मात्र मुहैया करा देना ही पर्याप्त है? आजीविका की कसौटी पर चल रही ग्रामीण व्यवस्थाएं कई गुना ताकत के साथ वक्त के तकाजे को अपनी मुट्ठी में कर रही हैं। क्या इस मामले में सरकार का प्रयास पूरी दृढ़ता और क्षमता से विकसित मान लिया जाए।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के नारे बुलंद किए जा रहे हैं, मगर स्थानीय वस्तुओं की बिकवाली के लिए जो बाजार होना चाहिए, वह पूरी तरह उपलब्ध नहीं है और यदि उपलब्ध हैं भी तो उसे बड़े पैमाने पर स्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। उत्पाद की सही कीमत और उन्हें ब्रांड के रूप में प्रसार का रूप देना साथ ही सस्ते और सुलभ दर पर डिजिटल सेवा से जोड़ना आज भी किसी चुनौती से कम नहीं है। कृषि और कृषक भारतीय अर्थव्यवस्था के मूल में है केवल इंटरनेट तक सबकी पहुंच विकास की पूरी कसौटी नहीं है। कोरोना महामारी के चलते जो स्वयं सहायता समूह बिखर गए हैं और वित्तीय संकट से जूझ रहे हैं, उन पर भी गौर करने की जरूरत है।

स्थानीय उत्पादों को प्रतिस्पर्धा और वैश्विक बाजार के अनुकूल बनाना फिलहाल बड़ी चुनौती बनी हुई है। ग्रामीण उद्यमी जिस प्रकार डिजिटलीकरण की ओर अग्रसर हुए हैं, वे कुशलता से बाजार प्रतिस्पर्धा का मुकाबला रहे हैं। वस्तु उद्योग से लेकर कलात्मक उत्पादों तक उनकी पहुंच बाजार का डिजिटलीकरण होने से ही बनी है और जन-जन तक उनका सामान पहुंच रहा है। हालांकि यह एक दुविधापूर्ण प्रश्न है कि क्या ग्रामीण क्षेत्रों के बड़े उपभोक्ता को लक्षित करते हुए विपणन नीति को बड़ा आयाम नहीं दिया जा सकता है।

कई ऐसी कंपनियां हैं जो ग्रामीण उत्पादों को ब्रांड के रूप में प्रस्तुत करके मोटा मुनाफा कमा रही हैं। जाहिर है ग्रामीण उद्यमी गांव के बाजार तक सीमित रहने से सक्षम विकास कर पाने में कठिनाई में रहेंगे, जबकि डिजिटलीकरण को और सामान्य बना कर देश की ढाई लाख पंचायतों और साढ़े छह लाख गांवों तक पहुंचा दिया जाए तो उत्पादों का प्रसार करने में व्यापक सुविधा मिलेगी। कई कंपनियां गांवों को आधार बना कर जिस तरह ग्रामीण अनुकूल उत्पाद बना कर ग्रामीण बाजार में ही खपा देती हैं, इसे लेकर भी ग्रामीण उद्यमी एक नई चुनौती का सामना कर रहे हैं। हालांकि यह बाजार है जो बेहतर होगा वही स्थायी रूप से टिकेगा।

वर्षों पहले विश्व बैंक ने कहा था कि भारत की पढ़ी-लिखी महिलाएं यदि कामगार का रूप ले लें तो भारत की विकास दर चार फीसद की बढ़त ले लेगी। तथ्य और कथ्य को इस नजर से देखें तो मौजूदा समय में भारत आर्थिक रूप से एक बड़ी छलांग लगाने की फिराक में है। लक्ष्य है 2024 तक पांच लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था बनना, जिसके लिए यह अनुमान पहले ही लगाया जा चुका है कि ऐसी विकास दर के दहाई के आंकड़े से ही संभव है। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह आंकड़ा बिना महिला श्रम के संभव नहीं है।