अतुल कनक
पिछले दिनों दिल्ली जल बोर्ड के उपाध्यक्ष के एक वक्तव्य के बाद दिल्ली की जनता गर्मी के दिनों में जल संकट की आशंका से त्रस्त हो गई। इस बयान में कहा गया था कि भाखड़ा नांगल प्रबंधन 25 मार्च से 24 अप्रैल तक के लिए नांगल जल नहर में पानी का प्रवाह रोकना चाहता है। पूरे एक महीने पानी का प्रवाह रोकने के प्रस्ताव के मूल में मरम्मत की जरूरत को बताया गया। दिल्ली जल बोर्ड ने भाखड़ा नांगल प्रबंधन को एक पत्र लिख कर आग्रह भी किया कि प्रस्तावित अवधि में गर्मी का मौसम शुरू हो जाएगा।
ऐसे में पानी की खपत और जरूरत बढ़ जाती है। इसलिए फिलहाल पानी के प्रवाह को रोकने के प्रस्ताव पर पुनर्विचार किया जाए, वरना दिल्ली में अफरा-तफरी मच जाएगी। उल्लेखनीय है कि नांगल नहर से दिल्ली को अपने लिए कुल आवश्यक जलापूर्ति का पच्चीस फीसद हिस्सा प्राप्त होता है। आशंका जताई गई कि यदि प्रस्तावित तरीके से नहर में पानी का प्रवाह रोक दिया गया तो न केवल आम आदमी का जीवन प्रभावित होगा, बल्कि राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री निवास, संसद, सर्वोच्च न्यायालय और कई दूतावासों को भी पानी की आपूर्ति पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।
उल्लेखनीय है कि दिल्ली शहर पानी की आपूर्ति के लिए इस जल नहर के अलावा यमुना, गंगा नदी और भूजल पर निर्भर है। दिल्ली के आसपास यमुना नदी में बढ़ता प्रदूषण आए दिन चर्चा का विषय बना रहता है। नदियों की शुचिता के प्रति हमारा व्यवहार इसी तरह उपेक्षा भरा बना रहा तो नदियां कब तक सबकी प्यास बुझाने के अपने संकल्प का निर्वाह कर सकेंगी, यह सवाल हर संवेदनशील मन को मथता रहता है। अदूरदर्शी नीतियों के कारण उत्तर भारत के संपूर्ण मैदानी क्षैत्र में भूगर्भीय जल का इतना अंधाधुंध दोहन हुआ है कि कई स्थानों पर हैंडपंप हांफने लगे हैं। केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय न देश के सत्रह राज्यों में ऐसे 1186 ब्लाक चिह्नित किए हैं, जहां पानी का संकट बहुत गंभीर है। योजना है कि इन स्थानों पर वैज्ञानिक भेजे जाएंगे, जो विस्तृत अध्ययन के बाद क्षेत्र विशेष में जल संकट के समाधान का वैज्ञानिक हल सुझाएंगे।
लेकिन किसी भी इलाके में जल संकट का सबसे सटीक समाधान इसके अलावा क्या हो सकता है कि जल का अपव्यय रोका जाए और वर्षा जल का संग्रहण करके भूगर्भीय जलस्तर को बनाए रखने और बढ़ाने की कोशिश की जाए। हमारे पूर्वज इस सत्य को पहचानते थे और इसीलिए कुंओं, तालाबों, कुंडों या बावड़ियों का निर्माण करवाना बहुत पुण्यदायी कार्य माना जाता था। राजस्थान के जैसलमेर में एक तालाब है- गढ़सीसर तालाब। बरसात के दिन शुरू होने के ठीक पहले इस तालाब की सफाई की जाती थी। यह एक बड़ा अनुष्ठान होता था और स्वयं जैसलमेर शासक इस अवसर पर श्रमदान करते थे।
पहली बारिश के बाद इस तालाब में स्नान करना भी अपराध माना जाता था। दरअसल, यह पानी की शुचिता को बचाने का नहीं, जीवन की आशाओं को बचाए रखने का प्रावधान था। जैसलमेर राजस्थान के मरुस्थलीय इलाके का एक शहर है और मरूस्थलवासियों से अधिक पानी के महत्त्व को कौन समझ सकता है? ऐसा नहीं है कि दिल्ली पानी के महत्त्व से अपरिचित हो। जहां-जहां भी जीवन है, पानी का महत्त्व है। तभी तो रहीम ने कहा था- ‘बिन पानी सब सून।’ रहीम का जन्म इसी दिल्ली में 17 दिसंबर 1556 को हुआ था और वे अकबर के दरबार के इतिहास प्रसिद्ध नौ रत्नों में एक थे। कहते हैं कि अकबर ने जिस फतेहपुर सीकरी को बसाया, मुगलों द्वारा उसे छोड़े जाने के प्रमुख कारणों में एक यह भी रहा कि फतेहपुर सीकरी में पानी की किल्लत होने लगी थी। क्या रहीम ने ऐसी ही किसी किल्लत से गुजरते हुए ‘रहीमन पानी राखिये’ जैसा अपना प्रसिद्ध दोहा लिखा था?
प्रारंभ से ही मनुष्य की यह प्रवृत्ति रही कि वह उन्हीं जगहों को अपने आश्रय का स्थान बनाता है, जहां पानी की उपलब्धता सहजता से हो जाए। इसीलिए नदी घाटी सभ्यताएं अस्तित्व में आर्इं। लेकिन विकास के नाम पर मनुष्य ने पानी के संचय और संरक्षण की आवश्यकता को अनदेखा कर दिया, जो जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं में एक था। हम जानते हैं कि तमाम वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद हम अपनी समस्त जरूरतों को पूरा करने लायक पानी का निर्माण किसी प्रयोगशाला में नहीं कर सकते। दुनिया के दो तिहाई हिस्से में पानी है, लेकिन अधिकांश पानी समुद्र में होने के कारण मनुष्य आज भी अपनी जल आवश्यकता के लिए प्रकृति पर निर्भर है।
प्रकृति का दिया हुआ जल हमें नदियों के माध्यम से मिलता है या बरसात से। हमारे पूर्वज न केवल पानी के उपयोग के प्रति, बल्कि उसके संरक्षण के प्रति भी संवेदनशील थे। इसीलिए हमारे यहां वर्षा जल संरक्षण के लिए कुंए, तालाब, बावड़ी, कुंड, जोहड़ बनाने की परंपरा रही है। ये जल संसाधन न केवल बारिश का पानी स्वयं में सिंचित कर लेते थे, बल्कि इनसे जमीन में रिसता हुआ पानी भूजल के स्तर को बढ़ाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता था। बारिश के पानी को सहेजना इसलिए जरूरी है कि भारत में हर साल होने वाली औसतन 1170 मिलीमीटर बारिश का अधिकांश पानी वर्षा ऋतु के कुछ ही दिनों में बरस जाता है। पुराने दिनों में बरसाती नदियां भी इस पानी को सहेज लिया करती थीं। लेकिन ये छोटी नदियां भी अनियोजित नगर नियोजन की भेंट चढ़ गईं। पानी के सहज प्रवाह के मार्ग में बस्तियां बसा दी गईं। यही कारण है कि जरा-सी बारिश तेज होते ही कई नगरों में बाढ़ के हालात बन जाते हैं।
कृत्रिम जल संसाधन क्षेत्र बना कर बारिश के पानी को सहेजा जाना चाहिए था। यह नगरीकरण की एक सार्थक नीति होती। लेकिन विकास के नाम पर ऐसे अधिकांश जल संसाधनों को पाट दिया गया। दिल्ली में ही कई प्राचीन कुएं और बावड़ियां थीं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है- खारी बावड़ी। यह नाम अब एक बड़े किराना बाजार का है। दुकानों और अन्य इमारतों को बनाने की होड़ में खारी बावड़ी पाट दी गई। कोटला मुबारकपुर की बावड़ी कहां गई, कोई नहीं जानता। कुछ लेखकों ने महरौली को बावड़ियों का शहर कहा है। राजों की बैन, गंधक की बावड़ी, कुतुबशाह की बावड़ी, औरंगजेब की बावड़ी इस इलाके की प्रसिद्ध बावड़ियां रही हैं। स्थिति यह है कि कनाट प्लेस जैसे चहल-पहल वाले इलाके में स्थित उग्रसेन की बावड़ी भी, जिसे कुछ लोग दिल्ली की सबसे भव्य बावड़ी भी मानते हैं, अपनी गुमनामी पर उदास-सी दिखती है।
तमाम प्राचीन जल संसाधन वर्षा जल को सहेज कर उस भूजल के स्तर को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं, जो आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए जरूरतें पूरी करने का सबसे बड़ा साधन है। दिल्ली सरकार ने कुछ समय पहले इस जरूरत को पहचाना और अगस्त 2019 में उत्तर पश्चिम दिल्ली के सुंगरपुर गांव में यमुना किनारे तालाब की खुदाई शुरू करवाई गई। इस योजना को शुरू करते हुए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि पल्ला गांव से लेकर वजीराबाद तक के करीब बीस किलोमीटर के हिस्से में ऐसे तालाब खुदवाए जाएंगे जो न केवल वर्षा जल संचित करेंगे, बल्कि जब यमुना में बाढ़ आएगी तो ये बाढ़ के अतिरिक्त पानी को स्वयं में सिंचित कर लेंगे।
जल संकट के कारण पैदा होने वाली सभी अप्रिय घटनाओं से बचने का एक ही मंत्र है कि हम वर्षा जल संग्रहण के प्रति जागरूक हों। इसके लिए जरूरी है कि बड़ी ईमारतों में वर्षा जल को संरक्षित करने के लिए अनिवार्य इंतजाम किए जाएं, वर्षा जल संग्रहण के लिए नए तालाब खुदवाए जाएं और जहां कहीं उपलब्ध हैं, प्राचीन कुंओं, तालाब, बावड़ियों और कुंडों का संरक्षण किया जाए। चूंकि यह काम बहुत महत्त्वपूर्ण है, इसलिए नीति निर्माताओं को इस दिशा में पहल करने के लिये मानसून की दस्तक का इंतजार नहीं करना चाहिए।