जब भी स्कूलों में जाना होता है, शिक्षक बच्चों की कमी की बात करते नजर आते हैं। कई जगह ऐसा भी सुनने को मिलता है कि आसपास कोई भी बच्चा ‘आउट आॅफ स्कूल’ नहीं है। फिर भी सरकारी स्कूलों में बच्चों की कमी है तो यह गंभीर चिंता का विषय है कि आखिर सरकारी स्कूलों के बच्चे कहां जा रहे हैं? सरकारी स्कूलों के शिक्षक स्वयं बताते हैं कि वे बच्चे आसपास के उन प्राइवेट स्कूलों में जा रहे हैं जहां तुलनात्मक रूप से कम वेतन पाने वाले, कम शिक्षित व कम प्रशिक्षित शिक्षक हैं। आखिर क्या वजह है इन बच्चों के सरकारी स्कूलों से विमुख होने की, जबकि सरकार की तमाम कोशिशें बच्चों को इन स्कूलों से जोड़ने की ही हैं? यह बात स्कूली शिक्षा के कई पहलुओं से जुड़ती है, क्योंकि गिरता नामांकन समस्या का लक्षण मात्र है, समस्या की जड़ मेंं कुछ और ही है।

सोचिए तो स्कूलों का प्रमुख हितधारक कौन है? बच्चों के अभिभावक ही न! उन अभिभावकों का नजरिया सरकारी स्कूलों के लिए कैसा है? ऐसी जगह जहां कुछ विशेष नहीं हो रहा है, जहां उसे संसाधनों की कमी नजर आती है। यह बात अलग है कि संसाधन एक अच्छे विद्यालय होने को निर्धारित नहीं करते और इसके कई उदाहरण हमारे पास हैं जहां संसाधन के नाम पर तामझाम नहीं हैं लेकिन शिक्षा अच्छी रही है।
सरकारी स्कूल में अपने बच्चे को भेजने से अभिभावक को लगता है कि वह अपने बच्चे को एक उपेक्षित जगह पर भेज रहा है। अगर सामर्थ्य हो तो वह अपने बच्चे को कहीं अन्यत्र पढ़ाए।

इसी में दूसरी बात यह भी है कि सरकारी विद्यालय वह चकाचौंध नहीं दे पाते जो कि एक प्राइवेट स्कूल देता है। यह चकाचौंध कई प्रकार से है, चाहे वह भौतिक संसाधनों के रूप में हो या अंग्रेजी माध्यम के छलावे के रूप में। क्या सरकारी स्कूलों के प्रति अभिभावकों का यह नजरिया निराधार है, या इसके पीछे कुछ गहरे तथ्य भी हैं?

नब्बे के दशक से पहले इस तरह की धारणाएं नहीं थीं और ऐसा भी नहीं था कि हमारे सरकारी विद्यालय तब पूरी तरह संसाधन-संपन्न थे। उसके बाद ऐसा क्या हुआ कि हमारे सरकारी स्कूल हाशिये पर चले गए। एक बात समझ में आती है कि नब्बे के दशक के बाद वैश्वीकरण का दौर आया। सब कुछ बाजार से प्रभावित होता दिखा। कहीं यही तो समस्या की जड़ नहीं है कि हमारे सरकारी स्कूल बदले परिदृश्य मे खुद को नहीं बदल पाए और हाशिये पर चले गए? यह बड़ा प्रश्न है, इस पर ठहर कर सोचना होगा। यहां इस सवाल दीगर है कि क्या स्कूली शिक्षा पर बाजार का प्रभाव पड़ने देना चाहिए, या शिक्षा के इससे कहीं व्यापक उद्देश्य हैं।

आज का अभिभावक चाहता है कि उसके बच्चे को ऐसी शिक्षा मिले जिससे उसका सामाजिक व आर्थिक स्थान ऊंचा हो। वह पाता है कि प्राइवेट स्कूल में अपने बच्चे को दाखिला दिला कर वह स्वत: एक कदम आगे बढ़ जाता है। यह है प्राइवेट स्कूल का बाजारवादी अंदाज और आज के विकास मॉडल के लिए दिख रही उसकी सार्थकता। अब हम इसे बाजार वाले प्रश्न से जोड़ें तो देखेंगे कि प्राइवेट स्कूल बाजार से पूरी तरह प्रभावित हैं। उनके लिए उपभोक्ता की संतुष्टि बहुत महत्त्वपूर्ण है, लिहाजा शिक्षा ऐसी हो जिससे निकल कर उसके छात्र इस बाजार में फिट हो सकें। शिक्षा के मूल उदद्ेश्य आम अभिभावक की समझ से परे हैं, उसे तो वही शिक्षा मूल्यवान दिखती है जिसके नतीजे उसे तत्काल दिख जाएं।

अगर हम सरकारी स्कूलों को प्राइवेट स्कूलों की तर्ज पर चलाने का प्रयत्न करेंगे तो कुछ घालमेल कर रहे होंगे। अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूल बनाने की कवायद इसी नकल की प्रवृत्ति का उदाहरण है, क्योंंिक यह बड़ा शिक्षाशास्त्रीय सवाल है कि बच्चे की शिक्षा कैसी हो। क्या प्राइवेट स्कूलों की तर्ज पर सरकारी स्कूल चला कर और अभिभावक को छलावा देकर या उसकी अपेक्षा के अनुरूप शिक्षा देने की मुहिम एक समझदारी भरा रास्ता है? यह नामांकन को नि:संदेह प्रभावित करेगा, लेकिन क्या एक देश की सरकारी शिक्षा प्रणाली को मजबूत करने का यही विकल्प है, यह एक यक्ष प्रश्न है।

एक बात तो यह है ही कि अच्छी शिक्षा को अभिभावक कैसे देखते हैं, और दूसरी बात यह है कि बदली परिस्थितियों में अभिभावक संसाधनों को कैसे देखते हंै। प्राइवेट स्कूलों में एक फार्मूला तो स्पष्ट है कि हर कक्षा के लिए कम से कम एक अध्यापक नियत है, जबकि सरकारी स्कूलों में बहुकक्षीय प्रणाली चल रही है। यह बात अलग है कि बहुकक्षीय प्रणाली को सेवापूर्व व सेवारत शिक्षक प्रशिक्षणों में कितना स्थान दिया गया है। लेकिन बड़ी बात यह है कि क्या प्रत्येक कक्षा के लिए कम से कम एक अध्यापक होना समाधान है? अगर यह एक समाधान है तो ऐसे सरकारी स्कूलों में नामांकन की समस्या न होती जहां प्रर्याप्त संख्या में अध्यापक हैं। समस्या कहीं और है और इसका समाधान भी इतना आसान नहीं है। यह भी विचार करना होगा कि आज से तीन दशक पहले जब सरकारी विद्यालय पल्लवित थे, तो क्या हर कक्षा में एक अध्यापक नियत था?

सरकारी शिक्षा व्यवस्था का अपना एक तंत्र होता है जिसमें अध्यापक सबसे निचले पायदान पर है। गिरते नामांकन की सभी लानतें अध्यापक पर भेजी जा रही हैं। विचार करना होगा कि ये अध्यापक कौन हैं? क्या यह विचारहीन और कर्तव्य से विमुख लोगों की फौज है, या ये भी आम नागरिक हैं जिन्हें राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का बोध है। दरअसल, हर अध्यापक अपने-अपने स्कूल में संघर्ष कर रहा है लेकिन उसे हमने प्रोफेशनल (पेशेवर) के रूप में तैयार नहीं किया। हमने गुरुनाम देकर उसे ऊंचा स्थान तो दे दिया लेकिन यह भूल गए कि गुरुके पास अपना स्वयं का पाठ्यक्रम होता है। क्या हमने आज के शिक्षक को इतना सबल बनाया है कि वह अपना पाठ्यक्रम स्वयं बना सके? एक सिस्टम में हम शायद यह न कर पाएं लेकिन शिक्षक को एक प्रोफेशनल के रूप में तो तैयार कर ही सकते थे जो कि आज की शिक्षा की चुनौतियों का सामना कर सके। सेवापूर्व प्रशिक्षणों की अवधि बढ़ाने की कवायद इस ओर ध्यान देती दिखती है। लेकिन मात्र समयावधि बढ़ाने से कुछ नहीं होगा, हमें इन प्रशिक्षणों को इतना प्रभावी बनाना होगा। सेवारत प्रशिक्षणों को भी।

अब कुछ बात सिस्टम की करें। सच बात यह है कि अंतरराष्ट्रीय चलन के चलते हम शिक्षा के सार्वभौमीकरण की राह पर चले, क्योंकि अगर इसमें राजनीतिक इच्छाशक्ति होती तो कोठारी आयोग की महत्त्वपूर्ण सिफारिशें ठंडे बस्ते में न होतीं। उन सिफारिशों में दो मुख्य सिफारिशें थीं। शिक्षा बजट को जीडीपी के छह प्रतिशत तक करना और समान स्कूल प्रणाली की पुरजोर वकालत। सांस्कृतिक व ऐतिहासिक रूप से हम बंटे हुए समाज के रूप में रहे हैं और वर्तमान शिक्षा प्रणाली इसे और पुख्ता कर रही है। आज साफतौर पर दो वर्ग बनते हुए दिखते हैं। एक, जिसे प्राइवेट स्कूल तैयार कर रहे हैं, और एक वह वर्ग जो सरकारी स्कूलों में है। यों तकनीकी रूप से कोई भी संस्था महज लाभ के लिए प्राइवेट स्कूल नहीं चला सकती। वह या तो एक सोसाइटी के रूप में पंजीकृत होनी चाहिए या एक ट्रस्ट के रूप में। लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा बिल्कुल नहीं हो रहा है कि प्राइवेट स्कूल लाभ न कमा रहे हों।

मजे की बात यह कि इन स्कूलों की संबद्धता (एफिलिएशन) सरकार द्वारा ही की जाती है और सारा सिस्टम धृतराष्ट्र की तरह सब कुछ होने दे रहा है। इन लाभ कमाने वाली संस्थाओं पर कोई लगाम नहीं है और सरकारी स्कूली व्यवस्था की रीढ़ तोड़ने में ये संस्थाएं कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। इसके साथ ही, प्राइवेट स्कूल व्यवस्था में शिक्षकों के शोेषण पर कोई लगाम नहीं है। कोठारी आयोग ने वेतनमान समानीकरण की भी वकालत की थी, लेकिन यह सर्वविदित है कि सरकारी स्कूलों के शिक्षकों और प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों के वेतन में कितना अंतर है।
कुल मिलाकर यह एक संक्रमण काल सा दिखता है, लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि सरकारी स्कूलों के गिरते नामांकन और प्राइवेट स्कूलों के फैलाव के प्रति हम अब भी उदासीन हैं।

आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि सरकारी स्कूलों में नामांकन मात्र पैंसठ प्रतिशत के लगभग रह गया है, जो कि विकसित देशों के विपरीत काफी कम है। किसी भी विकसित देश को देखें तो पाएंगे कि यह संख्या कहीं भी नब्बे प्रतिशत से कम नहीं है। हम करना क्या चाहते हैं? यदि हम वर्तमान स्थिति को नियंत्रण में लाना चाहते हैं तो हमें प्रयास करना होगा कि सरकारी स्कूली व्यवस्था को सुदृढ़ करें। इसे सुदृढ़ करने के लिए समय-समय पर बने विभिन्न आयोगों की सिफारिशों पर नए सिरे से विचार करें।
लगभग सभी आयोगों ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए महत्त्वपूर्ण सिफारिशें दी हैं। कोठारी आयोग के सुझावों पर विस्तृत चर्चा की जानी चाहिए, जिनमें साफ तौर पर शिक्षा बजट को जीडीपी के छह प्रतिशत तक करने और समान स्कूल प्रणाली की वकालत की गई है। तात्कालिक रूप से समाधान के लिए राज्यों को कमर कसनी होगी और सरकारी शिक्षा व्यवस्था की मजबूती तथा प्राइवट स्कूल के नियमन (रेगुलेशन) के लिए तत्काल कदम उठाने होंगे।