आलोक पुराणिक
जिस तरह से तकनीक आधारित कारोबारों के प्रति निवेशक आकर्षित हो रहे हैं, उसे देख कर यह लगता है कि तकनीक के प्रति एक तार्किक रुख निवेशकों को अपनाना चाहिए। तकनीक अपने आप में निरपेक्ष है। फायदे या नुकसान के लिए तकनीक का इस्तेमाल हो सकता है। पर हर तकनीक मुनाफा देकर ही जाए, यह जरूरी नहीं है।
बड़े संकटों की पहले आहट आती है, फिर वे खुद आ जाते हैं। जब हकीकत में वे खुद आते हैं तब बहुत से लोगों को पता ही नहीं होता कि हो क्या गया है। ऐसा ही कुछ इन दिनों अर्थव्यवस्था में हो रहा है, बहुत धीमे-धीमे पर बहुत ही ठोस तरीके से। डिजिटल अर्थव्यवस्था, कंप्यूटर से जुड़ी अर्थव्यवस्था अब काफी चलन में आ चुकी है। इन पर चर्चा भी लगातार हो रही है। पर इस मुद्दे पर चर्चा कम ही हो रही है कि तकनीक अर्थव्यवस्था को बुनियादी तौर पर किस तरह से बदल रही है। और यह तब्दीली हरेक के हित में नहीं है। तकनीक आधारित माडलों ने कई कारोबारों में मध्यस्थों के कारोबार के लिए खतरा पैदा कर दिया है।
कुछ दिनों पहले रैकिट, यूनिलीवर और पामोलिव जैसी कंपनियों के लाखों वितरकों और बिक्री एजेंटों से जुड़ी एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। इसमें कहा गया था कि किराना स्टोर लगातार बड़े घरानों के खुदरा कारोबार के साथ सीधे जुड़ रहे हैं। इस वजह से मध्यस्थों की बिक्री में बीस से पच्चीस प्रतिशत की गिरावट आई है। इससे आपूर्ति शृंखला पर बुरा असर पड़ा है। देश में करीब साढ़े चार लाख लोग हैं जो बतौर बिक्री एजेंट गांव और शहर के कोने-कोने में जाकर किराना स्टोर से सामान का आर्डर लेकर उन्हें माल पहुंचाते रहे हैं।
अब तकनीक के जरिए किराना दुकानदार सीधे माल मंगा सकते हैं। जियो मार्ट ऐप के जरिये किराना दुकानदार अपनी दुकान से ही आर्डर करते हैं और चौबीस घंटे में उन्हें माल पहुंच जाता है। मध्यस्थों की तुलना में कंपनी दुकानदारों को ज्यादा सस्ता माल देती है, क्योंकि बीच वाले मध्यस्थ की कमाई उस कीमत में शामिल नहीं होती है। बड़ी खरीदार कंपनियां बड़े पैमाने पर मूल कंपनियों से माल लेकर सीधे किराना दुकानदारों को बेच रही हैं। इससे छोटे मध्यस्थों का धंधा चौपट हो रहा है। जाहिर है, किराना दुकानवाले या कोई भी ग्राहक माल वहीं से लेगा, जहां से सस्ता मिलेगा। इससे उन छोटे मध्यस्थों को अड़चन हो रही है, जो पहले ज्यादा भावों पर अपना मार्जिन मोटा रख कर किराना दुकानों को माल बेचते थे। अब किराना दुकानों को अगर वही माल बड़ी कंपनियां अपनी तकनीक और पैमाने के चलत सस्ते में दे रही हैं, तो फिर पुराने मध्यस्थों की तरफ कौन रुख करेगा।
जिस तरह के हालात बनते जा रहे हैं उनमें छोटे बिचौलिए कारोबारी तभी टिक सकते हैं जब वे भी बड़ी कंपनियों की तरह से माल सस्ता दें। पर इसके लिए जरूरी है कि उन्हें भी कंपनियों से सस्ता माल मिले। कंपनियां बड़े घरानों की कंपनियों को तो सस्ता माल दे सकती हैं, क्योंकि वे बहुत बड़ी ग्राहक होती हैं। इन बड़ी कंपनियों के पैमाने, आपूर्ति कौशल, तकनीक का मुकाबला छोटे मध्यस्थ नहीं कर सकते। यानी छोटे मध्यस्थ ठीक उस भाव में तमाम कंपनियों से सामान नहीं ले सकते, जिस भाव पर बड़ी कंपनियां कर लेती हैं और अपनी तकनीक के जरिए किराना दुकानों तक पहुंचा देती हैं। इसका कारण साफ है। बड़ी कंपनी तकनीक में बड़ा निवेश कर सकती है, लेकिन वैसा निवेश कर पाना छोटे मध्यस्थों के लिए संभव ही नहीं है।
इसलिए अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा बदलाव आ रहा है कि छोटे मध्यस्थ, छोटे कारोबारी बाजार से बाहर होंगे क्योंकि वे बड़े कारोबार, बड़ी तकनीक का मुकाबला करने में सक्षम नहीं हैं। और मुद्दे की बात यह है कि इसे कानून से नहीं हो रोका जा सकता है। यानी ऐसा कानून नहीं बनाया जा सकता है कि किराना कारोबारियों को अपना माल महंगी कीमत में छोटे मध्यस्थों से ही खरीदना पड़ेगा और सस्ती कीमत पर बेचने वाली कंपनियों का बहिष्कार उन्हें करना पड़ेगा। बाजार तो मांग, आपूर्ति लागत और मुनाफे के खेल से चलता है। बीच वाले या तो सस्ता बेचें और कुछ अलग सेवा दें, कुछ अलग खास दें, तब ही तो बीच वाले की ओर ग्राहक आकर्षक होंगे। वरना कीमत और लागत के खेल में जो जीतेगा, ग्राहक उसकी ओर जाएगा। बड़ी कंपनियां इस खेल में बहुत मजबूत तरीके से जीत रही हैं।
कीमत का रिश्ता इस बात से है कि उसमें कौनसा पक्ष क्या मूल्य जोड़ रहा है। जैसे अखबार छपता है और आखिर में पाठक या ग्राहक के घर पहुंचता है। अखबार की प्रेस से ग्राहक के घर के बीच कई मध्यस्थ होते हैं। उन सबकी कमाई का हिस्सा उस कमाई से जाता है जो ग्राहक चुकाता है। अगर ये सब बीच के मध्यस्थ गायब हो जाएं, तो जाहिर है कि अखबार की कीमत सस्ती हो जाएगी। यही वजह है कि जो ग्राहक अखबार के डिजिटिल संस्करण कंप्यूटर पर पढ़ते हैं, उन्हें अखबार सस्ता पड़ता है, उन्हें कम कीमत चुकानी पड़ती है, क्योंकि उस कीमत में मध्यस्थों का लाभ शामिल नहीं होता।
किराना कारोबार में ऐसा ही कुछ हो रहा है। किराना कारोबार के मध्यस्थों को लिए अस्तित्व का खतरा तो सामने है ही, पर डिजिटल अर्थव्यवस्था से जुड़े और भी खतरे हैं, जिन्हें निवेशकों को भी समझना होगा। कुछ हद तक वे समझ भी रहे हैं, पर अभी उन्हें पूरे तौर पर समझा जाना बाकी है। हाल में तकनीक से जुड़ी कंपनियों के शेयर बाजार में जारी हुए। निवेशकों ने उनमें निवेश किया। जोमाटो नामक कंपनी के शेयरों में निवेशकों ने जम कर निवेश किया। जोमाटो का काम मूल रूप से खाने-पीने की चीजें बेचने का है। पर इसे लेकर बाजार में जबर्दस्त उत्साह रहा।
निवेशकों ने ऐसा ही उत्साह पेटीएम से जुड़ी कंपनियों के शेयरों को लेकर भी दिखाया। कई निवेशकों को लगता है कि तकनीक से जुड़े होने की वजह से ही कोई भी कंपनी बहुत टाप स्तर पर कामयाब हो जाएगी। पर हकीकत में ऐसा नहीं है। निवेश का मूल सिद्धांत है कि कंपनियों को मुनाफा कमाना चाहिए। कंपनियां मुनाफा कमाएंगी तो निवेशकों को उस मुनाफे में हिस्सा मिलेगा और संबंधित कंपनी के शेयरों के भाव ऊपर जाएंगे। कम मुनाफा या कोई मुनाफा नहीं होने की स्थिति में किसी भी कंपनी से उम्मीद चाहे जितनी लगा ली जाएं, पर असल में वह कंपनी अपने निवेशकों को दीर्घकाल में शानदार प्रतिफल ना दे पाएगी।
तकनीक अपने आप में बहुत कुछ है, पर सब कुछ नहीं है। तकनीक की उपलब्धता का मतलब यह नहीं है कि सब कुछ मुनाफे में ही आ जाएगा। जैसे पेटीएम वाली कंपनी का शेयर जिस भाव पर जारी किया गया, वह ऊंचाई यह शेयर बरकरार नहीं रख पाया और नीचे आ गया। यानी जिसने भी पेटीएम में निवेश करके मुनाफा कमाने की सोची, वह परेशान ही हुआ। जिस तरह से तकनीक आधारित कारोबारों के प्रति निवेशक आकर्षित हो रहे हैं, उसे देख कर यह लगता है कि तकनीक के प्रति एक तार्किक रुख निवेशकों को अपनाना चाहिए। तकनीक अपने आप में निरपेक्ष है।
फायदे या नुकसान के लिए तकनीक का इस्तेमाल हो सकता है। पर हर तकनीक मुनाफा देकर ही जाए, यह जरूरी नहीं है। इसलिए तकनीक के बदलते परिवेश में निवेशकों को बहुत ध्यान से समझना है और उन कारोबारियों को भी समय रहते कुछ सोच लेना चाहिए जो किसी भी उत्पाद की बिक्री और आपूर्ति में बतौर मध्यस्थ अपना हिस्सा कमा रहे हैं और कुछ खास नहीं कर रहे हैं। कोई बड़ा खिलाड़ी तकनीक का सहारा लेकर उन्हे पटक देगा और उनके पैरों के तले जमीन खिसक जाएगी।