अतुल कनक
पिछले कुछ दशकों से नदियों में प्रदूषण कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ा है। यह गंभीर चिंता की बात इसलिए भी है कि इसका सीधा असर मनुष्य पर पड़ रहा है। अगर नदियां प्रदूषित हो जाएंगी और बचेंगी ही नहीं तो धरती पर हम रह कैसे पाएंगे। आज जिस तरह के हालात हैं और ज्यादातर नदियां प्रदूषण की मार झेलती हुई अपने दिन गिनती दिख रही हैं, वह बड़ी चेतावनी है।
भारतीय संस्कृति में आदिकाल से ही नदियों का विशेष महत्त्व रहा है। माना जाता है कि प्रात: पवित्र नदियों का स्मरण करने से मनुष्य को जीवन में सफलता मिलती है। यों भी सभ्यता के विकास में नदियों का अप्रतिम योगदान रहा है। भारतीय संस्कृति में तो वैसे भी नदियों को देवी के समकक्ष माना गया है। गंगा सहित अनेक नदियों की उत्पत्ति को देवताओं से जोड़ा गया है। नदियों के प्रवाह को दिव्य शक्तियों के अस्तित्व संबद्ध करने के मूल में मंतव्य कदाचित यही रहा होगा कि हम नदियों की महत्ता को स्वीकार करें।
मानव सभ्यता का विकास भी नदियों के किनारे ही हुआ। कालांतर में भी पानी की सहज उपलब्धता के कारण ही नदियों के किनारे बसी बस्तियों की बनावट घनी होती गई। धीरे-धीरे यही बस्तियां बड़े शहरों का रूप लेती गर्इं। पृथ्वी पर मौजूद समस्त जल स्रोतों में से सनतानवे फीसद से अधिक हिस्सा खारे पानी का है और शेष में से अधिकांश हिमखंड के रूप में जमे हुए हैं।
इन्हीं जमे हुए जल स्रोतों से अधिकांश प्रमुख नदियां निकली हैं। धरती की आबादी का एक बड़ा हिस्सा पीने के पानी की उपलब्धता के लिए नदियों पर ही निर्भर है। यही कारण है कि प्राचीन काल में नदियों के प्रवाह की शुचिता को बनाए रखने पर विशेष ध्यान दिया जाता था। क्या कोई विश्वास करेगा कि ज्योतिष की एक सामान्य मान्यता के अनुसार नदियों के पानी में गंदगी डालने वाले व्यक्ति को मातृऋण का श्राप मिलता है।
इस मान्यता का मनोवैज्ञानिक तथ्य यही है कि लोग नदियों के पानी में गंदगी प्रवाहित नहीं करें। लेकिन हमने पारंपरिक मान्यताओं को नकार दिया और परिणाम यह हुआ कि जिन नदियों को कभी इतना पवित्र माना जाता था कि उनमें स्नान मात्र से ही जन्मों के पाप धुल जाने की मान्यताएं बलवती थीं, उन्हीं नदियों का पानी इतना प्रदूषित हो गया कि उनका पानी पीने लायक भी नहीं बचा।
इस स्थिति के मूल में दो अतिवादी कारण रहे। अत्यधिक तार्किक हो जाने की जिद में हमने परंपराओं को समझने की कोशिश करने के बजाय उनका अंधानुसरण प्रारंभ कर दिया। प्राचीनकाल में नदियों पर बने पुल से गुजरने वाले यात्री नदियों के प्रति अपनी श्रद्वा व्यक्त करने के लिए नदी के जल में कुछ सिक्के डाल दिया करते थे। यह वह दौर था जब सिक्के तांबे या चांदी के बने होते थे। तांबे और चांदी में पानी को शुद्ध करने का स्वाभाविक गुण रहता है।
यानी प्रतीकात्मक तौर पर मनुष्य नदी-जल की शुचिता को कायम रखने के अनुष्ठान में अपना आंशिक योगदान दे देता था। लेकिन जब सीसे या अन्य धातुओं के सिक्के ढलने लगे, तब भी हमने नदी में सिक्कों को डालना जारी रखा। नदियों से जुड़ी पाप धोने की मान्यता भी उनके प्रदूषण का कारण बन गई। कोरोना काल में अधजले या बिन जले हजारों शव नदियों में बहा दिए गए। कल्पना कीजिए कि उससे नदी जल कितना दूषित हुआ होगा?
पिछले कुछ दशकों से नदियों में प्रदूषण कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ा है। यह गंभीर चिंता की बात इसलिए भी है कि इसका सीधा असर मनुष्य पर पड़ रहा है। अगर नदियां प्रदूषित हो जाएंगी और बचेंगी ही नहीं, तो धरती पर हम रह कैसे पाएंगे? आज जिस तरह के हालात हैं और ज्यादातर नदियां प्रदूषण की मार झेलती हुई अपने दिन गिनती दिख रही हैं, वह बड़ी चेतावनी है। कुछ समय पहले विज्ञान और पर्यावरण केंद्र के एक सर्वेक्षण में पता चला कि भारत की अधिकांश नदियों के जल में सीसा, कैडमियम, आर्सेनिक, निकल, क्रोमियम, लोहे और तांबे की मात्रा खतरनाक स्तर पार कर गई है।
इस सर्वेक्षण में एक सौ सत्रह नदियों और सहायक नदियों में फैले एक चौथाई निगरानी केंद्रों पर लिए गए नमूनों में दो या दो से अधिक जहरीली धातुओं के उच्च स्तर पाए गए। इस प्रदूषण के लिए खनन, कबाड़ उद्योग और धातु संबंधी विविध उद्योगों द्वारा परिवेश में मुक्त की गई जहरीली धातुएं तो जिम्मेदार हैं ही, हमारी आधुनिक जीवन शैली भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है।
गंगा जैसी नदी, करीब ढाई हजार किलोमीटर के अपने कुल बहाव क्षेत्र की शुरुआत में ही प्रदूषित होना शुरू हो जाती है। उत्तराखंड के साढ़े चार सौ किलोमीटर के प्रवाह में ही एक दर्जन से अधिक नाले पैंतालीस करोड़ घन लीटर से अधिक गंदा पानी गंगा में सतत उंडेलते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में यही बर्ताव इस पवित्र नदी को सहना पड़ता है। गंगा को दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित दस नदियों में एक पाया गया है।
एक अन्य अध्ययन में पाया गया है कि दुनिया की जो नदियां समुद्र तक सर्वाधिक कचरा ले जाती हैं, उनमें गंगा नदी भी एक है। सोचिए, जिस नदी को जीवनदायिनी कहा गया है, उस नदी के साथ समुद्र तक जाने वाला अपशिष्ट पर्यावरण और जलीय जंतुओं के स्वास्थ्य पर क्या असर डाल रहा होगा? जब गंगा जैसी नदी का यह हाल है तो दूसरी नदियों के दुख का अनुमान तो सहज ही लगाया जा सकता है।
यमुना में उठने वाले सफेद झाग उसके प्रदूषण की कहानी कहते हैं। कभी झारखंड की जीवनरेखा मानी जाने वाली दामोदर नदी का पानी आज इतना प्रदूषित हो चुका है कि स्वयं पर्यावरण विभाग के अनुसार उसका पानी कई स्थानों पर पीने योग्य नहीं है। सुवर्णरेखा नदी को कभी झारखंड की गंगा कहा जाता था, लेकिन अब वह नहाने लायक भी नहीं रह गई है।
मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अमरकंटक में ही नर्मदा सबसे ज्यादा मैली है। अमरकंटक और ओंकारेश्वर जैसे तीर्थों के किनारे नर्मदा के जल में क्लोराइड और घुलनशील कार्बन डाई आक्साइड का स्तर खतरनाक हो गया है। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल को हरा-भरा रखने वाली एक दर्जन से ज्यादा नदियां दम तोड़ने की हालत में हैं। गोमती, पीलीनदी, मगई, गड़ई, तमसा, विषही, चंद्रप्रभा, सोन नदी आदि की हालत खस्ता है।
दरअसल, पवित्र नदियों के तट पर होने वाले कुछ समारोहों और अनुष्ठानों ने भी पानी की पवित्रता से कम खिलवाड़ नहीं किया है, क्योंकि हम पूजा सामग्री या पूजा में प्रयुक्त होने वाली मूर्तियों को नदी में यह सोच कर प्रवाहित कर देते हैं कि उन्हें पानी में प्रवाहित करने से पाप नहीं लगेगा। ऐसा करते समय हम भूल जाते हैं कि इस सामग्री को तैयार करने में प्रयुक्त किए गए रसायन या कुछ खास तत्व पानी का दम घोंटने का काम करते हैं।
जहरीली धातुओं के अलावा नदियों के पानी में रासायनिक दवाओं के कारण भी प्रदूषण बुरी तरह बढ़ रहा है। दुनिया के सभी महाद्वीपों के एक सौ चार देशों की दो सौ अट्ठावन नदियों पर एक शोध में यह बात सामने आई। इस शोध में दुनिया के सौ से ज्यादा वैज्ञानिक शामिल थे। आश्चर्य की बात यह है कि नदियों के पानी में मिर्गी रोधी दवा कार्बमेंजपाइन, डायबिटीज की दवा मेटफॉर्मिन और कैफीन सहित विविध दवाओं के तत्व खतरनाक मात्रा में पाए गए।
ये तत्व नदियों में मानव अपशिष्ट के साथ, बिना उपचारित सीवरेज के साथ, नदी किनारे जमा किए गए कचरे के साथ अथवा दवा बनाने वाली कंपनियों के उपचार रहित अपशिष्ट के साथ पहुंचे। उन्नीस फीसदी स्थानों पर शोधकर्ताओं ने नदी जल में जैव प्रतिरोधियों की उपस्थिति खतरनाक स्तर पर पाई है। पर्यावरण के लिए यह भी एक नए वैश्विक खतरे के तौर पर उभर रहा है।
भारत के नमूनों में कैफीन, निकोटिन, एनाल्जेसिक, एंटीबॉयटिक्स, एंटी डिप्रेसेंट्स, एंटी डायबिटिक, एंटी अलर्जी दवाइयां मिली हैं। नदियों में दवाइयों के कारण बढ़ रहा प्रदूषण भी संवेदनशील लोगों को डराने लगा है, क्योंकि यह प्रदूषण अप्रत्यक्ष तौर पर करोड़ों लोगों के जीवन को प्रभावित कर सकता है।