यह सर्वविदित है कि पर्यावरण की पूजा करना भारत की परंपरा में शामिल है, जिसका प्रमाण हमें सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर वेद-पुराण तक में बहुत विस्तार से मिलता है। भारतीय परंपरा में धार्मिक कृत्यों में वृक्ष पूजा का महत्त्व सब जानते हैं। पीपल को पूज्य मान कर उसे अटल सुहाग से संबद्ध किया गया है, भोजन में तुलसी का भोग पवित्र माना गया है, जो कई रोगों की रामबाण औषधि है। विल्व वृक्ष को भगवान शंकर से जोड़ा गया और ढाक, पलाश, दूर्वा व कुश जैसी वनस्पतियों को नवग्रह पूजा आदि धार्मिक कृत्यों से जोड़ा गया। पूजा के कलश में सप्तनदियों का जल और सप्तभृत्तिका का पूजन करना व्यक्ति में नदी व भूमि को पवित्र बनाए रखने की भावना का संचार करता था। सिंधु सभ्यता की मोहरों पर पशुओं और वृक्षों का अंकन, सम्राटों द्वारा अपने राजचिह्न के रूप में वृक्षों व पशुओं को स्थान देना, गुप्त सम्राटों द्वारा बाज को पूज्य मानना, मार्गों में वृक्ष लगवाना, कुएं खुदवाना, दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मंगवाना आदि तत्कालीन प्रयास पर्यावरण प्रेम को ही प्रदर्शित करते हैं।

यह सब दर्शाता है कि हमारा भारतीय समाज हजारों सालों से वन, नदी, वायु, सूर्य, आदि की पूजा करता आया है, और जिसकी पूजा की जाती है वह दोहन या शोषण के लिए नहीं होता। जिस प्रकार, राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार, संतुलन बनाए रखने के लिए पृथ्वी का तैंतीस प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित होना चाहिए, ठीक इसी प्रकार प्राचीन काल में जीवन का एक तिहाई भाग प्राकृतिक संरक्षण के लिए समर्पित था, जिससे कि मानव प्रकृति को भली-भांति समझ कर उसका समुचित उपयोग कर सके और प्रकृति का संतुलन बना रहे। उपनिषदों में लिखा गया है कि ‘हे अश्वरूप धारी परमात्मा! बालू तुम्हारे उदरस्थ अर्धजीर्ण भोजन है, नदियां तुम्हारी नाड़ियां हैं, पर्वत-पहाड़ तुम्हारे हृदयखंड हैं, समग्र वनस्पतियां, वृक्ष व औषधियां तुम्हारे रोम सदृश हैं।’

दरअसल, यह भारत की सांस्कृतिक शिक्षा थी जो कुछ अलग माध्यम से समाज को सिखाई व पढ़ाई जाती थी। भारत की प्राचीन सभ्यता का विकास सिंधु नदी के किनारे ही हुआ। लेकिन अपनी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करना तभी तर्कसंगत कहा जा सकता है, जब हम उनसे उपजे मूल्यों को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं। यहां पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि पर्यावरण को लेकर भारत की इतनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत होने के बावजूद आज हम भारतीयों में पर्यावरण को लेकर जागरूकता की कमी क्यों है?

यह अक्सर कहा जाता है कि दृष्टिकोण बदलने से व्यवहार बदल जाता है। आज हम जिस पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहे हैं उसके पीछे प्रकृति को लेकर लोगों के दृष्टिकोण में आया परिवर्तन काफी हद तक जिम्मेवार है। पर्यावरणविदों का मानना है कि अगर वर्तमान हालात नहीं बदले गए तो दुनिया का तापमान चार डिग्री सेंटीग्रेट तक बढ़ सकता है और अगर यह हो गया तो फिर जो बर्फ का पिघलाव होगा वह अनेक देशों को समुद्र के पानी में डुबो देगा। इसके साथ ही भारत के तटीय राज्यों और अंडमान निकोबार द्वीपसमूह व लक्ष्यद्वीप तथा यूरोप के ठंडे देश इतने गर्म हो सकते हैं कि वहां की आबादी के लिए खतरनाक साबित हों। इन सबके बरक्स एक ऐसा भी समय था जब मनुष्य प्रकृति से सान्निध्य रखता था और प्रकृति के साथ अपने अस्तित्व को जोड़ता था और प्रकृति को एक सजीव इकाई के रूप में देखता था। लेकिन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से जनमी उपभोक्तावादी संस्कृति ने उपभोग को एक सार्वभौमिक मूल्य के रूप में स्थापित कर दिया है। जाहिर है, इस उपभोग की संस्कृति का स्वाभाविक शिकार प्रकृति ही होगी, क्योंकि आधुनिक पूंजीवाद की नींव प्रकृति के अंधाधुंध दोहन पर टिकी हुई है।

यदि हम जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए इसका समाधान भारतीय दर्शन और संस्कृति में खोजें तो हम पुन: लोगों को उन पर्यावरणीय मूल्यों के प्रति जागरूक कर सकते हैं जहां प्रकृति को एक सजीव इकाई के रूप में देखा जाता था। इसके लिए महात्मा गांधी के दर्शन, बौद्ध व जैन दर्शन की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार व्यापक स्तर पर करना होगा। गांधी ने कहा था कि प्रकृति के पास दुनिया की जरूरतों को पूरा करने के लिए सब कुछ है, पर वह किसी के लालच की पूर्ति नहीं कर सकती। गांधी के बताए हुए ग्रामीण और कुटीर उद्योग, जिसे लोहियाजी ने छोटी इकाई तकनीक और छोटी मशीन के रूप में प्रस्तुत किया था, को अमल में लाया जाए तो करोड़ों लोगों को रोजगार के लिए अपने घर से दूर नहीं जाना पड़ेगा। साथ ही, बड़ी-बड़ी मशीनों और उद्योगों से होने वाला प्रदूषण भी नहीं होगा।

बुद्ध के ही समकालीन महावीर स्वामी ने भी अपने दर्शन ‘जिओ और जीने दो’ की अवधारणा को जन्म दिया है। वैसे तो यह सूक्ति देखने में बहुत मामूली जान पड़ती है, लेकिन मानो इसी वाक्य में संसार की सारी समस्याओं को हल करने की चाबी छिपी हुई है। ‘जिओ और जीने दो’ में पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, पहाड़, नदियां, झरने आदि सब शामिल हैं। जैन दर्शन ने ही सबसे पहले पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतियों को जीव कहा है। हालांकि विज्ञान इसे मानने को तैयार नहीं है, पर इनमें से वनस्पतियों को उसने जीव मानना प्रारंभ कर दिया है, क्योंकि डॉ जगदीशचंद्र बसु ने वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध कर दिया है कि फूलों, पत्तियों और वृक्षों में भी जान होती है।

आज वृक्षों की निरंतर हो रही कटाई से हमारा पर्यावरण असुरक्षित है, जंगल वीरान हो गए हैं। जैनाचार्यों ने वृक्षों को काटना पाप बताया है। क्योंकि वृक्ष में भी जीव होता है। जैनाचार्यों ने कहा है कि जिस प्रकार हम तेल को शरीर में लगाते हैं, पानी का उपयोग भी हमें उसी प्रकार करना चाहिए। व्यर्थ में पानी का ढोलना पाप है, हिंसा है। आज जल प्रदूषण से सारा संसार आक्रांत है। पीने का पानी भी आज शुद्ध नहीं है, इसके भयानक परिणाम मानव को ही झेलने पड़ेंगे। भयानक बीमारियां इसी की वजह से हैं। आज गंगा, यमुना जैसी बड़ी-बड़ी नदियां प्रदूषण से ग्रसित हैं, उन्हें गंदा और किसी ने नहीं बल्कि उन्हीं के भक्तों ने किया है।

जितने भी अभियान चलाए जा रहे हैं वे खास सार्थक परिणाम देने वाले नहीं दिख रहे हैं। पृथ्वी की रक्षा के लिए प्रदूषण, अन्याय और अशुचिता के खिलाफ व्यापक और जोरदार अभियान जरूरी है। भारतीय दर्शन, जीवन शैली, परंपराओं और प्रथाओं में प्रकृति की रक्षा करने का संदेश निहित है। जब तक हम भारतीय दर्शन के अनुरूप जीवन शैली नहीं अपनाएंगे तब तक ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या का समाधान नहीं मिलेगा। इसलिए प्रकृति की रक्षा करने वाली परंपराओं और संस्कृति को पुनर्जीवित करने की जरूरत है। विश्व के सामने आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन दो बड़ी चुनौतियां हैं। आतंकवाद मनुष्य द्वारा मनुष्य पर हमला है जबकि जलवायु परिवर्तन मनुष्य द्वारा प्रकृति पर किया गया हमला है।

कृत्रिमता के साथ किया गया विकास प्रकृति के लिए एक समस्या बन गया। विडंबना यह है कि इसका कृत्रिम समाधान ढूंढ़ा जा रहा है। हमें लालच छोड़ने, पृथ्वी को नष्ट नहीं होने देने और आवश्यकता के अनुरूप प्रकृति के संसाधनों का उपभोग करने का संकल्प लेने से ही ग्लोबल वार्मिंग का समाधान मिलेगा। वैदिक ऋषि प्रार्थना करता है कि पृथ्वी, जल, औषधि एवं वनस्पतियां हमारे लिए शांतिप्रद हों। ये शांतिप्रद तभी हो सकते हैं जब हम इनका सभी स्तरों पर संरक्षण करें। तभी भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण की इस विराट अवधारणा की सार्थकता है, जिसकी प्रासंगिकता आज इतनी बढ़ गई है।