किसी देश में सार्वजनिक व्यवस्थाओं का निरंतर और समुचित संचालन तभी संभव हो पाता है जब शासन-प्रशासन और जनता दोनों अपने-अपने दायित्वों का निर्वहन करें। भारत के संबंध में जब हमारे सामने सार्वजनिक व्यवस्थाओं को सुचारु रूप से चलाने की बात आती है तो इसका व्यावहारिक व कार्यकारी अनुभव शून्य है। इसका अर्थ है कि भारत की सार्वजनिक व्यवस्थाएं कुछ तो सरकारी तंत्र और बहुत कुछ अति जनसंख्या भार के कारण असुविधाजनक ही नहीं हैं, अपितु अच्छे-भले व्यक्ति को तन-मन से रोगी बना डालती हैं। पूंजी और विकास का केंद्रीकरण कुछ चयनित लोगों तक सीमित है। इन लोगों और इनके द्वारा परिचालित व्यापारिक गतिविधियों में शामिल इनके कर्मचारियों को भले ही उच्च प्रौद्योगिकी पर आधारित हरेक आधुनिक सुख-सुविधा मिलती हो, पर लोकतंत्र के लिए इस देश की राजनीति जिन आम लोगों के मतों पर निर्भर रहती आई है, उनके लिए सरकारी सार्वजनिक सुविधाएं पाना युद्ध करने जैसा है।
यद्यपि भारत आज कई क्षेत्रों में काफी तरक्की कर चुका है। आश्चर्यचकित करने वाली भौगोलिक, खगोलीय और वैज्ञानिक प्रगति व उपलब्धियां देशवासियों को गर्वानुभूति करा रही हैं। इन क्षेत्रों में भारत एक तरह से विकसित देशों के समूह में सम्मिलित हो चुका है। इसके बाद भी भारत में सार्वजनिक जन-सुविधाएं और सेवाएं साधारण, निर्धन नागरिकों के लिए पीड़ादायी व कष्टकारी बनी हुई हैं। भारत में अनेक सार्वजनिक व्यवस्थाएं जो सार्वजनिक-निजी भागीदारी के आधार पर चलाई जा रही हैं उनमें उतनी असुविधाएं, जटिलताएं, अकुशलता, गुणहीनता तथा नागरिक सेवा का अभाव नहीं है जितना कि सार्वजनिक सेवाओं में है। वैसे भी भारत जैसे देश में पूरी तरह सार्वजनिक नागरिक व्यवस्थाएं और सेवाएं बची ही कहां हैं। अधिकांश नागरिक व्यवस्थाओं के संचालन, रख-रखाव और प्रबंधन का दायित्व निजी संस्थानों को दिया जा चुका है। ये संस्थान केवल अपने आर्थिक हितों को ध्यान में रख कर सार्वजनिक व्यवस्थाओं का परिचालन कर रहे हैं। इससे नागरिक सुविधाओं और सेवाओं के निर्वहन में एक नई तरह की विसंगति पसर चुकी है। समस्त नागरिक सुविधाएं और व्यवस्थाएं या तो ठेके पर चल रही हैं या दोषयुक्त सार्वजनिक-निजी भागीदारी प्रणाली के माध्यम से।
विभिन्न राज्यों के परिवहन निगम भी इससे अछूते नहीं। परिवहन निगम नागरिक सेवा के प्रति शून्य-समर्पण से ग्रस्त हैं। परिवहन निगम यात्रियों की असुविधाओं, यात्रावधि में यात्रियों को होने वाले कष्ट और अपने कर्मचारियों की अयोग्यता, अकुशलता व दुर्व्यवहार से घिरे हैं। राज्य सरकारें विभिन्न राजनीतिक दलों के नेतृत्व में बनती-बिगड़ती रहती हैं और राज्य सरकारों के ही नियंत्रण में चलने वाले सार्वजनिक परिवहन की दुर्व्यवस्थाओं को ठीक करने की स्थिति में सरकारें कभी नहीं आ पातीं। यदि कोई राजनीतिक दल सत्ता में आते ही परिवहन व्यवस्था को यात्रियों की सुविधाओं के अनुसार प्रबंधित करने का प्रयास करता भी है तो उसके सम्मुख पिछली सरकारों के कार्यकाल से हानि में चल रहे परिवहन निगम की कमजोर आर्थिक स्थिति की चिंता पहले उभर आती है। इस कारण सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में नागरिकों की सुख-सुविधाओं के अनुरूप पूर्ण परिवर्तन की परियोजना क्रियान्वयन से पूर्व ही लटक जाती है। परिवहन निगम का ध्यान नागरिक सुविधाओं और सेवाओं को सुधारने और उन्नत बनाने पर नहीं, अपितु भेड़-बकरियों की तरह यात्रियों को बसों में ठूंस अपनी आर्थिक हानि को कम करने पर केंद्रित रहता है। स्वतंत्र भारत में नागरिक विरोधी यह परिपाटी दशकों से चली आ रही है। विभिन्न राजनीतिक दलों का शासन, प्रमुख शासक-प्रशासक ही इसके लिए एकमात्र दोषी नहीं हैं, अपितु जन-जन का व्यक्तिगत दुराचरण, असभ्यता, दुर्व्यवहार और सार्वजनिक संपत्तियों के प्रति साज-सज्जा व संभाल का अभाव भी इसके लिए दोषी है। भारत के अधिसंख्य राज्यों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को निगम के अंतर्गत संचालित किया जाता है। इसके लिए राज्य परिवहन निगम अस्तित्व में हैं। लेकिन निगम की कार्यप्रणाली किसी भी रूप में इक्कीसवीं सदी के अनुरूप नहीं है। निगम की बसें, बसों की सीटें, खिड़कियां, खिड़कियों के शीशे, यात्रियों के सामान रखने के स्थान, बसों के यात्री स्टैंड, भोजन के लिए परिवहन निगम द्वारा अधिकृत राजमार्गों पर स्थित भोजनालय तथा बसों के ज्यादातर चालक-परिचालक सभी विसंगतियों और दोषों से ग्रस्त हैं। बसों में अक्षरांकित धूम्र व मदिरापान निषेध जैसे वाक्य तब अति हास्यास्पद और क्रोधित करने वाले साबित होते हैं जब स्वयं बसों के चालक नि:संकोच चलती बस में बीड़ी-सिगरेट पीते हुए दिख जाते हैं।
जिन यात्रियों के कारण परिवहन निगम की आय होती है और निगम में स्थायी-अस्थायी लाखों लोगों को रोजगार मिला हुआ है, उनके प्रति निगम के कर्मचारी कभी कृतज्ञता प्रकट नहीं करते। परिवहन नियमों के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है कि कारोबारी अपना सामान बसों में लाद कर नहीं ले जा सकते। लेकिन चालक-परिचालक की सांठगांठ से कारोबारियों-कबाड़ियों का भारी सामान सीटों के मध्य स्थित बस की पैदल लीक पर फैला रहता है। इससे सभ्य नागरिकों को बस में चढ़ने व बस से उतरने में समस्या होती है। परिचालक इस तरह की अव्यवस्था को अव्यवस्था मानते ही नहीं। इसी तरह कई अन्य लोग यात्रियों को लूटने के इरादे से बसों में चढ़ते हैं। इस ओर चालक-परिचालक से लेकर निगम का कोई अधिकारी ध्यान हीं नहीं देता। एक प्रकार से यात्री पूर्ण असुरक्षा, असुविधा से घिरे रहकर अपनी यात्रा करते हैं। इन परिस्थितियों में राज्य परिवहन निगम की बसों में यात्रा कर रहे यात्रियों को यह सोचने के लिए विवश होना ही पड़ता है कि चाहे सामरिक और आर्थिक रूप में भारत देश दुनिया के शीर्ष छह देशों में सम्मिलित हो चुका है, परंतु असभ्य जनसंख्या के भार से विसंगत होती देश की सार्वजनिक व्यवस्थाओं के बीच रहते हुए कहीं नहीं लगता कि हम तेजी से विकसित होती आर्थिक व सामरिक शक्ति बन रहे हैं। जब तक देश का एक-एक नागरिक, चाहे वह सरकारी या सरकारी-निजी भागीदारी से संचालित सार्वजनिक व्यवस्थाओं का उपभोग करनेवाला व्यक्ति हो या व्यवस्थाओं के कार्यकारी तंत्र का अंग, मानसिक व वैचारिक रूप में उदार, नवोन्नत विचारग्राही और दायित्व बोध से संचित नहीं होगा, तब तक विकसित हो जाने पर भी भारत का सार्वजनिक जीवन हमें सच्चा आनंद नहीं दे सकता।
केवल राज्यों के परिवहन निगम द्वारा संचालित परिवहन व्यवस्था अनुचित और बेढंगी नहीं है अपितु न्यूनाधिक मात्रा में देश की हर सार्वजनिक व निजी-सार्वजनिक अनुबंध से संचालित दूसरी व्यवस्थाएं कुप्रबंधन और कुशासन से ग्रस्त हैं। विवेकवान और दायित्व भाव से बंधे नागरिकों के सम्मुख पहले तो अपनी रोजी-रोटी कमाने की चिंता है। जीवनभर वह इस चिंता बोझ से असुरक्षित बना रहता है। ऐसे में यदि वह नागरिक व्यवस्थाओं व सेवाओं में होने वाली असुविधाओं और अवैध गतिविधियों के प्रति व्यक्तिगत या सामुदायिक रूप में मुखर होता भी है तो उसे अपने जैसे अधिक लोगों का सहयोग नहीं मिल पाता। इस प्रकार सभ्य, सुशील नागरिक वैचारिक रूप में भी जनसुविधाओं के प्रति स्थिर नहीं हो पाते और अधिसंख्य नागरिकों के अनुत्तरदायी व्यवहार तथा सार्वजनिक सुविधाओं की व्यवस्था संभालने वाले सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के कारण लचर सार्वजनिक व्यवस्थाएं ज्यों की त्यों पड़ी रहती हैं। इन समस्याओं के निराकरण पर विचार करते हुए हमारे कर्ताधर्ताओं को यह विचार-बिंदु अपने अंतर्मन में स्थापित करना होगा कि असभ्य अति जनसंख्या कभी भी राष्ट्र के समुचित व संतुलित विकास के लिए उपयोगी नहीं हो सकती। सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था हो या देश में परिचालित अन्य अनेक सार्वजनिक व्यवस्थाएं और यहां तक कि निजी क्षेत्र द्वारा संचालित की जाने वाली व्यवस्थाएं, जब तक राष्ट्रीय संपत्तियों व परिसंपत्तियों के प्रति नागरिकों में कर्तव्य बोध नहीं उभरेगा तब तक हर तरह की व्यवस्था विसंगतियों और विद्रूपताओं से ग्रस्त रहेगी।