पिछला बसंत ‘द्रोहकाल’ के नाम कर दिया गया था। जो जेएनयू आजादी, प्रगतिशीलता और उदारता की जमीन का एक पर्याय बन गया था, उसी की चारदिवारी के भीतर अफजल गुरु के बहाने हुए जमावड़े में कथित तौर पर देशद्रोह के नारे लगे और इसके साथ ही इस संस्था को राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में पेश किया जाने लगा। छात्र-नेता कन्हैया कुमार को गिरफ्तार कर लिया गया और मुख्यधारा से लेकर सोशल मीडिया तक पर  राष्ट्रवाद का सर्टिफिकेट मांगना और जारी करना सबसे बड़ा मुद्दा बन गया। उस समूचे प्रसंग की हकीकत शायद अब पूरी तरह कभी सामने नहीं आए। उसके ठीक एक साल बाद अब दूसरा बसंत भी देशभक्ति और उससे जुड़े सवालों से दो-चार है। लेकिन इस बार देशभक्ति और देशद्रोह के सवालों के निशाने पर वह खेमा है, जो पिछले बसंत में देशभक्ति का प्रमाणपत्र जारी कर रहा था। चंद रोज पहले मध्य प्रदेश में भाजपा से जुड़े कुछ जाने-माने चेहरे जब पाकिस्तानी खुफिया महकमे आइएसआइ के लिए जासूसी करने के मामले में पकड़े गए, तो इसी के साथ भाजपा के  राष्ट्रवादका बसंत पतझड़ काल में तब्दील हो गया। इस मसले पर मुख्यधारा के मंचों पर अजीब-सी खामोशी छाई है, लेकिन सोशल मीडिया पर ‘ राष्ट्रवाद के पितामहों’ से सवाल पूछे जाने लगे हैं।

सवाल है कि पिछले कुछ सालों से जो लोग, संगठन या पार्टी लगातार देश से जुड़े जज्बाती सवालों पर देश भर में तूफान खड़ा करते रहे हैं, मामूली बातों के लिए देशभक्ति और देशद्रोह के खांचे में फिट करते रहे हैं, उनका रुख आइएसआइ के न केवल बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद, बल्कि खुद भाजपा के सदस्यों को लेकर इस कदर नरम क्यों है। इस जासूसी और इसके नतीजों के तार उरी और पठानकोट आतंकी हमलों से भी जोड़े जा रहे हैं। इसके बाद भी आरएसएस के मुखिया की खामोशी अब तक नहीं टूटी है।  ध्रुव सक्सेना, मनीष गांधी, मोहित अग्रवाल, बलराम पटेल, ब्रजेश पटेल, राजीव पटेल, कुश पंडित, जितेंद्र ठाकुर, रितेश खुल्लर, जितेंद्र सिंह यादव, त्रिलोक सिंह…। आइएसआइ के लिए जासूसी करने वालों में जो लोग पकड़े गए, ये सब उनके नाम हैं। इसके बाद इसी सिलसिले में और भी लोग पकड़े जा रहे हैं, जिनमें अब बजरंग दल और गोरक्षक दल के युवाओं के नाम शामिल हैं। इन नामों के आलोक में पत्रकार रवीश कुमार ने इसी बिंदु से सवाल किया, ‘फर्ज किया जाए कि इन नामों में कोई मुसलिम व्यक्ति या फिर जेएनयू वाला होता तो’?

वहीं ‘ट्रूथ आॅफ गुजरात’ के प्रतीक सिन्हा ने लिखा, ‘आइएसआइ के लिए जासूसी के आरोप में अपने आइटी सेल के लोगों के हिरासत में लिए जाने के बाद भाजपा ने उनसे नाता तोड़ लिया है। हालांकि यहां और भी चीजें हैं, जिनसे वे पहले भी नाता तोड़ चुके हैं’। इसके साथ ही बताया गया कि  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सबसे पहले नाथूराम गोडसे को खारिज किया। ‘पाञ्चजन्य’ के लेख में दादरी में गाय का मांस रखने के आरोप के कारण मारे गए अखलाक के मामले में कहा गया था, ‘वेदों में गो-हत्या के पापियों को मारने की आज्ञा दी गई है’। संघ ने ‘पाञ्चजन्य’ के इस विचार से भी खुद को अलग किया था। इसके पहले स्वामी असीमानंद को भी संघ खुद से अलग कर चुका है, जिसने यह दावा किया था कि मोहन भागवत इस साजिश से वाकिफ थे कि बम धमाकों में नागरिक लक्षित होंगे और उन्होंने आतंकवादी हमले की इजाजत दी थी और फिर मंगलूर हमलों के आरोपियों से खुद को अलग किया था।
लेकिन किसी बयान या गतिविधि के तूल पकड़ लेने के बाद संघ या भाजपा को माफी मांगने की भी जरूरत नहीं लगती। संघ को पता है कि इस तरह अलग होने की घोषणा औपचारिक है और पहली बार में जब ऐसे बयान जनता तक पहुंच जाते हैं तो उसकी हकीकत जब सामने आती है तो उसे खबर तक नहीं बनने दिया जाता है। वरना क्या वजह है कि अमूमन हर आतंकी हमलों के बाद उसके लिए आइएसआइ को जिम्मेदार बताने वाले संगठन अपने बीच निकले जासूसी के आरोपियों पर कोई तूफान नहीं खड़ा कर रहे हैं। मालेगांव बम विस्फोट के आरोपी रहे दयानंद पांडेय ने पुलिस को दिए अपने बयान में साफ कहा था कि संघ नेता सहित कई लोगों को आइएसआइ धन देती है। इसकी जांच कौन करेगा? मुख्यधारा के मीडिया की चुप्पी पर सवाल हैं। ‘आरोपी’ बनाम ‘अपराधी’ का अंतर इतनी जल्दी कैसे समझ में आ रहा है? दुनिया में कहां का राष्टÑवाद दोहरा चरित्र रखने की इजाजत देता है?

सामाजिक कार्यकर्ता बादल सरोज ने जासूसी कांड में विहिप से जुड़े तार की खबर साझा करते हुए फेसबुक पर लिखा है, ‘पूषण भट्टाचार्य की जिज्ञासा है कि अगर भारत और पाकिस्तान का विलय हो गया और अखंड भारत बन गया तो आइएसआइ का विलय आरएसएस में होगा या आरएसएस का विलय आइएसआइ में?’ मोहन श्रोत्रिय ने फेसबुक पर लिखा, ‘कुछ लोग तो ऐसे होंगे ही, जिन्हें याद होगा कि कभी मोहन भागवत पर आइएसआइ से पैसा लेने के आरोप लगे थे! और तत्कालीन संघप्रमुख सुदर्शन उन्हें उनके पद से हटा देना चाहते थे! …हाल ही में भाजपा, विहिप, बजरंग दल से जुड़े लोगों का आइएसआइ से जुड़े होने का खुलासा इस पुराने घटनाक्रम पर नई रोशनी डालता है’। सोशल मीडिया पर इन प्रतिक्रियाओं को यह मान कर दरकिनार कर देने की कोशिश हो सकती है कि इसका कोई संगठित स्वरूप नहीं है। सवाल है कि आखिर इतने साफ लहजे में लोगों को इस मसले पर अपनी राय सामने रखने का मौका किसने दिया..? राष्टÑवाद, देशभक्ति और देशद्रोह की परिभाषा के दायरे में क्या केवल वे लोग आते हैं जो आरएसएस या भाजपा की राजनीति के बरक्स खड़े हैं?