सरकार ने देश में ई-कॉमर्स को बढ़ावा देने की मंशा से आॅनलाइन कारोबार में सौ फीसद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की छूट देकर डिजिटल इंडिया की अपनी मुहिम को पंख लगाने की कोशिश जरूर की है, पर इस आॅनलाइन बाजार में असली खरीदार की नगण्य उपस्थिति एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। आॅनलाइन कंपनियों के बढ़ते घाटे ने उनके पसीने छुड़ा दिए हैं। इससे इन कंपनियों के भविष्य, हजारों युवाओं के रोजगार और धंधे की नीयत समेत कई सवाल उठ रहे हैं।
एक खुले बाजार की अर्थव्यवस्था के जो फायदे-नुकसान होते हैं, कुछ वैसा ही हिसाब-किताब देश में आॅनलाइन खरीदारी के संबंध में दिख रहा है। कुछ बरस पहले देश में ई-कॉमर्स से जुड़े कारोबार की शुरुआत हुई थी और जल्द ही इसका एक चेहरा आॅनलाइन शॉपिंग के रूप में सामने आया था। तेज होती मोबाइल और इंटरनेट क्रांति ने शुरू-शुरू में आॅनलाइन खरीदारी को पंख लगा दिए, लेकिन बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण बंपर सेल में चार का माल दो रुपए में बेचने की मजबूरी ने इन कंपनियों का घाटा आसमान पर पहुंचा दिया है। पता चला है कि वर्ष 2014-15 में अमेजॉन, फ्लिपकार्ट और स्नैपडील जैसी शीर्ष तीन आॅनलाइन शॉपिंग कंपनियों का सम्मिलित घाटा 5,052 करोड़ रुपए हो गया है। उन्हें यह घाटा अपने ग्राहकों को भारी-भरकम छूट पर सामान बेचने और सामान वापसी के दौरान लाने-ले जाने के खर्च को वहन करने के कारण हुआ है। इससे यह संकट ज्यादा दूर नहीं लगता है कि कहीं अब आॅनलाइन शॉपिंग का यह बुलबुला फूट न जाए। यदि ऐसा हुआ तो इन कंपनियों की बंदी समेत देश में हजारों नौकरियों का नया संकट खड़ा हो जाएगा जो श्रम बाजार की नई समस्या भी पैदा करेगा।
यों तो खुले बाजार की अर्थव्यवस्था में देश और समाज को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि कोई कंपनी खुल कर घाटे के कारण जल्दी ही बंद हो जाए। प्रतिस्पर्धी माहौल में ऐसा होना स्वाभाविक है और बाजार में वही टिकेगा जो ज्यादा भरोसेमंद और मजबूत होगा। लेकिन यह देखते हुए कि फैलते कारोबार के साथ जिस तरह से इन कंपनियों ने ऊंचे वेतन पर हजारों युवाओं को आईटी से लेकर डिलिवरी ब्वॉय जैसे रोजगार दिए हैं, इनका बंद होना एक बड़ी चिंता पैदा कर सकता है।
एक अनुमान है कि देश में फिलहाल एक-सवा करोड़ लोग आॅनलाइन खरीदारी कर रहे हैं और दस करोड़ से ज्यादा लोग ई-शॉपिंग के लिए तैयार हो रहे हैं। देश में पैंतीस से कम उम्र की युवा आबादी इसकी संभावित ग्राहक है जिसे इंटरनेट से लैस स्मार्टफोनों से घर बैठे खरीदारी का तरीका ज्यादा लुभावना लगता है। ट्रैफिक जाम से अटी पड़ी शहरी सड़कों और खराब इंफ्रास्ट्रक्चर की समस्या ने आॅनलाइन कंपनियों के लिए खरीद-बिक्री के अंतहीन मौके पैदा किए हैं। ऐसी कंपनियां बड़े शहरों से निकल कर उन छोटे शहरों में अपने गोदामों तक सामान पहुंचा रही हैं जहां युवा ग्राहकों की कमी नहीं है।
अभी देश में रिटेल स्टोर और शॉपिंग मॉल के जरिये कुल खरीदारी का दस फीसद सामान बिक पा रहा है, बाकी नब्बे फीसद खरीदारी फुटकर दुकानों से ही होती है। ऐसे में आॅनलाइन शॉपिंग कंपनियों का अनुमान है कि तगड़ी विज्ञापनबाजी, रिटेल स्टोर के बराबर या ज्यादा छूट और घर बैठे खरीदारी के विकल्प के चलते इस नब्बे फीसद ग्राहक संख्या में से काफी बड़ा हिस्सा बटोरा जा सकता है। यही वजह है कि अमेजॉन जैसी अमेरिकी आॅनलाइन कंपनी अमेरिका के बाद भारत को अपने दूसरे सबसे बड़े बाजार के रूप में विकसित करने की योजना पर काम कर रही है और कई देशी कंपनियां भी इसी होड़ में हैं।
लेकिन चिंता की बात यह है कि इन आॅनलाइन शॉपिंग वेबसाइटों को अब भी मुनाफा नहीं हो रहा है और इसके लिए निवेशकों का दबाव बढ़ता जा रहा है। भले ही वर्ष 2019 तक आॅनलाइन शॉपिंग का कारोबार करीब सवा अरब (125 मिलियन) ग्राहकों तक पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है। खरीदारों की इतनी भारी तादाद को देखते हुए उन्हें रिझाने के लिए कंपनियां किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं और हाल तक उनका मकसद भारी छूटें देकर इन ग्राहकों को खुद से जोड़े रखना रहा है। लेकिन सवाल है कि क्या अपने घाटे और कारोबार चलाते रहने की मजबूरी के लिए ये ज्यादातर कंपनियां लंबा इंतजार कर सकती हैं?
इस अहम सवाल के जवाब में कुछ आंकड़ों को देखा जा सकता है। कपड़ों और जीवन शैली से जुड़ी वस्तुओं की खरीदारी कराने वाली एक आॅनलाइन शॉपिंग कंपनी (जबांग) से जुड़े कारोबारी आंकड़ों से पता चला है कि 2013 के मुकाबले इस आॅनलाइन रिटेलर की बिक्री 2014 में दोगुनी होकर करीब 811 करोड़ रुपए सालाना तक पहुंच गई। पर विडंबना यह है कि इसी के साथ समान अवधि में उसका घाटा बढ़ कर पांच गुना हो गया। बेचे जाने वाले सामानों पर दी गई छूटों के कारण यह घाटा बत्तीस करोड़ से बढ़ कर एक सौ साठ करोड़ हो गया, जिसे काफी चिंताजनक माना जा रहा है।
साफ है कि बिक्री बढ़ने मात्र से किसी आॅनलाइन शॉपिंग कंपनी की वास्तविक सेहत का अनुमान नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि हो सकता है उसकी बिक्री में यह इजाफा भारी छूट देने की वजह से हुआ हो। घाटा उठा कर सामान बेचने की नीति लंबे अरसे तक नहीं चलाई जा सकती क्योंकि तब यह बहुत मुमकिन है कि जिस देशी-विदेशी निवेश के बल पर ये ग्राहकों को सामान सस्ते में मुहैया करा रही हैं, निवेश के वे सारे स्रोत एक झटके में सूख जाएं। कोई भी निवेशक दिए गए पैसे पर लंबे समय तक घाटा नहीं सहन कर सकता, इसलिए उसका निवेश से हाथ खींच लेना अस्वाभाविक नहीं होगा।
समस्या सिर्फ इन कंपनियों का घाटा नहीं है। ग्राहकों की आदतों में आने वाले परिवर्तन से भी इनकी कमाई पर भारी फर्क पड़ने की संभावना है। इस बारे में कुछ रिसर्च कंपनियों व संगठनों जैसे बेंगलुरु स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज और केपीएमजी आदि ने जो अध्ययन किए हैं, उनमें आॅनलाइन शॉपर्स (खरीदारों) की आदतों में बदलाव की बात कही गई है। जैसे, यह पाया गया है कि वर्ष 2012 में तीन महीने की अवधि के भीतर एक बार आॅनलाइन शॉपिंग करने वालों की तादाद कुल आॅनलाइन खरीदारों का करीब इकहत्तर फीसद थी, जो वर्ष 2014 में बढ़ कर चौरानवे फीसद हो गई।
इस खरीदारी का एक अहम पहलू यह भी रहा कि ज्यादातर ग्राहकों ने ऐसे सामान खरीद लिये थे, जिनकी उन्हें कतई जरूरत नहीं थी। उन्होंने ऐसा सिर्फ इसलिए किया क्योंकि उन्हें वह सामान दी जा रही छूट के कारण बाजार के मुकाबले काफी सस्ता लग रहा था। इससे कंपनियां तो अपना सामान बेचने में सफल रहीं, पर खरीदे गए ऐसे फालतू सामान धीरे-धीरे ग्राहकों को बोझ प्रतीत होने लगे हैं और वे इन कंपनियों द्वारा वापसी की मुफ्त सुविधा का इस्तेमाल करने लगे हैं। ये बदलाव इन कंपनियों पर भारी पड़ रहे हैं। इसलिए वे सामान वापसी की नीति में परिवर्तन कर रही हैं। जैसे, अब वे यह देखने लगी हैं कि वे ग्राहक कौन-से हैं जो खरीदे गए ज्यादातर सामान या तो बदलते हैं या फिर वापस ही कर देते हैं। इन ग्राहकों पर अंकुश लगाने की नीति वे लागू करना चाहती हैं, पर ग्राहक टूटने के भय से अभी वे ऐसा करने से हिचक रही हैं और भारी घाटा सहन कर रही हैं।
लेकिन तय है कि ग्राहक मजे में रहें और कंपनियां घाटा उठाती रहें, यह हमेशा के लिए नहीं चल सकता। ऐसे में या तो लगातार घाटे की मार सहने वाली कई आॅनलाइन शॉपिंग कंपनियां बंद हो जाएंगी या फिर उन्हें आॅफलाइन या आम बाजार या शॉपिंग मॉल्स में दी जाने वाली कीमतों के इर्दगिर्द ही अपना सामान बेचना पड़ेगा। इधर जिस तरह से सरकार के निर्देश के बाद आॅनलाइन और आॅफलाइन बेचे जाने वाले सामानों की कीमत में अंतर खत्म करने की संभावना पैदा हुई है, उससे आॅनलाइन कंपनियों के ग्राहक उजड़ने और उनकी बिक्री पर ग्रहण लग जाने का खतरा पैदा हो गया है जो अंतत: इन कंपनियों के हजारों कर्मचारियों की रोजी-रोटी की समस्या पैदा करेगा।
इसलिए यहां अहम सवाल यह है कि क्या इन कंपनियों को बचाने के लिए सरकार को कोई दखल देना चाहिए, या फिर इस खेल को अपने कायदे खुद तय करने के लिए छोड़ देना चाहिए। उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष दिल्ली विधानसभा चुनावों के वक्त आॅनलाइन शॉपिंग का विरोध करने वाले व्यापारियों के हितों पर विचार करने का आश्वासन अरविंद केजरीवाल ने दिया था। उनका मत था कि दस रुपए का सामान आठ या पांच रुपए में बेचने का मतलब प्रतिस्पर्धा बढ़ाना नहीं, बल्कि प्रतिस्पर्धी माहौल को ही नष्ट करना है। इससे बाजार में किसी एक या चुनिंदा कंपनियों का एकाधिकार (मोनोपोली) स्थापित होता है और आॅफलाइन बाजार समेत छोटी आॅनलाइन कंपनियों का रास्ता भी बंद होता है।
साफ है कि महज एक बटन दबा कर होने वाले इस कारोबार के भविष्य के सामने जो खतरे हैं, वे अनजाने नहीं रह गए हैं। इसलिए अच्छा होगा कि देश में एक स्वस्थ कारोबारी माहौल बने जिसमें ग्राहकों समेत हजारों कर्मचारियों के हितों का भी खयाल रखा जाए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो आॅनलाइन शॉपिंग का बुलबुला अपने फूटने के साथ कई नए संकट खड़े करेगा जिनकी काट बाद में ढूंढ़ना काफी मुश्किल होगा।