विकल्प के नाम पर कोई वैकल्पिक नीति बनाए बिना जातिगत आधार पर गठबंधन हुआ। लेकिन दिल्ली से छोड़े गए राष्ट्रवादी टैंक के गोले ने आपकी पहचानों को ऐसा बिखेरा कि ‘सबॉल्टर्न नेहरू’ कहे गए नीतीश कुमार को अहसास हो गया कि समर्पण नहीं किया तो अंत निश्चित है। जनादेश (सामूहिक) की आवाज भूल कर अंतरात्मा (निज) की आवाज सुनने वाला खोटा डीएनए आज एनडीए की रगों में बह रहा है। पहचान की राजनीति कब आपके सामूहिक को निज में बदल देती है बिहार इसका ताजा उदाहरण है। वहीं, समाजवादी बबुआ के धीरे-धीरे चलते हुए तेजी से संघमार्ग की दिशा पकड़ने का यह पहला मामला भी नहीं है। महज 30 फीसद हिंदुत्व के खिलाफ 70 फीसद विपक्ष को जातीय समीकरण से नहीं जोड़ा जा सकता है। जातिगत समीकरण बिगड़ने पर फासीवाद को कोसने का हासिल सूर्यास्त से लेकर सूर्योदय तक में विकल्प की हार है। एक तरफ सांप्रदायिकता के जरिए धु्रवीकरण की राजनीति तो दूसरे तरफ राष्ट्रवाद के नाम पर विकल्पहीन बहस के बीच मारे जा रहे विकल्प पर इस बार का बेबाक बोल।
2014 के लोकसभा चुनावों के बाद जब नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति के एक नए ब्रांड के रूप में उभरे तो मोदीवाद के अश्वमेध घोड़े को बिहार के महागठबंधन ने ही पकड़ा था। मोदी को कहना पड़ गया था कि नीतीश कुमार के डीएनए में खोट है और जिन लालू यादव की राजनीति को बीते कल की बात मान ली गई थी उनका राजद सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में था। विपक्ष को बचा लेने के कारण, एक नई उम्मीद देने के कारण उस बार बिहार की जय-जयकार थी। लेकिन, जिस गठबंधन (राजग) के खिलाफ आपने चुनाव लड़ा, जनता ने जिस राजनीति को खारिज कर आपके हाथ मजबूत किए आज आप अपनी अंतरात्मा की आवाज पर उसी जनादेश के खिलाफ जाकर हाथ मिला लेते हैं। और, राजनिवास रतजगा क्यों करता है? राजनिवास को सो जाना चाहिए था। सुबह का वक्त जनता के अन्य नुमाइंदों के लिए था, सबसे बड़े राजनीतिक दल के लिए था, उन्हें अपना पक्ष रखने को वक्त देने के लिए था। लेकिन भ्रष्टाचार के नए युवा आरोपी चेहरे से ‘सबॉल्टर्न नेहरू’ का खिताब पाए नीतीश कुमार इतने आहत थे कि वे एक तरह के राजनीतिक भ्रष्टाचार के सरगना से दिखे। तेजस्वी को इस्तीफे के लिए कहने, उन्हें बर्खास्त करने के बजाए आप उनके साथ हाथ मिलाते हैं जिनके खिलाफ जनता ने मतदान किया था। गोवा, मणिपुर में बिहार के बाद चुनाव हुए थे, लेकिन बिहार का हश्र भी इन दोनों राज्यों की तरह हुआ। इसमें आप कांग्रेस और राजद की कमजोरी देख सकते हैं। भ्रष्टाचार के आरोप को भी किसी तरह कमतर नहीं किया जा सकता है। लेकिन क्या यह भ्रष्टाचार के सवाल तक सीमित है?
नीतीश कुमार के इस्तीफा देते ही नरेंद्र मोदी का जिस द्रुतगति से सवा अरब देशवासियों की तरफ से धन्यवाद करता ट्वीट आता है, वह अपने आप में बहुत कुछ कहता है। भ्रष्टाचार की एकरेखीय परिभाषा बनाई जा रही है, जो केंद्र सरकार तय करती है। क्या इन सवा अरब लोगों में देश के दूसरे सबसे बड़े राज्य की बिहार की जनता भी है जिसने महागठबंधन को वोट देकर राष्ट्रीय जनता दल को सबसे बड़ी पार्टी के रूप में चुना था। आखिर, बिहार का विकल्प हमेशा अवसरों की एक खिड़की खुली रखने वाले नीतीश कुमार के अवसरवाद में कैसे विलीन हो गया?
यहां पर अतीतव्यामोह (नॉस्टैल्जिया) में जाया जा सकता है कि बिहार वह जमीन है जहां से विकल्प की उठी आवाज ने संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया था। इसने अपनी जमीन पर आपातकाल को दफ्न किया था और यहीं आडवाणी का रथ रोका गया था। लेकिन यह भी सच है कि जिस विकल्प की शुरुआत की बात हम आपातकाल में बिहार से होने की बात करते हैं, वहीं से हम विकल्प की विचारधारा का विवेचन भी कर सकते हैं।
कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ समाजवादी विचारधारा का जन्म होता है। इसके पहले तक भारत में मार्क्सवाद आ चुका था, और इस विचारधारा पर पश्चिमी होने का आरोप लग चुका था। मार्क्स वाले मार्क्सवाद का भारतीय संस्करण ‘समाजवाद’ तैयार हुआ। तो क्या था यह देसी मार्क्सवाद यानी कि समाजवाद? भारतीय संदर्भ में इसमें सबसे पहले जाति की बात हुई कि यहां यह सबसे बड़ा सत्य है और इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। इसमें देसी अर्थव्यवस्था यानी गांधी का पंचायती राज भी था। और तीसरा अहम तत्त्व था राष्टÑवाद का। इस देसी मार्क्सवादी विचारधारा के कई बड़े नेता हुए और कांग्रेस के विकल्प में इन्होंने जनसंघ के साथ मिलकर सरकार बनाई। यानी समाजवाद के पुरोधा भी विकल्प बनकर संघ और भाजपा के साथ ही गए थे। अन्य समाजवादी नेताओं की बात करें तो जॉर्ज फर्नांडीस अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में रक्षा मंत्री बनते हैं। नीतीश कुमार वाजपेयी की सरकार में रेल मंत्री बनते हैं। ये बिहार में भी भाजपा के साथ सरकार बनाते हैं। मतलब कांग्रेस का विकल्प समाजवादी और समाजवादी चेहरों की भाजपा के साथ साझीदारी बहुत पुरानी है। या फिर यह कहें कि भारतीयता और राष्ट्रवाद के जामे के अंदर भाजपा के साथ समाजवादियों की आवाजाही नई नहीं है। फिर, यह आरोप क्यों कि नीतीश कुमार के डीएनए में खोट है और यह शपथ क्यों कि मिट्टी में मिल जाऊंगा, लेकिन भाजपा के साथ हाथ नहीं मिलाऊंगा?
इस आरोप और शपथ के बीज वाजपेयी बनाम मोदी का चेहरा है। वाजपेयी का चेहरा राष्ट्रवाद से जोड़ा गया था और शुरुआती समय में मोदी का चेहरा सांप्रदायिकता से। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके चेहरे की ब्रांडिंग भी बदली। अब जो भी बात होती है वह सवा अरब भारतीयों की तरफ से होती है और देश के पहरेदार के रूप में होती है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सांप्रदायिकता को पीछे छोड़ा जा चुका है। अब राष्ट्रवाद का चेहरा अटल बिहारी वाजपेयी नहीं नरेंद्र मोदी हैं। इसलिए जो कल वाजपेयी के साथ सरकार बना चुके थे, आज मोदी के साथ सरकार चलाने की शपथ ले चुके हैं।
उत्तर प्रदेश के बाद अब बिहार ने साफ संदेश दिया है कि सांप्रदायिकता के अंदर जो बड़े पूंजीपति घरानों का हमला है उसे आप महज जातीय समीकरण बना कर परास्त नहीं कर सकते हैं। परास्त करना तो उलट हो गया, उसी पहचान को आधार बना लिया गया। पहचान की परतों पर राष्ट्रवाद हावी हो गया। वहीं जातिगत समीकरण खत्म होते ही आप फासीवाद को कोसने लगे।
बिना चुनाव लड़े, विधानसभा में भिड़े सूर्यास्त से सूर्योदय तक में अबकी बार बिहार का नारा पूरा हो गया। विकल्प पर वही विपक्षमुक्त वाला संकल्प हावी हो जाता है और जनता विचारधारा को ही राजनीति का दोषी मानने लगती है। दिल्ली के बाद आज बिहार में भी विकल्प जनता के कठघरे में है कि तुम किसके संकल्प बन गए।
चाहे उत्तर प्रदेश हो या बिहार, बिना वैकल्पिक नीति के विकल्प का नारा ऐसे ही विपक्षमुक्त संकल्प की गलबहियां करने लगता है। गाय और गोबर को छोड़ दें तो आधार से लेकर जीएसटी तक कांग्रेस और भाजपा नीति के स्तर पर कहां अलग दिखती है भला? जीएसटी का विरोध इसलिए कि सरकार ने हड़बड़ी में लागू किया, मतलब कि तैयारी ठीक रहती तो जीएसटी पर कांग्रेस और भाजपा एक। आधार परियोजना की शुरुआत कांग्रेस करती है और भाजपा सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का तोड़ निकाल कर इसे 50 से अधिक सरकारी योजनाओं में अनिवार्य बनाने की कोशिश करती है।
यानी, जब आपकी नीतियों में अंतर नहीं होगा तो सिर्फ एक ही आधार बनता है राजनीतिक लामंबदी का और वह है जातिगत समीकरण। तो आपकी पहचानों में छितराई जाति पर धर्म और राष्ट्र की पहचान हावी कर आपकी पूरी जमीन छीन ली गई। बहुजन, सर्वजन की पहचानें राष्ट्र की एक पहचान में दबकर रह गई। और, पहचान आधारित विकल्प की राजनीति की यही सीमा है कि नीतीश कुमार ने संघर्ष के बजाए समर्पण किया। नीतीश कुमार के पास कोई ठोस राजनीतिक आधार नहीं है। वे लालू यादव के साथ नीतिगत नहीं जातिगत समीकरण से जुड़े थे। वे इस पहचान की राजनीति की सीमा समझ चुके थे कि समर्पण नहीं तो अंत क्योंकि दिल्ली से राष्ट्रवादी टैंक से छोड़ा गया गोला सब पहचानों पर भारी पड़ रहा था और आपके पास नीतिगत आधार नहीं था।
उत्तर प्रदेश के बाद बिहार भी कह रहा है कि अब आप बहुजन और सर्वजन की पहचानों के साथ यह बताएं कि रोजगार और किसान पर आपका विकल्प क्या है? अगर यह नहीं है तो दिल्ली से लेकर बिहार तक विकल्प की क्रांति का संपूर्ण भ्रांति में बदल जाना ही होता है। इस भ्रांति के साथ कोई भी किसी के साथ जुड़ सकता है। कल का खोटा डीएनए आज एनडीए की रगों में बह रहा है और जनता संपूर्ण भ्रांति की शिकार होकर पूछती है कि यह क्या हो रहा है।
विकल्प की राजनीति तभी संभव है जबकि किसानों, कामगारों से लेकर रोजगार तक की आप एक ठोस वैकल्पिक नीति देंगे। तीस फीसद हिंदुत्व के खिलाफ सत्तर फीसद विपक्ष को मात्र जातीय या धार्मिक समीकरण के आधार पर एकजुट नहीं किया सकता है। जातिगत समीकरण बिगड़ने पर ईवीएम, सीबीआइ से लेकर फासीवाद को कोसने के बजाए जनता के बीच पहुंचिए। जनपक्षधरता की नीतियों पर काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है आपकी वापसी के।