जयप्रकाश त्रिपाठी

आधुनिक भागमभाग ने हमारे अतीत की इतनी कुशल और समृद्ध व्यवस्था को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है, जिसका दुष्परिणाम पूरा देश भुगत रहा है। पानी के लिए गांव से शहर तक मारामारी रहती है। जल नीतियों और नियमों के तहत योजना बनाना, विकास, वितरण और जल संसाधनों का अपेक्षित उपयोग करना जल प्रबंधन के लिए आज बहुत जरूरी है।

हमारे देश में औसतन सालाना बरसात से चार हजार अरब घन मीटर पानी आता है, जो ताजे पानी का प्रमुख स्रोत होता है, लेकिन जल संग्रह प्रबंधन के अभाव में ज्यादातर बहकर समुद्र में समा जाता है। बढ़ती आबादी की जरूरतें और तेज आर्थिक गतिविधियां भी पहले से संकट का सामना कर रहे जल स्रोतों पर अतिरिक्त दबाव डाल रही हैं।

देश में बरसाती जल प्रबंधन की दिशा में आज न तो सरकारें, न ही किसान और ग्राम पंचायतें अपेक्षित स्तर पर गंभीर दिखती हैं, जबकि खेती का सारा दारोमदार पानी पर निर्भर होता है। देश में चौबीस लाख से ज्यादा जलस्रोत हैं, जिनमें से शहरी इलाकों में तीन प्रतिशत से भी कम बचे रह गए हैं। सामाजिक असमानताएं, जलवायु में आते बदलाव या बढ़ती शहरी आबादी की तुलना में शहरों में बढ़ते जल संकट के लिए कहीं ज्यादा जिम्मेदार हैं।

भारत के जल शक्ति मंत्रालय की एक ताजा जानकारी के मुताबिक, देश में 55.2 फीसद जल निकाय जैसे तालाब, झीलें, चेक डैम आदि निजी हाथों में हैं। वहीं 44.8 फीसद जल निकाय सार्वजनिक क्षेत्र में हैं, जिन पर ग्राम पंचायतों या राज्य सरकारों का स्वामित्व है। इनमें से करीब 1.6 फीसद (38,496) पर अतिक्रमण हो चुका है। पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा तालाब और जलाशय, आंध्र प्रदेश में सबसे अधिक टैंक, तमिलनाडु में सबसे ज्यादा झीलें हैं, लेकिन जल संरक्षण योजनाओं के मामले में सिर्फ महाराष्ट्र ज्यादा कुशल साबित हो रहा है।

ऐसी स्थिति में केरल का पहला ‘जल बजट’ एक नई मिसाल है। केरल में नदियों, झीलों, तालाबों और जलधाराओं की अच्छी संख्या है, लेकिन राज्य मानसून में अच्छी बारिश के बावजूद गर्मी के मौसम में पानी की समस्या से जूझता है। केरल के ऐसे कई इलाके हैं, जहां हर साल गर्मी के दौरान पानी का संकट खड़ा हो जाता है।

वैसे जल संरक्षण की दिशा में पहल करते हुए हाल ही में भारत सरकार ने भी जलशक्ति योजना शुरू की है, जिसके अंतर्गत किसानों को जल संरक्षण के लिए शिक्षित कर उन्हें बिना जल बर्बाद किए होने वाली आधुनिक सिंचाई तकनीक से लैस करने की योजना है। पूरी तरह जलाशयों पर निर्भर रहने के स्थान पर किसानों को वर्ष भर के लिए जल संरक्षण और सिंचाई में उसके अधिकाधिक उपयोग की तकनीक भी सिखाई जाएगी।

राज्य सरकारें प्राकृतिक जलाशयों जैसे झील, तालाब, कुएं और नदियों का संरक्षण नहीं कर पा रही हैं, जबकि पर्यावरणविदों ने कई बार इन जलाशयों में कम होते जल स्तर के बारे में राज्य सरकारों को चेताया है। यदि इन जलाशयों का सही तरीके से संरक्षण किया जाए तो जल की कमी को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

भूमिगत जलस्रोत इतनी तेजी से खाली हो रहे हैं कि आज पानी के लिए गहरी खुदाई करनी पड़ती है। पारंपरिक साधनों से सूखे की मार और अकाल का खतरा काफी हद तक टल जाता है। भारी सूखे के समय भी किसान सिंचाई कर सकते हैं। पानी कैसे संग्रहित रहना है, उसकी पर्याप्तता कैसे संचित रखनी है, जल संग्रहण के इतिहास को भारत की अनार्य जनजातियों में सबसे महत्त्वपूर्ण द्रविड़ मूल की जनजाति गोंड के राजाओं के शासनकाल से सीखा, जाना जा सकता है।

सिंचाई की व्यवस्था काफी अच्छी होने के कारण गोंड बहुल संबलपुर आज भी खूब उपजाऊ है। इस क्षेत्र के जलाशय अद्भुत तकनीकों की नजीर बने हुए हैं। एक वक्त में गोंडों ने नई सिंचाई परियोजनाएं शुरू करने वालों को खेत उपलब्ध कराए, जिन पर राजस्व नहीं लगता था। गांवों के प्रमुख पुराने जलाशयों के पुनर्निर्माण और नए जलाशयों के निर्माण के लिए कानूनी रूप से बाध्य थे। गोंडवाना की लाखाबाटा प्रणाली खेतों और पानी के स्रोतों पर सामूहिक स्वामित्व को दर्शाती थी। इससे प्राकृतिक साधनों के अच्छे उपयोग में काफी सहायता मिलती थी। समृद्धि अपनी जमीन और जल संसाधनों के व्यवस्थित संचालन पर ही निर्भर करती थी।

उस जमाने में पहली बरसात के बाद ही नहरों, तटबंधों, तालाबों की मरम्मत शुरू हो जाती थी। अधिकांश लोग इसे धार्मिक कार्य जैसी श्रद्धा से करते थे। जो कोई तालाब बनवाता, उसे तालाब से लगी निचली जमीन लगान मुक्त दे दी जाती थी। तालाब निर्माण और रखरखाव के जानकार कोडा लोगों को लगान मुक्त जमीन दी जाती थी।

गोंड शासन वाले इलाकों में सिंचाई की जो मुख्य तकनीकें अपनाई गईं, उन्हें काटा, मुंडा और बंधा कहा जाता था। इसके अंतर्गत हर बांध के सबसे ऊपर से पानी निकलने का एक रास्ता जाता था, जहां से निकलकर वह ऊंचाई पर स्थित तालाब में गिरता या फिर पहले ऊपर और फिर उससे नीचे के खेतों को सींचता नीचे पहुंच जाता था। अगर बारिश सामान्य हो तो सिंचाई की जरूरत नहीं रहती, पानी का रिसाव ही इसके लिए पर्याप्त नमी बनाए रखता था। फिर पानी को नाले से निकाल दिया जाता था। कम बरसात वाले वर्षों में तालाब का बांध बीच से काट दिया जाता, जिससे सबसे नीचे तक की जमीन सींची जा सकती थी।

जल निकासी मार्ग पर बनने वाले छोटे बांध अकेला किसान भी अपने खेत के पास बना सकता था। इससे छोटी-सी जमीन को पर्याप्त पानी मिल जाता था। अगर थोड़ी-बहुत बरसात हुई हो तो इसमें रुका पानी बाद में फसल के काम आता था। चारों तरफ बांध वाला तालाब था और अक्सर नीचे बनता था। इसका निर्माण पेयजल के लिए किया जाता था। सूखे या मुश्किल वाले वर्षों में इनका पानी सिंचाई के काम भी आता था। मानसून के वक्तÞ यह खास खयाल रखा जाता था कि बांध न टूटें। पानी का वितरण गांव के पंच की देखरेख में होता था।

इसी तरह एक वक्त में कालाहांडी में बांधों और तालाबों का आम चलन था। प्राकृतिक साधनों से ही खेती हो जाती थी। सन 1900 के भयंकर अकाल के साल भी इस इलाके में सूखा नहीं पड़ा था। आम प्रथा थी कि जब गांव को किसी प्रधान को सौंपा जाता, तालाबों, बांधों को बनवाने की जिम्मेदारी भी उसी पर डाल दी जाती थी। पानी का बंटवारा पंचायत करती थी।

आधुनिक भागमभाग ने हमारे अतीत की इतनी कुशल और समृद्ध व्यवस्था को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है, जिसका दुष्परिणाम पूरा देश भुगत रहा है। पानी के लिए गांव से शहर तक मारामारी रहती है। जल नीतियों और नियमों के तहत योजना बनाना, विकास, वितरण और जल संसाधनों का अपेक्षित उपयोग करना जल प्रबंधन के लिए आज बहुत जरूरी है।

एक जानकारी के मुताबिक, 2025 तक हमारे देश को पानी के स्तर संबंधी समस्या से जूझना पड़ सकता है। विश्व स्तर पर इकतीस देश पहले से ही पानी की कमी से ग्रस्त हैं और 2025 तक अड़तालीस देश पानी की कमी की गंभीर समस्या का सामना कर रहे होंगे। यूएन की एक रिपोर्ट के अनुसार 2025 तक तकरीबन चार अरब लोग पानी की कमी से जूझ रहे होंगे। तब पानी को लेकर कई तरह के टकराव हो सकते हैं। भारत के करीब बीस प्रमुख शहर बाधित पानी की कमी का सामना कर रहे हैं।

बहरहाल, केरल सरकार ने जल बजट के पहले चरण का विवरण जारी करते हुए कहा है कि राज्य में पानी की उपलब्धता में कमी आई है, इसलिए जल बजट जरूरी हो गया है, ताकि इस बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन का उचित इस्तेमाल हो सके और इसकी बर्बादी पर भी रोक लगे। केरल के जल बजट ने देश को नई राह तो दिखा दी है। अन्य राज्य सरकारों को भी उससे सबक लेते हुए ‘पानी बचाओ’ अभियान के तहत लोगों को जागरूक करना चाहिए।