रंजना मिश्रा

सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों के साथ-साथ, आम लोगों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, तभी हम जल संकट से निपटने में कामयाब हो सकेंगे। कृषि क्षेत्र में पानी के इस्तेमाल को नियंत्रित करने, सिंचाई के आधुनिक तरीके अपनाने, बारिश के पानी को संरक्षित करने और गंदे पानी को दुबारा उपयोग लायक बनाने के उचित प्रयास करने होंगे।

संयुक्त राष्ट्र की विश्व जल विकास रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में हर साल पानी की मांग एक फीसद की दर से बढ़ रही है और अगले दो दशक में यह और बढ़ने वाली है। इस रिपोर्ट के मुताबिक विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में पानी की मांग तेजी से बढ़ेगी। खेती से अधिक औद्योगिक और घरेलू उपयोग के लिए पानी की मांग तेज होगी।

जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया भर के कई शहर बाढ़ और सूखे जैसी समस्याओं का सामना कर रहे हैं। भारत के कई शहरों में इस वक्त भीषण जल संकट है। जो शहर जल संकट का सामना कर रहे हैं, उनमें से अधिकतर नदियों के किनारे ही बसे हैं। दरअसल, यहां की बड़ी आबादी ने इन नदियों के पानी का बेतरतीब तरीके से अधिकतम इस्तेमाल किया है। कई जल स्रोत लगातार सूखते जा रहे हैं।

शोध से पता चला है कि जिस रफ्तार से जंगल खत्म हो रहे हैं, उससे कहीं तीन गुना अधिक रफ्तार से जल के स्रोत सूख रहे हैं। 2018 में आई नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, देश के कई शहरों में जल संकट भयंकर रूप लेता जा रहा है। इस समस्या का सबसे अधिक सामना दिल्ली, बंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद आदि शहरों को करना पड़ेगा।

2030 तक देश के लगभग चालीस फीसद लोगों तक पीने का पानी उपलब्ध नहीं होगा। आशंका जताई जा रही है कि अगले ग्यारह सालों में देश के साठ करोड़ से ज्यादा लोग पीने के पानी को तरसेंगे। विश्व वन्यजीव कोष (डब्लूडब्लूएफ) के एक सर्वे में कहा गया है कि अगले तीस सालों में दुनिया के सौ शहरों में बेहद गंभीर जल संकट होगा।

पिछले दस सालों में भूगर्भीय जल का स्तर चौवन फीसद तक कम हो गया है। देश के पचपन फीसद कुंए तकरीबन सूख चुके हैं। जलवायु परिवर्तन से बढ़ते तापमान के कारण भविष्य में सूखे की समस्या और अधिक गहराने की आशंका है। वैसे हमारे देश की सालाना औसत बारिश 1170 मिलीमीटर है, जो पश्चिमी अमेरिका से लगभग छह गुना ज्यादा है।

इसके बावजूद देश के शहरी इलाकों में करीब नौ करोड़ सत्तर लाख लोग पीने के स्वच्छ पानी से वंचित हैं और ग्रामीण इलाकों में लगभग सत्तर फीसद लोगों को प्रदूषित पानी पीना पड़ रहा है। देश में करीब तैंतीस करोड़ लोग ऐसी जगह रह रहे हैं, जहां हर साल भयंकर सूखा पड़ता है। सूखे से परेशान होकर किसान आत्महत्या कर रहे हैं। हालांकि देश में नदियां तो कई हैं, लेकिन उनमें उपलब्ध पानी की गुणवत्ता बहुत खराब हो चुकी है।

फिलहाल कुल खपत का पचासी फीसद पानी खेती में, दस फीसद उद्योगों और पांच फीसद घरों में इस्तेमाल होता है। 1994 में देश में मीठे जल की उपलब्धता प्रति व्यक्ति छह हजार घन मीटर थी। सन 2000 में यह प्रति व्यक्ति तेईस सौ घन मीटर रह गई। 2025 तक इसकी उपलब्धता घट कर प्रति व्यक्ति मात्र सोलह सौ घन मीटर रहने की आशंका है। देश में बारिश का पैंसठ फीसद पानी बह कर समुद्र में चला जाता है।

चार लाख लीटर पानी रोज गंदे नालों में छोड़ा जाता है। मगर इनमें से महज बीस फीसद दुबारा इस्तेमाल किया जाता है। अगर देश भर में होने वाली कुल बारिश का महज पांच फीसद पानी भी संरक्षित कर लिया जाए, तो साल भर के लिए सौ करोड़ से ज्यादा लोगों की आवश्यकता पूरी हो सकती है। इसके लिए स्थानीय स्तर पर भूजल प्रबंधन संयंत्र स्थापित किए जाने चाहिए, जिससे लोगों को अपने क्षेत्र में भूजल की उपलब्धता के बारे में जानकारी मिलेगी और वे इसका भली प्रकार उपयोग कर सकेंगे।

देश में कई नदियां, तालाब और जलकुंड सूख चुके हैं। इसके चलते कई इलाकों में पानी का स्तर खतरनाक स्तर के नीचे है। जिन नदियों पर बांध बना कर पानी के आजाद बहाव को रोक दिया गया है, उन पर भी खतरा मंडरा रहा है। बांध से रोका गया पानी जिन नहरों में भेजा जा रहा है, उनका अधिकतम उपयोग ताप बिजलीघर, परमाणु बिजलीघर और औद्योगिक इकाइयों में हो रहा है। किसान सिंचाई के लिए गहरे नलकूपों का उपयोग करते हैं। घरेलू तथा औद्योगिक जरूरतों के लिए भी भूगर्भीय जल निकाला जा रहा है।

भूजल का सही ढंग से पुनर्भरण नहीं हो पा रहा, ऊपर से आधुनिक तकनीकों द्वारा धरती से पानी निचोड़ा जा रहा है। इस अंधाधुंध जल दोहन का परिणाम यह हुआ है कि जिन इलाकों में दस साल पहले तक बीस से तीस फीट की गहराई पर पानी मिल जाता था, वहां अब पानी का स्तर सत्तर से सौ फीट गहरे तक चला गया है।

लोग तालाबों और नदियों की जमीन पर अतिक्रमण कर रहे हैं। पानी की बर्बादी को रोकने के ठोस प्रयास नहीं किए जा रहे। इस समय उपलब्ध साफ और स्वच्छ जल भी धीरे-धीरे प्रदूषित होता जा रहा है। इसलिए जल संरक्षण, जल के सही ढंग से इस्तेमाल, जल के पुन: इस्तेमाल और भूजल के पुनर्भरण पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। यूनेस्को की विश्व जल विकास रिपोर्ट 2018 में कहा गया है कि भारत दुनिया में भूजल का सबसे अधिक दोहन करने वाला देश है।

उर्वरकों और कीटनाशकों के अतिशय प्रयोग के कारण जल प्रदूषण बढ़ रहा है। जल शोधन करके पानी को पुन: उपयोग के लायक बनाने का प्रयास होना चाहिए। इसमें नैनो तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है। वर्षा का पचासी फीसद पानी नदियों के रास्ते समुद्र में चला जाता है। पानी की कमी को दूर करने के लिए वर्षा जल संचय और कृत्रिम पुनर्भरण तकनीकों के प्रयोग की जरूरत है। कुओं और नलकूपों की गहराई निश्चित होनी चाहिए।

एक मानक के अनुसार कुओं और नलकूपों की गहराई चार सौ फुट यानी एक सौ बीस मीटर तक ही होनी चाहिए। कृषि कार्यों में सिंचाई के लिए बूंद और फव्वारा प्रणालियों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। कृत्रिम रिचार्ज तकनीक अपना कर पहाड़ी क्षेत्रों में भूजल के स्तर को ठीक किया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में इस तकनीक द्वारा बेकार हो रहे पानी को बचा कर भूजल स्तर को बढ़ाया जा सकता है।

जल संकट से बचने के लिए प्रभावी जल प्रबंधन के साथ-साथ, पानी के दुरुपयोग को रोकने के लिए गंभीरता से कदम उठाने की जरूरत है। सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों के साथ-साथ, आम लोगों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, तभी हम जल संकट से निपटने में कामयाब हो सकेंगे। कृषि क्षेत्र में पानी के इस्तेमाल को नियंत्रित करने, सिंचाई के आधुनिक तरीके अपनाने, बारिश के पानी को संरक्षित करने और गंदे पानी को दुबारा उपयोग लायक बनाने के उचित प्रयास करने होंगे। साथ ही भूमिगत जल को प्रदूषण से बचाने पर भी ध्यान देना होगा।

जल संचयन के लिए तकनीकों और नवाचारों के साथ-साथ हमें भारत की परंपरागत ज्ञान प्रणाली को भी अपनाना चाहिए। पहले कुएं, तालाब, झीलें, पोखर आदि में वर्षा का जल पर्याप्त मात्रा में संचित हो जाता था। हमें फिर से उस परंपरा को शुरू करना होगा, ताकि जलाशयों में इसका पुनर्भरण और संचयन किया जा सके। वर्षा आधारित खेती, प्राकृतिक खेती के साथ-साथ सूखारोधी बीजों के चलन को भी बढ़ावा देना चाहिए। रसायनों और की टनाशकों का कम से कम उपयोग किया जाना चाहिए, जिससे जल प्रदूषित होने से रोका जा सके। जल स्रोतों को जीवाणु रहित बनाने की भी व्यवस्था होनी चाहिए। जल का पुनर्चक्रण बहुत जरूरी है।