अल्पना सिंह
भारत एक बहु भाषा-भाषी देश है जहां चार सौ से भी अधिक भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन सबसे ज्यादा बोली व समझी जाने वाली भाषा हिंदी ही है। यहां लगभग इकतालीस प्रतिशत लोग हिंदी में कार्य-व्यवहार करते हैं। हिंदी ने ही भारतीय दर्शन, चिंतन, अध्यात्म और भारतीय धरोहर को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई। किसी भी देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने में भाषा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कहा जाता है कि भाषा संस्कृति के दर्पण के समान है जिसमें संस्कृति की स्पष्ट झलक देखी जा सकती है। भाषा किसी भी समाज की सभ्यता, संस्कृति व मानव की जातीय पहचान होती है। भाषा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा कोई भी समाज अपनी संस्कृति और अस्मिता को सुरक्षित रख पाता है। यही कारण रहा है कि भाषा ही सबसे पहले अस्मिताओं व संस्कृतियों के टकरावों का शिकार हुई है। हिंदी भी इसका अपवाद नहीं है। उसे कभी राजनीतिक अवसरवादियों ने अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना चाहा तो कभी कुछ अन्य असामाजिक और शरारती तत्त्वों ने अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए उसका दुरुपयोग करना चाहा।
आज हिंदी के प्रति जिस तरह से दक्षिण प्रांतीय और मराठी समर्थक अपने भाव प्रदर्शित कर रहे हैं वह किसी भी दृष्टि से जायज नहीं कहा जा सकता। इतिहास गवाह है इस बात का कि हिंदी भाषा को लेकर कभी इन प्रांतों में वैमनस्य था ही नहीं। आज से सैकड़ों वर्षों पूर्व दक्षिण के आचार्यों ने हिंदी को अपनाकर जन-जन तक अपनी बात पहुंचाई। वल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य, रामानंद आदि ने इसके राष्ट्रीय महत्त्व को समझा और इसे व्यवहार में लाए। इतिहास के पन्नों को पलटने पर पता चलता है कि तंजौर के भोसलवंशीय शाहजी महाराज (1684-1712), केरल के तिरुवनंतपुरम के राजा स्वाति तिरुनाल श्रीराम वर्मा (1813) उस समय हिंदी में गीत रचना करते थे। विजयनगर के दरबार में भी हिंदी को विशेष सम्मान मिला हुआ था। अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा आदि अलग-अलग स्थापित नवीन राज्यों के केंद्र में भी दक्खिनी हिंदी का ही प्रभुत्व था। मछलीपट्टम के नदेल्ल पुरुसोत्तम कवि द्वारा बत्तीस नाटकों की रचना की बात भी सामने आती है।
ओड़िशा के चैतन्य महाप्रभु ने हिंदी बहुला बृजबुलि का प्रयोग किया। तब से अब तक ओड़िशा में अनेक लेखक सामने आए हैं जिनकी गद्य और पद्य रचनाएं हिंदी में उपलब्ध हैं। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार तमिलनाडु में हिंदी को लेकर जो विरोध होता रहता है उसका प्रारंभ 1937 में ही हो गया था जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की सरकार ने मद्रास प्रांत में हिंदी को लाने का समर्थन किया था, पर द्रमुक (डीएमके) ने उनका विरोध किया था। तब के हिंसक विरोध व झड़पों में दो लोगों की मृत्यु भी हो गई थी। फिर 1964 में, दूसरी बार जब हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश की गई तो एक बार फिर गैर-हिंदी राज्य आपे से बाहर हो गए।
सन 1967 के चुनाव में द्रमुक के जीतने का एक प्रमुख कारण हिंदी-विरोध भी था। इस दल ने हिंदी को राजभाषा बनाए जाने का जबर्दस्त विरोध किया और यह तक प्रचारित किया कि अगर हिंदी का वर्चस्व हुआ तो तमिल भाषा का अस्तित्व मिट जाएगा। इसी कारण सत्ता में आते ही उन्होंने आम जनता की रुचि हिंदी में होने के बावजूद स्कूलों में हिंदी शिक्षण बंद करा दिया। सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात तो यह है कि तमिलनाडु में हिंदी का विरोध कर उसे राजनीतिक मुद््दा बनाया जाता है। इसके पीछे तमिल की उतनी नहीं जितनी अंग्रेजी की चिंता है।
यह वही तमिल प्रदेश है जहां राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के समय महात्मा गांधी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के लिए आंदोलन का प्रारंभ किया था। गांधीजी गुजरात से थे।
उनकी मातृभाषा हिंदी नहीं गुजराती थी। फिर भी उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का समर्थन किया क्योंकि वे जानते थे कि हिंदी जन-जन की भाषा है। गांधीजी यह बात भली-भांति जानते थे कि तमिलनाडु में हिंदी का विरोध राजनीतिक कारणों से था, इसलिए दूरदर्शिता का परिचय देते हुए उन्होंने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण को चुना और 1918 में ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ की स्थापना की। हिंदी को संविधान में राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाने में गोपाल स्वामी आयंगर का प्रयास भी सर्वविदित है। यह भी प्रसिद्ध है कि कलकत्ता में स्वामी दयानंद सरस्वती संस्कृत में व्याख्यान दे रहे थे तब केशवचंद्र सेन ने उनसे आग्रह किया कि वे हिंदी में व्याख्यान दें जिससे उनकी बात सबकी समझ में आए। इससे बंगाल में हिंदी की स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
समय-समय पर इस प्रकार के क्षेत्रीय विवाद सामने आते रहे हैं। ओड़िशा के एक विधायक को विधानसभाध्यक्ष द्वारा यह कर बोलने से रोक देना कि ‘ओड़िया भाषा के विकल्प के रूप में अंग्रेजी स्वीकार्य है लेकिन हिंदी नहीं’ दुर्भाग्यपूर्ण है। इसी प्रकार केरल का उदाहरण भी सामने है जहां जैसे ही मातृभाषा मलयालम को शिक्षा का माध्यम बनाया गया, साल भर में ही इसका परिणाम यह हुआ कि प्राइमरी स्कूलों में लगभग सवा दो लाख दाखिले कम हुए, क्योंकि अधिकतर अभिभावक अपने बच्चों को मातृभाषा के ज्ञान तक सीमित नहीं रखना चाहते थे।
महाराष्ट्र का इतिहास भी इस बात की पुष्टि करता है कि भाषा के प्रति उनमें कभी कट्टरता नहीं रही। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम आदि की रचनाएं आज भी हिंदी के पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं।
मराठों की आन, बान और शान शिवाजी के दरबार में भी हिंदी को विशेष स्थान प्राप्त था। यहां तक कि उनके पुत्र सम्भाजी तो स्वयं हिंदी के श्रेष्ठ कवि थे। महाराष्ट्र में अठारहवीं सदी में पेशवा, सिंधिया, होलकर आदि मराठी राजघराने अपना राजकार्य हिंदी में ही करते थे। हमें याद रखना चाहिए कि रानाडे महाराष्ट्र के ही थे और महाराष्ट्र के ही सिरमौर बाल गंगाधर तिलक ने भारतवासियों से हिंदी सीखने का आह्वान करते हुए कहा था- ‘राष्ट्र के संगठन के लिए आज ऐसी भाषा की आवश्यकता है जिसे सर्वत्र समझा जा सके। किसी जाति को निकट लाने के लिए भाषा का होना महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।’ इसके साथ ही यह बात भूलनी नहीं चाहिए कि भारतीय हिंदी फिल्म उद्योग का गढ़ भी मुंबई ही है।
पूर्वी प्रदेशों (असम, मेघालय, त्रिपुरा, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, नगालैंड, सिक्किम, मणिपुर) की बात करें तो ये प्रदेश भी भाषाई दृष्टि से एकसूत्र में बंधे हुए थे और इनमें कोई बहुत बड़ा विभेद नहीं था। सातवीं शताब्दी के अंत से लेकर ग्यारहवीं-बारहवीं शती तक सिद्धाचार्यों का व्यापक प्रभाव पूर्वोत्तर क्षेत्रों में रहा। इन सिद्ध आचार्यों ने मात्र भाषा व साहित्य को नहीं बल्कि अपने समय के समाज, संस्कृति व धर्म को भी प्रभावित किया।
ये सिद्धाचार्य जिस भाषा का प्रयोग कर रहे थे वह हिंदी का प्रारंभिक रूप थी। शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य आदि उत्तर भारत के लिए भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जितने दक्षिण भारत के लिए। विद्यापति के पदों ने जितना बंगाल, असम और ओड़िशा के भक्ति साहित्य को समृद्ध किया उतना ही हिंदी के भक्ति साहित्य को भी। गोरखनाथ, जलंधरनाथ, बालानाथ आदि भी पंजाब से गहरा संबंध रखते हैं, फिर भी पंजाबी से अधिक ऊंचा स्थान इनका हिंदी में है। मीरा के भजनों का जो स्थान गुजराती व राजस्थानी में है हिंदी में उससे कुछ कम तो नहीं है। गुरुग्रंथ साहिब में मराठी के कवि नामदेव के भी पद संकलित होना भाषाई एकता का ही प्रतीक है। हिंदी का साहित्य भी इस दृष्टि से उतना ही समृद्ध है जितना भाषा की दृष्टि से।
अपने प्रांत की भाषा या मातृभाषा का प्रचार-प्रसार करना अच्छा है लेकिन इसके लिए दूसरी भाषा का विरोध करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं। राजनीतिक स्वार्थसिद्धि के लिए ही हिंदी का विरोध किया जाता है। हर भाषा का अपना अलग अस्तित्व है और अलग महत्त्व भी, लेकिन जब हम राष्ट्रीय स्तर पर किसी एक भाषा की बात करते हैं तो वह हिंदी ही है। हिंदी न केवल भावात्मक रूप से हमें परस्पर जोड़ती है बल्कि संपूर्ण देशवासियों को एकता के सूत्र में भी बांधती है।
यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि हिंदी मात्र एक भाषा नहीं बल्कि विविध बोलियों का समुच्चय है और ये बोलियां किसी एक क्षेत्र विशेष, स्थान विशेष या राज्य विशेष से नहीं ली गई हैं, बल्कि ये तो विभिन्न प्रांतों से आई हैं जिन्हें हिंदी ने बिना किसी भेदभाव के अपने में समाहित कर लिया है। इसी कारण यह बहुक्षेत्रीय भाषा कही जाती है। वर्तमान समय में यह दिल्ली, राजस्थान, बिहार, हरियाणा, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की राजभाषा होने के साथ ही पूरे देश में सबसे ज्यादा बोली व समझी जाने वाली भाषा है।
यह तो कुछ क्षेत्र विशेष का एक विहंगावलोकन मात्र है। देश की एकता व अखंडता को जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि के आधारों पर दरकाने का प्रयत्न न करके देश के प्रत्येक नागरिक को उसे बनाए रखने में अपना सहयोग देना होगा। कहा जाता है कि किसी सभ्यता को खत्म करने के लिए वर्चस्ववादी शक्तियों ने हमेशा वहां की भाषा को ही अपना निशाना बनाया है। बाबलनगर (बेबीलोन) की मीनार और उनकी जाति के नाश से समय रहते ही सबक ले लिया जाना चाहिए। भारतीय संदर्भों में बात करें तो यहां हिंदी मात्र भाषा नहीं है बल्कि यह हमारे जातीय गौरव का प्रतीक है। अत: अपने जातीय गौरव को बचाने के लिए हमें सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए।