संतोष मेहरोत्रा

शिक्षित बेरोजगारी की स्थिति भयावह हो गई है, क्योंकि युवाओं को बेहतर शिक्षा मिल रही है और वे कृषि की जगह उद्योगों और सेवा क्षेत्र में नौकरी करना चाहते हैं। यह नतीजा श्रम ब्यूरो के सालाना सर्वे के आकलन में सामने आया। इसमें ग्रामीण और शहरी, संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों के रोजगार शामिल हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इसमें ईपीएफओ / एनपीएस (संगठित) के साथ-साथ ऐसे रोजगार भी हैं, जो मुद्रा लोन या दूसरे उपायों से पैदा हो सकते हैं। बाद के दोनों स्रोत ठीक वही हैं, जिन्हें लेकर सरकार का ठीक-ठीक यही दावा है कि रोजगार के जो आंकड़े हैं, उसमें इन दोनों को शामिल नहीं किया गया है। सरकार का दावा है कि रोजगार को लेकर पर्याप्त ‘अच्छे’ आंकड़े नहीं हैं। लेकिन सरकार के इस दावे को बिल्कुल नहीं माना जा सकता है।

एनएसएसओ के ताजा श्रम बल (लेबर फोर्स) सर्वे (पीएलएफएस 2017-18) के हालिया आंकड़ों में रोजगार / बेरोजगारी की उसी प्रश्नावली और परिभाषा का उपयोग किया गया है, जो एनएसएसओ के पहले के सर्वे में होते थे। एनएसएसओ के 2017-18 के आंकड़ों से साफ है कि वास्तव में रोजगार की स्थिति और भी विकट रही। 2011-12 के बाद खुली बेरोजगारी यानी ऐसी स्थिति जब लोगों के पास करने के लिए कोई काम न हो, की दर बढ़ी है। आंकड़ों से पता चलता है कि 1973-74 और 2011-12 के बीच खुली बेरोजगारी दर कभी भी 2.6 फीसद से अधिक नहीं थी। अब 2017-18 में यह बढ़ कर 6.1 फीसद हो गई। यह बिल्कुल आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि देश में पिछले दस-बारह वर्षों में अधिक-से-अधिक युवा शिक्षित हुए हैं। इस अवधि में उच्च शिक्षा में नामांकन दर (18-23 वर्ष के लिए) 2006 की ग्यारह फीसद से बढ़ कर 2016 में छब्बीस फीसद हो गई।

पंद्रह से सोलह वर्ष के बच्चों की सकल माध्यमिक (कक्षा नौ और दस के लिए) नामांकन दर 2010 में अट्ठावन फीसद से बढ़ कर 2016 में नब्बे फीसद हो गई। ऐसे युवा खेती के बजाय शहरों में किसी उद्योग या सेवा क्षेत्र में नियमित नौकरी की उम्मीद करते हैं। अगर उनके पास इस स्तर तक की शिक्षा हासिल करने के वित्तीय साधन हैं, तो वे बेरोजगार रहने का जोखिम भी उठा सकते हैं। गरीब लोग जो बहुत कम पढ़े-लिखे हैं, उनके पास ऐसी बेरोजगारी को झेलने की क्षमता और कम होती है। यही वजह है कि उनकी बेरोजगारी की दर कम है।

हालिया आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि जैसे-जैसे खुली बेरोजगारी दर बढ़ती है, तो श्रम बल से बाहर होने वाले अधिक लोग निराश होते जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वे काम की तलाश बंद कर देते हैं। भले ही उनकी उम्र (पंद्रह साल से अधिक) काम करने की होती है। इसीलिए सभी उम्र के लोगों के श्रम बल की भागीदारी दर 2004-05 में 43 फीसद से घट कर 2011-12 में 39.5 फीसद और 2017-18 में 36.9 फीसद हो गई थी। इन सबके बीच सरकार के अर्थशास्त्रियों की ओर से बार-बार कहा जाता है कि रोजगार को लेकर कोई संकट नहीं है। हाल तक प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के एक सदस्य ने भी अपने रोजगार आकलन के आधार पर दोहराया था कि रोजगार की धीमी वृद्धि के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है।

वर्ष 2011-12 तक खुली बेरोजगारी का आंकड़ा लगभग एक करोड़ था, लेकिन 2015-16 तक यह बढ़ कर 1.65 करोड़ हो गया। 2011-12 के बाद इसमें वृद्धि से पता चलता है कि इस अवधि से पहले जो लोग स्कूली शिक्षा हासिल कर रहे हैं, वे गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार की तलाश करेंगे, लेकिन रोजगार नहीं मिलेगा। हालिया आंकड़ों से पता चलता है कि 2017-18 तक यह स्थिति और बदतर हो गई। इससे भी बदतर स्थिति यह है कि इससे शिक्षितों की बेरोजगारी दर में तेज वृद्धि (वार्षिक सर्वे, श्रम ब्यूरो के अनुमानों के आधार पर) का पता चलता है।

माध्यमिक शिक्षा हासिल करने वालों की बेरोजगारी दर 2011-12 में 0.6 फीसद से बढ़ कर 2016 में 2.4 फीसद हो गई। इसी अवधि में दसवीं की शिक्षा हासिल करने वालों की बेरोजगारी दर 1.3 फीसद से 3.2 फीसद, बारहवीं पास की दो फीसद से 4.4 फीसद, स्नातकों की 4.1 फीसद से बढ़ कर 8.4 फीसद और स्नातकोत्तर की बेरोजगारी दर 5.3 फीसद से बढ़ कर 8.5 फीसद हो गई। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि तकनीकी शिक्षा हासिल करने वाले स्नातकों की बेरोजगारी दर 6.9 से 11 फीसद, स्नातकोत्तरों की 5.7 फीसद से 7.7 फीसद और व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षितों की 4.9 फीसद से बढ़ कर 7.9 फीसद हो गई। यानी आप जितना अधिक शिक्षित हैं, उतना ही बेरोजगार रहने की संभावना है।

भारत के आर्थिक इतिहास में 2004-05 और 2011-12 के दौरान कृषि में श्रमिकों की संख्या में तेजी से गिरावट आई थी। इसी तरह कृषि क्षेत्र में काम करने वाले युवाओं की संख्या 2004-05 और 2011-12 के बीच गिर कर 8.68 करोड़ से 6.09 करोड़ (या 30 लाख प्रति वर्ष की दर) हो गई। हालांकि, 2012 के बाद 2015-16 तक कृषि में युवाओं की संख्या बढ़ कर 8.48 करोड़ हो गई और यहां तक कि उससे ज्यादा बढ़ गई। हम विकास के जिस दौर में हैं, वैसे में भारत के लिए वास्तव में जो मायने रखता है वह है, गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार में वृद्धि। 2004-05 से 2011-12 के बीच 5.12 करोड़ गैर कृषि रोजगार सृजित हुए, जो बहुत सराहनीय और आशाजनक भी है। जबकि इसके विपरीत, 2012 के बाद 2016-17 तक गैर-कृषि रोजगार केवल 12 लाख प्रतिवर्ष (या कुल 48 लाख) ही सृजित हुए।

सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) क्षेत्र में रोजगार 2011-12 में 5.89 करोड़ से घट कर 2015-16 में 4.83 करोड़ हो गए, यानी चार साल की अवधि में 1.6 करोड़ से अधिक रोजगार कम हो गए। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आइआइपी) में वृद्धि लगातार धीमी बनी हुई है। विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार में गिरावट भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट का संकेत है।  ऐसे युवा (15-29 आयु वर्ग) जो ‘रोजगार, शिक्षा और प्रशिक्षण (एनईईटी)’ में शामिल नहीं हैं, उनकी संख्या 2004-05 में सात करोड़ थी। 2011-12 तक इसमें बीस लाख सालाना के हिसाब से वृद्धि हुई थी। लेकिन दुख की बात है कि इसके बाद 2015-16 तक इसमें पचास लाख प्रति वर्ष के हिसाब से वृद्धि हो रही थी। अगर बाद वाला रुझान जारी रहा (जैसा कि इसके प्रमाण हैं) तो हमारा अनुमान है कि 2017-18 में बढ़ कर यह 11.56 करोड़ हो जाएगा। ये आंकड़े एनईईटी और बेरोजगार युवा भविष्य की श्रम शक्ति को दर्शाते हैं जिसका उपयोग देश के मानव संसाधन विकास को बढ़ाने के लिए किया जा सकता है।

रोजगार की कमी एक वास्तविक संकट है। इसके अलावा, एनईईटी की संख्या सिर्फ चार वर्षों (2011-12 से 2015-16) में ही दो करोड़ से अधिक बढ़ गई है। साथ ही, श्रम शक्ति में वास्तविक वृद्धि एक करोड़ हुई है। सन 2000 से 2012 के बीच भारत में पचहत्तर लाख रोजगार सृजित हुए थे। अगर हम सही-सही नीतियों पर अमल करें तो आज भी अर्थव्यवस्था उतने ही रोजगार पैदा कर सकती है। चार वर्षों में हर साल कम से कम पचहत्तर लाख नए गैर-कृषि रोजगार सृजित करने चाहिए थे, लेकिन इसने केवल बाईस लाख रोजगार सृजित किए। इसमें कृषि छोड़ने के इच्छुक कृषि श्रमिकों के लिए जरूरी गैर-कृषि रोजगार शामिल नहीं हैं। अगर सरकार रोजगार की समस्या को समझने को तैयार नहीं है, तो इसके समाधान के लिए कुछ करने की शायद ही कोई संभावना है।