विष्णु नागर

हमारी पीढ़ी ने निराश करने वाले, मगर फिर भी आज से कहीं ज्यादा आशाजनक समय में शुरुआत की थी। इंदिरा युग की कांग्रेस की उस जमाने में हम सबने घोर आलोचना की- पत्रकार-लेखक की हैसियत से। पीवी नरसिंह राव के आने तक तो लगने लगा था कि कांग्रेस अपने जड़मूल से उखड़ चुकी है। जो प्रधानमंत्री बाबरी मस्जिद गिराए जाने की सबसे विध्वंसक घटना को चैन से देखता रहा, जिसने उन तथाकथित आर्थिक सुधारों की शुरुआत की, जिसके बाद बढ़ी भयानक आर्थिक असमानता के तथ्य को आर्थिक सुधारवादी भी आज स्वीकार करते हों (मगर आसानी से उसे पचाना सीख गए हों) उस कांग्रेस से रहा-सहा मोह भी खत्म हो गया। हम जैसे तमाम लोग ऐसी कांग्रेस के पतन से कतई दुखी नहीं हैं, जिसके अंतिम बादशाह मनमोहन सिंह हैं, जिन्हें अपने करिअर से मतलब था, पार्टी और देश के लोगों से नहीं। राहुल गांधी की तो बात ही क्या करना, उनका इतिहास बने बगैर इतिहास हो जाना न्यायसंगत लगता है!

कांग्रेस की ही बात क्यों, बाकी विपक्ष के भी बड़े हिस्से का क्या हाल है? जिस पिछड़ावाद का राजनीति में उदय तब एक स्वागतयोग्य घटना लगती थी, उसने अंतत: यह स्थिति ला दी है कि उसे भाजपाई हिंदुत्ववाद चुनौती देने की स्थिति में आ चुका है, पिछले लोकसभा चुनाव में दे भी चुका है। पिछड़ावादी नेताओं द्वारा जनता परिवार के नाम पर फिर से एक ताकतवर राजनीतिक समूह बनने की संभावना भी अब क्षीण लगती है और ऐसा कोई नाटक हुआ तो बहुत चलने वाला नहीं है।

उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी का उभार एक असाधारण घटना थी। लगता था कि यह उभार अन्य हिंदी प्रदेशों में भी फैलेगा और उत्तर भारत की राजनीति का नक्शा बदल जाएगा। मगर मायावती ने इस दलित उभार का सामयिक राजनीतिक लाभ उठाने के अलावा कुछ नहीं किया। इसलिए आज उनकी पार्टी का भविष्य भी उज्ज्वल दिखाई नहीं देता। वामपंथ अपने उतार पर है और देश की तमाम प्रगतिशील ताकतों की आशा का केंद्र रहे ये दल अब हिंदुत्ववाद के लिए जगह खाली करते नजर आ रहे हैं। उनके संभलने के लक्षण नजर नहीं आ रहे!

इस समय लोग भाजपा के विकल्प के रूप में आम आदमी पार्टी को जरूर देख रहे हैं, जो दिल्ली का विधानसभा चुनाव जीतती दीख रही है और जो कुल मिला कर नेहरू युग के उदार मूल्यों में विश्वास करती लगती है। मगर वह अभी एक क्षेत्रीय पार्टी है, जिसके टूटने-बिखरने में भाजपा-कांग्रेस आदि के अपने दीर्घकालीन हित हैं और वे पूरी कोशिश करेंगी कि यह पार्टी किसी तरह खत्म हो जाए, ताकि राजनीति का खेल इन दोनों दलों के बीच अनंत काल तक चलता रहे। यह संभव होगा या नहीं, यह बहुत कुछ दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजों पर निर्भर करेगा, लेकिन यह भी कुल मिलाकर विचारधारा विहीन है या कहें कि फौरी तौर पर अलग-अलग मुद्दों पर फुटकर ढंग से सोचने वाली पार्टी है। हालांकि नाउम्मीदी के इस दौर में कोई पार्टी उम्मीद पैदा करने की हैसियत रखती है, गरीबों के हक में दिख रही है, बाकी वर्गों को साथ लेते हुए तो यही उसकी सबसे बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।

भाजपा और संघ परिवार ने पिछले दो दशकों में राजनीतिक-आर्थिक ही नहीं, सामाजिक विमर्श को आज जहां पहुंचा दिया है, वहां से वापसी का रास्ता बहुत कठिन है, भले चुनावी राजनीति विपक्ष को निकट भविष्य में सांस लेने की कुछ जगह दे दे। राम जन्मभूमि आंदोलन के बाद से सामाजिक विमर्श भी धीरे-धीरे वहां पहुंच गया है, जहां अंधविश्वास, झूठ, लूट, बड़बोलापन और हर तरह का अपराध क्षम्य माना जाने लगा है। जहां सामाजिक रूप से सबसे प्रतिगामी ताकतें पूरा राजनीतिक-सामाजिक एजेंडा तय करने लगी हैं, जहां अल्पसंख्यक हमेशा निशाने पर हैं, जहां आडंबर ही धर्म का रूप ले चुका है, जहां घृणाओं का पूरा शास्त्र विकसित कर दिया गया है, जहां फर्जी नेता और फर्जी मुद्दे लगभग पूरी तरह असली मुद्दों पर छा चुके हैं और जहां विकास का मतलब सिर्फ लोगों की लूट को आसान बनाना है।

इसके बावजूद 2019 में हो सकता है कि भाजपा की जगह किसी और दल या गठबंधन की सरकार बने। हो सकता है, लोगों की निराशा इस सरकार से तब तक अपने चरम पर पहुंच जाए- जिसके लक्षण अभी से दीखने लगे हैं- और हो सकता है भाजपा में मोदी की हैसियत लगभग वही हो जाए, जो उन्होंने आज आडवाणी की बना दी है। लेकिन क्या इससे मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक विमर्श बदल जाएगा? हो सकता है यह विमर्श अपनी वर्तमान हैसियत कुछ हद तक खो दे, क्योंकि तब उसे आज की तरह राजकीय समर्थन खुलेआम नहीं मिल रहा होगा, मगर क्या इतने से स्थितियां बदलेंगी?

जो विमर्श लंबे समय से समाज के एक प्रभावशाली तबके के भीतर जगह बना चुका है, जिसे जगह बनाने दी गई, उसकी जगह एक अलग राजनीतिक पार्टी या पार्टियों का गठबंधन सत्ता में आकर आसानी से ले पाएगा?

क्या ऐसा लगता है कि हमारे आज के राजनीतिक दल पूरे राजनीतिक-सामाजिक विमर्श को बदलने में कोई दिलचस्पी रखते हैं? उसका साहस है उनमें, उसकी जरूरत वे महसूस करते हैं, उनके पास कोई सच्चा विकल्प है या कम से कम उस विमर्श में नई स्फूर्ति लाने का बौद्धिक और कार्यात्मक हौसला है?

आजादी के बाद के दशकों में राजनीतिक विमर्श को बदलने का उत्साह छोटे-बड़े सभी राजनीतिक दलों में होता था, कहां बचा है वह? उसके लिए पार्टी के स्तर पर जो बौद्धिक-सामाजिक जागरूकता चाहिए, उसके प्रति जो संवेदनशीलता चाहिए, वह कहां है? व्यापक दीर्घकालिक राजनीतिक समाज दृष्टि की जरूरत कोई दल क्या महसूस करता है?

सच तो यह है कि जो दल कभी इस तरह के एजेंडे को लेकर चलते भी थे, वे बदल चुके हैं। जमीनी स्तर पर गुंडई है, तो बौद्धिक-वैचारिक स्तर पर एक किस्म की राजनीतिक बौद्धिक भीरुता का वातावरण। इसमें बुद्धिजीवी माने जाने वाले समुदाय का बड़ा हिस्सा भी शामिल है, जो मौजूदा राजनीतिक सत्ता और विचार से पंगा लेना नहीं चाहता और गोलमोल बात करने का चलन अब बहुत बढ़ चुका है। कुछ तो ऐसे हैं, जो अपने स्वार्थों के लिए कल तक इधर थे, आज आराम से उधर चले गए हैं और जो उधर नहीं गए हैं, उनका मजाक उड़ाने का आनंद ले रहे हैं!

बड़ी हद तक संघी हिंदुत्ववाद एक तरह से सारे राजनीतिक प्रतिष्ठान की मान्यता प्राप्त विचारधारा बन चुका है, क्योंकि इसे चुनौती देने वाले धर्मनिरपेक्ष विकल्प का सत्यनाश खुद धर्मनिरपेक्ष राजनीति में विश्वास रखने का दावा करने वाले दलों ने किया है। उन्होंने अपनी कायरता और अवसरवाद के चलते हिंदुत्ववाद का न केवल प्रतिरोध नहीं किया, बल्कि उससे तरह-तरह के समझौते करके उसे मान्यता भी दी। ये दल भूल गए कि अपनी जगह मजबूती से खड़े रहने के देर से ही सही, मगर दीर्घकालिक लाभ होते हैं, जो अब गंवा दिए गए हैं।

आज धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक विकल्प की बात करना हास्यास्पद बना दिया गया है, क्योंकि कौन-सी पार्टी आज भी धर्मनिरपेक्ष है, यह तय करना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि जो दल कल तक धर्मनिरपेक्षता की कसमें खा रहा था, अचानक वह सांप्रदायिक गठबंधन का सक्रिय सदस्य बन जाता है। जो राम जन्मभूमि आंदोलन के समय अयोध्या में चिड़िया को भी पर न मारने देने का संकल्प जता रहा था, वह चुपचाप भाजपा से समर्थन लेकर अपनी सरकार चलाता है और मुजफ्फरनगर में एक साथ हिंदू सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता का खेल खेलता है। जिस दल की धर्मनिरपेक्षता आडवाणी का साथ देकर खंडित नहीं होती, वह मोदी का घोर विरोध करके धर्मनिरपेक्षता का शंखनाद करने लगता है। जो दल कल तक राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यू के साथ खड़ा था, अचानक भाजपा के साथ खड़ा होकर अपनी होशियारी बघारता है।

ऐसे में जनता का एक हिस्सा असली सांप्रदायिकों के साथ चला जाता है, जो विकास का दावा करते हैं, जो सबका लाभ लेना जानते हैं, मगर किसी को देना नहीं जानते, जो अपनी जगह हर हालत में बना-बचा कर रखते हैं, बढ़ाते हैं, बिगाड़ते नहीं।

भाजपा ने इसके विपरीत अपने पूर्व अवतार जनसंघ के रूप में हिंदुत्ववाद की जिस खतरनाक विचारधारा को स्वीकार किया था, उस पर उसने आवरण कितने ही चढ़ा लिए हों, भ्रम कितने ही पैदा किए हों, मगर अपनी उस विचारधारा को नहीं छोड़ा, न कभी छोड़ने के लिए राजी हुए। यह भी शायद एक कारण है कि इसका राजनीतिक लाभ वे करीब पिछले दो दशक से उठा रहे हैं, भले राष्ट्रवाद की आड़ में वे इस तरह देश को एक खतरनाक मोड़ पर ले जा रहे हैं, जिस बात को समझने में शायद आम लोगों को और समय लगे।

मगर तब तक जो बीज वे बो देंगे, उसकी फसल उन्हें किसी न किसी रूप में आगे भी शायद मिलती रहेगी। नरेंद्र मोदी पहली बार संसद भवन में आए, तो उन्होंने उसकी सीढ़ियों पर मत्था टेका। मगर पिछले आठ महीनों में हिंदुत्ववादियों ने जो कहा और किया उस पर वे चुप रहे, उससे उनकी और उनके लोगों की जनतंत्र में आस्था की थाह मिलती है। दरअसल हिंदुत्ववादी किसी भी खतरनाक हद तक जा सकते हैं। देश उनके लिए देश नहीं, खेल का मैदान है, वह जगह नहीं जिससे प्यार करने का ढोंग वे किया करते हैं।

जो आजाद देश के उन बुनियादी आधारों को नहीं मानते हों, जिसके लिए आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी (जिसमें शामिल होने से उन्होंने इनकार कर दिया था) वे सत्ता आने पर क्या-क्या कर सकते हैं, इसकी कल्पना करना मुश्किल है। लोकतंत्र और संविधान उनकी सामयिक मजबूरी है, उनका अपना चुनाव नहीं, उनका धर्म नहीं। जो हिंदू राष्ट्र की बात करते हों, जाहिर है कि गांधी-आंबेडकर-भगत सिंह की बात करना उनके लिए दूसरों को छलावा देने से ज्यादा कुछ नहीं। जो देश की दूसरी सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी को हमेशा दहशत में रखने में विश्वास रखते हों, जिसके समर्थक खुलेआम जहर उगलते हों, जो दल हिंदू और मुसलमान के आधार पर वोटों का बंटवारा कराने की राजनीति पर चलता रहा हो, उसका विश्वास जनतंत्र में कितना पुख्ता हो सकता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

हमारे देश में शिक्षित अशिक्षितों का एक बड़ा वर्ग पैदा हो चुका है, जिसके पास विचार के नाम पर वे मिथ हैं, जो वैज्ञानिक और ऐतिहासिक तथ्य के रूप में गढ़े और प्रचारित-प्रसारित किए गए हैं। यह वर्ग अपने बारे में बेहद आश्वस्त है कि वही सही है और वही है जो सब कुछ जानता है, वह इस देश की परंपराओं और यथार्थ से सबसे ज्यादा जुड़ा हुआ है। यह वर्ग पिछले दो दशकों में समृद्धि से रूबरू हुआ है और उपभोग में सबसे आगे है। यह वर्ग हर तरह की संकीर्णता और प्रतिगामिता का मजबूत आधार है। इसे खुराक देने का काम टीवी चैनलों ने बड़े पैमाने पर किया है। दरअसल, बुनियादी समस्या वह वातावरण है, जिसे और बिगाड़ने में पूरे सत्ताधारी वर्ग की दिलचस्पी है।

 

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