केंद्र सरकार के अंतरिम बजट में किसानों को इस बार कुछ तो मिला। अंतरिम बजट में घोषित प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना से किसानों को बहुत राहत तो नहीं मिलेगी, लेकिन इस योजना में मिलने वाली राशि से खाद, कीटनाशक और बीज खरीद में किसानों को आंशिक राहत मिल सकती है। बशर्ते खाद और कीटनाशक की कंपनियां किसानों का खयाल रखें और बाजार में अपने उत्पादों के मूल्यों में बढ़ोतरी न करें। अभी तक यह देखा गया है कि जैसे ही किसानों के उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी की घोषणा सरकार करती है, दूसरी तरफ खाद और कीटनाशकों की कीमतों में बढ़ोतरी हो जाती है। किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिले या न मिले, उसे बढ़ी कीमतों पर खाद और कीटनाशक खरीदने पड़ते हैं। बीते साल किसानों को यही परेशानी झेलनी पड़ी थी। अब सरकार द्वारा किसानों को आर्थिक सहायता देने की घोषणा के बाद खाद, बीज और कीटनाशक बनाने वाली कंपनियों का रुख देखने वाला होगा।

वैसे तो किसानों को बजट से खासी उम्मीद थी। लेकिन उन्हें बजट में ऐसा कुछ कुछ नहीं मिला जिसकी वे उम्मीद कर रहे थे। किसानों को उम्मीद थी कि केंद्र सरकार कर्ज माफी की घोषणा कर अंतरिम बजट में बड़ी सौगात देगी। लेकिन कर्ज माफी को लेकर सरकार ने चुप्पी साध ली। एक बारगी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान सरकार द्वारा कर्ज माफी की घोषणा के बाद केंद्र सरकार से भी किसान कर्ज माफी की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन केंद्र सरकार के कर्ज माफी को लेकर कोई कदम नहीं उठाए जाने से देश के उन अर्थशास्त्रियों में खासी खुशी है जो कर्ज माफी की संस्कृति का विरोध कर रहे हैं। केंद्र सरकार ने कर्ज माफी की बजाय किसानों को राहत देने का दूसरा रास्ता चुना। केंद्र प्रति वर्ष किसानों को कुछ अनुदान राशि देने को तैयार हो गया। इसी की घोषणा अंतरिम बजट में की गई।

प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत दो हेक्टेयर तक जोत वाले किसानों को छह हजार रुपए प्रति वर्ष देने की घोषणा सरकार ने की। हालांकि योजना जब जमीन पर लागू होगी तब इसकी सफलता का अंदाज लगेगा। योजना की घोषणा से पहले जमीनी स्तर पर तैयारी नहीं की गई। फिर यह भी आशंका व्यक्त की जा रही है कि इस योजना के तहत सिर्फ जमीन के मालिकों को लाभ मिलेगा। बटाईदारों को इस योजना का लाभ नहीं मिलेगा, क्योंकि बटाईदारों का रेकार्ड ही कई राज्यों में सरकारों के पास नहीं है। जबकि देश के कई राज्यों में बड़े पैमाने पर जमीन बटाईदार ही जोत रहे हैं। इसलिए बटाईदारों को लेकर सरकारी सर्वेक्षण जरूरी है। अगर सर्वेक्षण नहीं होगा तो पैसा सीधे जमीन के मालिकों के हिस्से में चला जाएगा।

हालांकि प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि में तय की गई राशि ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है। सरकार का दावा है कि इस पर बहत्तर हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे। लेकिन किसानों के आर्थिक नुकसान के मुकाबले यह राशि कुछ नहीं है। किसानों के सालाना घाटे का आकलन करें तो पता चलता है कि किसान कितनी दयनीय हालात में हैं। देश में किसानों को सालाना दो लाख पचास हजार करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है। सन 2000 से लेकर अब तक देश के किसानों को होने वाले आर्थिक घाटा पैंतालीस लाख करोड़ रुपए के आसपास बैठता है। केंद्र सरकार से उम्मीद थी कि राज्यों के मुकाबले बेहतर आर्थिक स्थिति के कारण किसानों के लिए ठोस सहायता राशि का इंतजाम करेगी। जितनी जमीन पर केंद्र सरकार ने छह हजार रुपए की सालाना सहायता राशि देने की घोषणा की है, उतनी ही जमीन पर तेलंगाना सरकार चालीस हजार रुपए दे रही है।

तेलंगाना सरकार रयथू बंधु योजना के तहत राज्य के किसानों को प्रति एकड़ आठ हजार रुपया सलाना दे रही है और इससे तेलंगाना के अट्ठावन लाख किसानों को लाभ मिल रहा है। तेलंगाना जैसे छोटे राज्य में राज्य सरकार ने अपने वार्षिक बजट में इस योजना के लिए बारह हजार करोड़ रुपए का इंतजाम किया है। जबकि केंद्र सरकार ने पूरे भारत के लिए बहतर हजार करोड़ रुपए रखा है। यही नहीं, ओड़िशा सरकार ने राज्य के लगभग तीस लाख किसानों को पांच फसली सीजन के लिए पच्चीस हजार रुपए देने की घोषणा की है। इस योजना की खासियत यह है कि इसमें बटाईदारों को भी एकमुश्त बारह हजार पांच सौ रुपए दिए जाएंगे। उड़ीसा सरकार ने भी इसके लिए बजट में दस हजार करोड़ रुपए का प्रावधान रखा है।

हालांकि कर्ज माफी को लेकर अर्थशास्त्रियों की चिंता यह है कि देश को दुबारा कल्याणकारी राज्य की तरफ मोड़ने की कोशिश की जा रही है जबकि खजाने की हालत ठीक नहीं है। हालांकि इसमें ज्यादातर अर्थशास्त्री वे हैं जो कारपोरेट घरानों के लाभ की वकालत करते रहे हैं। जब कारपोरेट घरानों का कर्ज एनपीए में शामिल हो जाता है, तो ये अर्थशास्त्री चुप रहते हैं। इन अर्थशास्त्रियों के जीडीपी विकास दर की परिभाषा में कारपोरेट क्षेत्र का विकास ही शामिल होता है। देश के किसान, गरीब, मजदूर से इनका कोई सरोकार नहीं होता। हालांकि उनके कुछ तर्कों को सही माना जा सकता है। एक तर्क तो यह कि कर्ज माफी किसानों के संकट का कोई हल नहीं है।

अगर कर्ज माफी की घोषणा सरकार करती भी है, तो इससे किसानों का संकट दूर नहीं होगा, क्योंकि इससे तीस फीसद किसानों को ही लाभ मिलेगा। खासकर उन किसानों को कर्ज माफी का लाभ मिलेगा जिनकी पहुंच कर्ज के संस्थागत स्रोतों तक है। यह भी सच्चाई है कि जिन राज्यों में कर्ज माफी की घोषणा की गई है, वहां की माली हालत कुछ ठीक नहीं है। पंजाब, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, कर्नाटक जैसे राज्यों में कर्ज माफी की रकम दो लाख करोड़ तक पहुंच सकती है। वैसे में किसानों के हितों के लिए बाजार में सुधारात्मक कदम उठाना होगा।

सच्चाई तो यह है कि किसान न तो राज्य सरकारों के एजेंडे में है, न ही केंद्र के एजेंडे में। अगर किसान सरकारों की प्राथमिकता होता तो शायद आत्महत्या की नौबत नहीं आती, गन्ना किसानों की बकाया राशि का भुगतान अब तक हो चुका होता। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के गन्ना किसानों का बुरा हाल है। इन राज्यों में गन्ना किसानों की बकाया राशि सात हजार करोड़ रुपए से ज्यादा है, जिसके भुगतान में आनाकानी हो रही है। मिल मालिकों ने किसानों से गन्ना तो खरीद लिया, लेकिन पैसे देने के मामले में हाथ खड़े कर रखे हैं। राज्य सरकारें इसमें हस्तक्षेप नहीं कर रही हैं। दूसरी तरफ न्यूनतम समर्थन मूल्यों की घोषणा कागजों में हो रही है। इसका लाभ देश भर में मात्र बीस फीसद किसान को मिल रहा है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य तय होने के बाद भी किसानों के उत्पादों को बाजार में न्यूनतम समर्थन मूल्य से बीस से तीस फीसद कम कीमत पर खरीदा जा रहा है। सरकार का बाजार पर नियंत्रण नहीं है, मुनाफाखोरों पर नियंत्रण नहीं है। सरकारी एजेंसियों ने धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद से हाथ खींचने शुरू कर दिए हैं। हरियाणा और मध्यप्रदेश की सरकारों ने किसानों के उत्पादों को बेहतर कीमत देने के लिए भावांतर भुगतान योजना की शुरुआत की थी, जो बुरी तरह से नाकाम साबित हुई। इस योजना का पूरा लाभ मुनाफाखोरों ने उठाया, जबकि किसानों को उनके कृषि उत्पादों की कम कीमत बाजार में मिली। ऐसे में सरकारें किसानों का उद्धार कैसे कर पाएंगी?