नागरिकता संशोधन विधेयक-2016 आठ जनवरी को लोकसभा से पारित हो गया। इससे पहले यह विधेयक 19 जुलाई 2016 को लोकसभा में पेश किया गया था, जिसका उद्देश्य नागरिकता अधिनियम 1955 में संशोधन करना था। नागरिकता अधिनियम 1955 भारतीय नागरिकता पाने के मानदंडों को स्पष्ट करता है। ये मानदंड हैं- जन्म, वंशानुगतता, पंजीकरण, प्राकृतिक राष्ट्रीयकरण और क्षेत्रीय समावेशीकरण के आधार पर नागरिकता हासिल करना। इसके अतिरिक्त उक्त अधिनियम भारत के कार्डधारी विदेशी नागरिकों के पंजीकरण और उनके अधिकारों को भी विनियमित करता है। इसके तहत भारत के विदेशी नागरिक भारत आने के लिए बहुउद्देश्यीय आजीवन वीजा जैसे कुछ लाभ प्राप्त करने के लिए अधिकृत हैं। जबकि विधेयक के अनुरूप अवैध प्रवासी वे हैं जो वैध पासपोर्ट या यात्रा दस्तावेज के बिना भारत में प्रवेश करते हैं और वे भी हैं जो प्रवासन के लिए स्वीकृत समयावधि के बाद भी भारत में रुके रहते हैं।
अभी नागरिकता विधेयक में जो संशोधन किया गया है, उसके अनुसार भारत में रह रहे या रहने के इच्छुक अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई अल्पसंख्यकों के लिए प्राकृतिक राष्ट्रीयकरण मानदंड के अनुरूप नागरिकता प्राप्त करने लिए भारत में ग्यारह वर्षीय प्रवासन अवधि के उपबंध को घटा कर छह वर्ष कर दिया गया है। केंद्र सरकार के अनुसार वह भारत के उक्त पड़ोसी देशों में उत्पीड़न झेल रहे गैर-मुसलिम अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने के लिए नागरिकता संशोधन विधेयक पारित करवाना चाहती है।
स्वतंत्रता के तुरंत बाद देश का विभाजन भारत के लिए बहुत बड़ी त्रासदी था। विभाजन के बाद पाकिस्तान मुसलिम राष्ट्र बन गया। जो गैर-मुसलिम अल्पसंख्यक पाकिस्तान में ही रह गए और उन पर पाकिस्तान में दशकों से जो अमानवीय अत्याचार किए गए उसकी परिणति यह हुई कि आज पाकिस्तान में गैर-मुसलिम अल्पसंख्यकों की संख्या बहुत ज्यादा घट चुकी है। इसी तरह पूर्वी पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश बनने के बाद भी जो गैर-मुसलिम अल्पसंख्यक बांग्लादेश में बचे, उनका भी तरह-तरह से शोषण किया गया। परिणामत: वहां भी गैर-मुसलिम अल्पसंख्यकों की आबादी बहुत घट चुकी है। जबकि विभाजन के बाद भारत में रह रहे मुसलमानों की आबादी न केवल हिंदुओं की तुलना में अत्यधिक बढ़ी, अपितु उनके जीवन स्तर में भी अनेक प्रकार का सुधार हुआ है।
केंद्र सरकार का यह कदम अच्छा है कि वह विभाजन के पहले और बाद में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में ही रह रहे भारतवंशियों की आबादी को भारतीय नागरिकता देने के माध्यम से संरक्षण व सुरक्षा प्रदान करने का प्रयास कर रही है। लेकिन इस संदर्भ में सरकार के सम्मुख अनेक तरह की चुनौतियां हैं। पहली, क्या सरकार द्वारा क्रियात्मक स्तर पर यह सुनिश्चित किया जाएगा कि बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से केवल और केवल गैर-मुसलिम भारत में प्रवेश कर सकें और उन्हें ही यहां की नागरिकता मिले? दूसरी, क्या भारत में आने, रहने और यहां की नागरिकता प्राप्ति के बाद गैर-मुसलिम अल्पसंख्यक हर प्रकार से भारतीय संस्कृति के संवाहक बन कर राष्ट्र के मान-सम्मान को बढ़ाने और व्यवस्थाओं को सुदृढ़ करने का काम कर सकेंगे? तीसरी चुनौती यह कि क्या इस फैसले से देशवासियों विशेषकर असमवासियों की इस आशंका को दूर करने के प्रयास किए जाएंगे कि नागरिकता संशोधन विधेयक के कानून बनने के बाद बांग्लादेश से जो गैर-मुसलिम भारत आएंगे वे वास्तव में गैर-मुसलिम ही होंगे और लाखों-करोड़ों की संख्या में नहीं होंगे?
इन संभावित चुनौतियों के बारे में केंद्र सरकार को स्पष्टीकरण देना ही होगा, क्योंकि लोकसभा में विधेयक पारित हो जाने के बाद असम में स्थानीय लोगों ने केंद्र सरकार के विरोध में धरना, प्रदर्शन, आंदोलन, बंद आयोजित किया जो अभी भी जारी है। नागरिकता संशोधन विधेयक के कारण जो राज्यव्यापी विरोध और रोष है, उसके मूल में स्थानीय असमिया लोगों की ये आशंकाएं हैं कि नागरिकता कानून में संशोधन के बाद अकेले बांग्लादेश की ओर से जो गैर-मुसलिम भारतीय नागरिकता लेकर भारत में रहने-बसने की इच्छा से असम में प्रवेश करेंगे, उनकी संख्या लगभग उन्नीस करोड़ होगी। यदि इस आंकड़े को सही मानें और इसमें भारतीय नागरिकता लेने की चाह में पाकिस्तान व अफगानिस्तान से यहां प्रस्थान व प्रवास करने वाले संभावित लोगों को भी जोड़ लें तो भारत पर पड़ने वाले भारी जनसांख्यिकी दबाव की कल्पना सहज ही की जा सकती है।
कुछ समय पूर्व असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (एनआरसी) में सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में नागरिकता संबंधी जो जानकारियां अद्यतन की गर्इं उसमें वहां रहे अवैध बांग्लादेशियों की संख्या 40.70 लाख दर्ज की गई थी। यह सर्वविदित है कि राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (एनआरसी) असम में रह रहे वास्तविक भारतीय नागरिकों के नामांकन की एक पंजिका है, जिसे पहले-पहल 1951 के बाद तैयार किया गया था। 1951 से भी बहुत पहले 1826 से 1947 के बीच जब असम ब्रिटिश उपनिवेशकाल में कॉलोनिअल असम के रूप में था तब भी वहां विभिन्न प्रांतों से लोगों का प्रवासन होता रहा। सन 1931 में तत्कालीन जनगणना अधीक्षक सीएस मुल्लन ने भी अपनी जनगणना रिपोर्ट में असम में अवैध प्रवासन और प्रवासियों का उल्लेख किया था। उनके अनुसार, ‘संभवत: विगत 25 वर्षों के दौरान असम प्रांत में प्रवासियों और शरणार्थियों का आगमन चिंतनीय है। इससे यही लगता है कि यह प्रवासन असम की संपूर्ण पुरातन विशेषता को पूरी तरह बदल देगा। इतना ही नहीं, इससे असम की संस्कृति और सभ्यता की पूर्ण संरचना भूमि पर अतिक्रमण करने की भूखी अप्रवासी जनसंख्या द्वारा बर्बाद कर दी जाएगी।’
असम में अवैध प्रवासन की स्थिति में देश के विभाजन के बाद भी परिवर्तन नहीं हुआ। तत्कालीन असम सरकार के गृह एवं राजनीतिक विभाग द्वारा विदेशी मुद्दों पर प्रकाशित प्रशासकीय रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार पूर्वी पाकिस्तान के डेढ़ से दो लाख और बाद में पांच लाख अवैध प्रवासी असम में घुस चुके थे। पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश बन जाने के बाद भी भारत सरकार की ओर से असम में अवैध प्रवासियों के प्रवाह में कमी लाने या उस पर प्रतिबंध लगाने के ठोस उपाय नहीं किए गए। हालांकि समय-समय पर भारत सरकार ने घुसपैठ की समस्या पर असम के स्थानीय संगठनों (आसू, अगप इत्यादि) के साथ मिल कर रास्ता निकालने का प्रयास तो किया, पर सफलता तब भी नहीं मिली। घुसपैठियों को असम निकाला देने के लिए आंदोलनकारियों के रूप में संघर्षरत विभिन्न संगठन बाद में राजनीतिक दलों में बदल गए, किंतु असम से अवैध बांग्लादेशियों के निष्कासन और प्रवेश निषेध की कोई व्यापक और कारगर युक्ति नहीं खोजी जा सकी।
यदि केंद्र सरकार द्वारा लाया गया नागरिकता संशोधन विधेयक, असम के संबंध में हाल ही में जारी एनआरसी में दर्ज अवैध बांग्लादेशियों, म्यांमारियों के आंकड़ों की चिंता करते हुए प्रस्तुत किया जाता और तब संसद से पारित होता तो यह राष्ट्र हित में प्रतीत होता। लेकिन ऐसा नहीं है। राजनेताओं को विचार करना चाहिए कि अति जनसांख्यिकीय विद्रूपताओं व विसंगतियों से पहले ही पीड़ित असम व देश में गैर-मुसलिम अल्पसंख्यक जनसंख्या के लिए भारतीय नागरिकता के रास्ते खोलना तब तक न भारतीय नागरिकों के हित में होगा और न ही गैर-मुसलिम अल्पसंख्यक प्रवासियों के, जब तक कि असम व देश से बांग्लादेशी, पाकिस्तानी, म्यांमारी व दूसरे देशों के करोड़ों अवैध प्रवासियों को बाहर नहीं कर दिया जाता। भारत पहले ही अति जनसंख्या की समस्याओं और इस कारणवश विभिन्न धार्मिक, जातिगत, सामाजिक व आर्थिक समस्याओं से घिरा है। ऐसी परिस्थिति में केंद्र सरकार को असम में अवैध तरीके से प्रवासित करोड़ों बांग्लादेशी मुसलमानों को वापस भेजने के संबंध में व्यापक क्रियात्मक नीति बनानी चाहिए। इसके लिए बांग्लादेश की सरकार के साथ हर आवश्यक संवाद, कूटनीति और अन्य उपाय किए जाने की आवश्यकता है।