सोनम लववंशी

देश में मौजूदा परिदृश्य को देखते हुए यह एक स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन इसके संदर्भ में कई सवाल भी उपज रहे हैं, जिनका हल ढूंढ़ने की दिशा में सरकारी तंत्र को प्रयास करने होंगे! 2023 में देश के नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं और बीते एक-दो वर्षों में यह देखने में आया है कि अन्न योजना से लाभ परोक्ष रूप से चुनावों में उठाया गया है। ऐसे में पहला सवाल यही कि क्या चुनाव जीतने का आधार अन्न योजना बन रही है या फिर वास्तविक रूप से अंत्योदय की राह पर हमारा देश बढ़ रहा है? यों जिस देश में इक्यासी करोड़ लोग सरकार की ओर से मुहैया कराए जा रहे अनाज पर जीवन निर्वाह करने को विवश हों, तो सवाल है कि उनकी अन्य मूलभूत आवश्यकताएं कैसे पूरी होती होंगी। केवल अन्न से किसी का जीवन व्यवस्थित नहीं गुजर सकता। यह हम सभी भली-भांति समझते हैं। एक परिवार को पेट भरने के लिए अन्न और सिर ढकने के लिए छत मूलभूत आवश्यकता है, लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य जरूरतों को भी दरकिनार करके नहीं देखा जा सकता है।

वर्तमान समय में देश का सरकारी तंत्र आजादी के अमृतकाल में आगे बढ़ रहा है। लेकिन जब देश की आम जनता सरकार की ओर से मिल रहे कुछ अनाज में ही अपना अक्स देखने लगती है, सरकार के लिहाज से उसी अन्न से किसी व्यक्ति का जीवन-मरण और सरकारी कागजों में विकास के सुनहरे क्षण गढ़े जाने लगते हैं, तब ऐसे में दुष्यंत कुमार की एक पंक्ति याद आती है कि ‘भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ, आजकल दिल्ली में है जेर-ए-बहस ये मुद्दआ।’ इन पंक्तियों में गरीबों के जिस दर्द को शब्दों में एक वक्त पिरोया गया था, उस गरीब के दर्द को दूर करने के लिए आजादी के बाद से कई सरकारें सत्ता में आईं और चली गईं, लेकिन दुर्भाग्य से आज भी व्यक्ति केवल सरकार से अनाज की आस लगाकर ही बैठा है।

इक्कीसवीं सदी में जब देश अर्थव्यवस्था के मामले में विश्व का नेतृत्व करने की दिशा में बढ़ने की सोच रहा है, मंगल या चांद पर जाने की चर्चा हो रही है, तब देश की सरकार 81.35 करोड़ लाभार्थियों को निशुल्क अनाज देकर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ रही है। यह पक्ष वेदना से भर देने वाला है।

फिलहाल हमारा देश कुपोषण की समस्या से भी जूझ रहा है। कोरोना के कारण बेरोजगार हुए साढ़े बारह करोड़ से ज्यादा लोग दोबारा काम पर नहीं लौटे। बेरोजगारी और महंगाई आए दिन बढ़ती जा रही है। ऐसे में कुछ किलो मुफ्त अनाज के माध्यम से कैसा भविष्य बनेगा! जिस देश की आधी से अधिक या अधिसंख्य आबादी सिर्फ सरकारी अनाज के सहारे जीवन निर्वहन को विवश हो, उसके विश्व गुरु बनने की चाहत एक कल्पना से अधिक मालूम नहीं पड़ती। इसके अलावा रहनुमाई तंत्र की नीति की उपयोगिता आने वाले वक्त में साबित हो पाएगी। इसका कारण यह है कि समर्थन में मत हासिल करना ही लोकतंत्र का असली मकसद नहीं होता। लोकतंत्र में लोक पहले आना चाहिए, लेकिन यहां पैंतीस किलो अनाज देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ ली जा रही है।

केंद्र सरकार अपनी पीठ मुफ्त अनाज योजना को अन्न से अंत्योदय बताकर थपथपा सकती है, लेकिन इसका मतलब आमजन को भी समझने की आवश्यकता है। खासतौर पर ऐसे समय में जब दूसरे दलों को नसीहत दी जाती है कि मुफ्त की सियासत को विराम दिया जाए! फिर मुफ्त अनाज को चुनावी वर्ष में बांटने को किस नजरिए से देखा जाना चाहिए? इसके बावजूद यह पहलू अहम है कि संकट के समय में सरकार अपनी ओर से लोगों की हर संभव मदद कर रही है।

पिछले दिनों जब विधानसभा के चुनाव हिमाचल और गुजरात जैसे राज्यों में संपन्न हुए, तब यह निष्कर्ष निकलकर सामने आया कि इन राज्यों में आधी से अधिक आबादी मुफ्त अन्न योजना के अंतर्गत आती थी। दरअसल, पार्टियों और नेताओं के बीच छवि गढ़ने की कोशिश हो रही है, जिसमें पीछे रहने को कोई तैयार नहीं। भले गरीबी किसी की मौत की वजह बन जाए। यह लोकतंत्र में कैसे चल सकता है? हाल ही में संपन्न चुनावों की बात करें तो जिस गुजरात माडल का प्रचार वर्षों से चला आ रहा है, वहां की 53.5 फीसद आबादी अन्न योजना के अंतर्गत आती है। क्या इसे महज कागज़ों में अच्छे दिन की संज्ञा दी जाए?

सच यही है कि गुजरात जैसे राज्य में भी पैंतीस किलो सरकारी अनाज ही आधी आबादी से अधिक का आधार है। कमोबेश यही हाल कई अन्य राज्यों का है। आंकड़ों के लिहाज से उत्तर प्रदेश में मुफ्त की योजनाओं का लाभ प्राप्त करने वाले लाभार्थियों की तादाद लगभग पंद्रह करोड़ है, जो किसी न किसी योजना में लाभ ले रहे हैं। एक सर्वे के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में लगभग बासठ फीसदी आबादी मुफ्त राशन की श्रेणी में भी आती है। उत्तराखंड के हर दस में से सात परिवारों को मुफ्त राशन मिल रहा है। वहीं हिमाचल प्रदेश की लगभग 38.4 फीसद आबादी प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत मुफ्त राशन का लाभ ले रही है।

सही है कि इन आंकड़ों में कुछ प्रतिशत फर्जी नाम भी सम्मिलित होंगे। लेकिन आजादी के सात दशक बाद भी अगर एक बड़ी आबादी को सरकार से महीने के पैंतीस किलो अनाज लेकर जीवन जीना पड़ रहा, तो फिर दूसरी किसी उपलब्धि को कैसे देखा जाएगा! गरीबी की रेखा जो सरकार ने शहरी और गरीबी क्षेत्र की तय कर रखी है, वास्तव में वह सभ्य समाज के सामने एक तीखे सवाल की तरह है।

जिस दौर में अमीरों की तादाद लगातार बढ़ रही हो, कहीं न कहीं सामाजिक उत्तरदायित्व का लोप हो रहा है, ऐसे समय में उस दिशा में ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। एक आंकड़े के मुताबिक, राज्य सरकारों की अलग-अलग योजनाओं, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं और निजी बीमा की विभिन्न योजनाओं को जोड़ने के बाद भी देश की कुल आबादी के लगभग सत्तर फीसद हिस्से तक स्वास्थ्य बीमा की सुरक्षा पहुंच पाती है।

इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि सरकारी प्रयासों के बावजूद तीस फीसदी हिस्सा अब भी ऐसा है जो स्वास्थ्य सेवाओं से पूरी तरह वंचित है। यही हाल शिक्षा और सिर ढकने के लिए छत और अन्य सुविधाओं का भी है। कुपोषण का दंश देश अभी तक नहीं मिटा सका है। ऐसे में मुद्दे कई हैं।

मुफ्त अनाज की योजना उचित है, लेकिन सिर्फ अनाज देने और उसके प्रचार से गरीब की दीन-हीन अवस्था में आमूलचूल परिवर्तन नहीं आने वाला है। एक आंकड़ा है कि चिकित्सा पर छियासी फीसद लोगों को अपनी जेब से खर्च करना पड़ता है। अब जो इक्यासी करोड़ के करीब आबादी पैंतीस किलो अनाज भी सरकार से लेकर दो जून की रोटी का इंतजाम करती हो, उसके जीवन में क्या बदलाव आएगा? गरीबी दूर करने के ठोस इंतजाम करने की आवश्यकता है। वरना मुफ्त अनाज बांटते रहने से लोगों को दीर्घकालिक समस्याओं से राहत नहीं मिलेगा।