सतीश कुमार
कजाकिस्तान में नए साल की शुरुआत भयानक दंगों से हुई है। इससे क्षेत्र में अशांति पैदा हुई है और देश की सुरक्षा को खतरा भी खड़ा हो गया है। शुरुआती खबरों के मुताबिक इन दंगों का कारण प्राकृतिक गैस के दाम बढ़ना है। सरकार ने साल की शुरुआत में एलपीजी पर मूल्यों का नियंत्रण हटा लिया। इससे एलपीजी के दाम बढ़ गए और इसके खिलाफ देश में प्रदर्शन शुरू हो गए। पूर्व सोवियत गणराज्य के सबसे बड़े शहर अल्माती में सैकड़ों प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए पुलिस ने आंसू गैस के गोले और बल प्रयोग का इस्तेमाल किया।
इस हिंसा में दो सौ से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं, सैंकड़ों घायल हैं। हिंसा का सबसे ज्यादा असर राजधानी अलमाती में ही देखने को मिला है, जहां सौ से ज्यादा लोग मारे गए हैं। हालात से निपटने के लिए राष्ट्रपति कासिम जोमार्ट टोकायेव ने रूस के नेतृत्व वाले गठबंधन के ढाई हजार सैनिकों को कजाकिस्तान बुला लिया है। इसी दौरान पूर्व राष्ट्रपति नूर सुल्तान नजरबायेव के खिलाफ भी नारेबाजी की गई। देश में भड़की इस हिंसा के लिए राष्ट्रपति टोकायेव ने विदेश में प्रशिक्षित आतंकियों को जिम्मेदार ठहराया है। अगर ऐसा है तो इस मुल्क के हालात कुछ और ही संकेत देने वाले लग रहे हैं।
नए साल में कजाकिस्तान में जो कुछ भी हुआ, उससे कई सवाल भी खड़े होते हैं। कजाकिस्तान मध्य एशिया का सबसे बड़ा देश है। क्षेत्रफल के लिहाज से दुनिया नौवां सबसे बड़ा देश, ब्रिटेन से करीब पांच गुना बड़ा, लेकिन आबादी उसकी एक चौथाई। महज आबादी नहीं, बल्कि इसकी भू-राजनीतिक स्तिथि इसको और अहम बनाती है। इसके उत्तर में रूस है, जिसके साथ इसकी करीब साढ़े सात हजार किलोमीटर से ज्यादा लंबी सीमा है।
पूर्व में इसकी सीमा चीन से मिलती है। जब 1990 तक मध्य एशिया रूस के अंतर्गत था, तब सैनिक दृष्टि से कजाकिस्तान रूस के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण प्रदेश था। परमाणु परीक्षण स्थलों से लेकर अंतरिक्ष केंद्र तक यहीं थे। आज भी कई मामलों में रूस कजाकिस्तान पर निर्भर है। इतना ही नहीं, 2015 में यूरेशियन इकनोमिक यूनियन के गठन में भी असल भूमिका कजाकिस्तान और बेलारूस की ही थी।
कजाकिस्तान में जो कुछ भी घटित हुआ, उसमें रूस की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी और यह आगे भी बनी रहेगी। इसके कई उदाहरण हैं। करीब दो करोड़ की आबादी वाले कजाकिस्तान में करीब चालीस लाख लोग रूसी मूल के हैं। नौकरी और रोजगार की खोज में सबसे ज्यादा कजाखी रूस की दौड़ लगाते हैं। स्कूली और बुद्धिजीवी लोगों की भाषा आज भी रूसी है।
सत्ता के गलियारों में उनकी पकड़ है। दूसरी महत्त्वपूर्ण भूमिका सुरक्षा परिषद की है, जिसके अंतर्गत रूस के साथ पांच और देश शामिल हैं, लेकिन हुकूमत रूस की चलती है। इस बार भी जब अल्माटी में उपद्रव जोड़ पकड़ने लगा और वहां की सेना नाकाम दिखने लगी तो रूस ने सेना भेज दी और प्रदर्शनों को कुचलने के लिए लोगों पर गोलियां दागी गईं, सैकड़ों लोग हताहत हुए, हजारों लोग जेलों में ठूस दिए गए। रूस का मानना था कि उपद्रवी भीतर के नहीं, बल्कि बाहरी शक्तियां थीं।
इसलिए यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि क्या इस हिंसा के पीछे महज बाहरी ताकतें ही थीं जिन्होंने योजनाबद्ध तरीके से इसे अंजाम दे डाला, या यह देश के भीतर ही वर्षों से सुलग रही आग का नतीजा थी। ऐसे अनेक किस्से हैं।
पर इस बार की कहानी नए वर्ष के आगमन से शुरू होती है। इस देश में एलपीजी यातायात का मुख्य ईंधन हुआ करती है। कजाकिस्तान के पश्चिमी हिस्से में प्राकृतिक गैस के विशाल भंडार हैं। हुआ यह कि सरकार ने हाल में एलपीजी से सबसिडी खत्म कर दी और इसकी बिक्री पूरी तरह से निजी कंपनियों के हाथों में सौंप दी। रातों-रात ईंधन के दाम दुगने हो गए। इसके बाद देश में विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए। हालांकि इसे एक तात्कालिक कारण के रूप में देखा जा रहा है।
कजाकिस्तान में जो कुछ हुआ है उसके पीछे कारण और भी हैं। सबसे बड़ा कारण तो देश की अधिनायकवादी राजनीतिक व्यवस्था है, जो 1991 से निरंतर चलती आ रही है। सत्ता के केंद्र में कजाकिस्तान के प्रथम राष्ट्रपति नजरबायेव की भूमिका है। 1991 से लेकर 2019 सत्ता की बागडोर पूरी तरह से उनके हाथों में थी। उनके कार्यकाल में कई बार राजनीतिक विद्रोह हुआ, लेकिन रूस की मदद से उन्होंने हर बार उसे कुचल दिया। मसलन 2015 में देश की मुद्रा न्यूनतम स्तर तक चले जाने के बाद विद्रोह हुआ था। साल 2016 में मनमानी तौर वहां की जनता की जमीन चीन के हवाले कर दी गई थी और उसके विरोध में भी विद्रोह भड़क उठा था।
फिर 2017 में आटो एक्सपो के विरोध में जनता सड़क पर उतरी थी। इसके बाद 2019 में नजरबायेव ने सत्ता का हस्तांतरण किया और टोकायेव को राष्ट्रपति बनाया गया। लेकिन नजरबायेव खुद राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के निदेशक के रूप में परदे के पीछे से सत्ता के प्रमुख अंग बने रहे। लेकिन उन्हें सत्ता से अलग करने की साजिश से जनता भीतर ही भीतर नाराज हो रही थी, और यही नाराजगी अब हिंसा के रूप में सामने आई है।
कजाकिस्तान में अशांति का दूसरा कारण था- देश में बढ़ती गरीबी और बेरोजगारी। माना जाता है कि कजाकिस्तान की आबादी का बड़ा हिस्सा नौजवानों का है। बेरोजगारी चरम पर है। कोरोना महामारी के हालात ने इसे और गंभीर बना दिया है। फिर कजाकिस्तान में भ्रष्टाचार और सत्ता में परिवारवाद का बोलबाला है। जैसा कि समझा जाता है, हर नवोदित देश की अपनी अलग पहचान होगी, उसमें राष्ट्रवाद की भावना होगी, जिसमें हर नागरिक समाज की अहम भूमिका होगी। लेकिन ऐसा यहां होने नहीं दिया गया। अधिनायकवादी व्यवस्था ने सत्ता को व्यक्ति विशेष और परिवार तक समेट दिया और तीन दशकों में यहां के शासकों ने आम जनता की आकांक्षाओं का गला घोट दिया।
दरअसल बात केवल कजाकिस्तान तक नहीं सिमटी है। भौगोलिक बंदरबांट की जिरह में बाहरी शक्तियों का दखल भी कजाकिस्तान में अरसे से चला आ रहा है। 1991 के बाद से ही अमेरिका की निगाह कजाकिस्तान पर थी। कजाकिस्तान के साथ परमाणु समझौते को लेकर अमेरिका ने 1993 से जो कवायद शुरू की, वह 2000 के बाद भी चलती रही।
कजाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में अमेरिकी दखल भी बढ़ता गया। साथ ही साल 2000 के बाद इस देश में चीन की शिरकत भी बढ़ने लगी। कजाकिस्तान चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना का बड़ा हिस्सा बन गया। इसके लिए भूमि अधिग्रहण शुरू किया गया। कजाख लोगों की जमीनें चीन के हवाले कर दी गईं।
सबसे मजबूत बाहरी शक्ति के रूप में रूस आज भी मध्य एशिया के बीचोबीच है। कजाकिस्तान की सुरक्षा का ढांचा रूस निर्धारित करता है। इससे कजाख लोगों के बीच यह डर और गहरा गया है कि क्या रूस कजाकिस्तान के उत्तरी हिस्से को अपने में मिलाने का चक्रव्यूह तो नहीं रच रहा। इस डर का बुनियादी कारण यह भी कि 2019 में रूसी संसद ने इसकी चेतावनी दी थी।
हाल के विद्रोह को कजाकिस्तान की सरकार ने तख्तापलट की साजिश बताया है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षक इसे एक नई क्रांति के आगाज के तौर पर देख रहे हैं। मध्यपूर्व के देशों में क्रांतियों का जो दौर 2011 में में शुरू हुआ था, कजाकिस्तान की ताजा घटनाएं भी उसी की याद दिलाती हैं। सच को अधिनायकवादी राजनीतिक व्यवस्था के तहत ढका जा रहा है। लेकिन यह चिंगारी फिर से जंगल की आग बन कर फैल सकती है।