कोरोना महामारी में भावनात्मक टूटन सभी के हिस्से आई है। कहीं अपनों को खो देने की पीड़ा, तो कहीं बीते सवा साल की त्रासदी में सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर बिगड़ी परिवारों की स्थितियां, या फिर अन्य तरह के संकट। ऐसे में बच्चों और किशोरों का इससे बच पाना संभव नहीं है। खासतौर से किशोरवय आबादी के लिए संकट बड़ी मानसिक पीड़ा के रूप में देखने को मिल रहा है। आज और आने वाले कल में जीवन के सरोकारों और समस्याओं की समझ रखने वाले किशोरों का मन भय और पीड़ा से बिखरा जा रहा है। अवसाद की समस्या बढ़ रही है। एक ओर अपनों को खो चुके किशोर असहाय महसूस कर रहे हैं, तो दूसरी ओर अकादमिक क्षेत्र में आए ठहराव से भावी जीवन को लेकर बन रही अनिश्चितता का भी उन्हें सामना करना पड़ रहा है।

बीते दिनों मध्यप्रदेश के रायसेन में हुई एक घटना में कोरोना के कारण मां को खो चुकी किशोरी ने चौथी मंजिल से कूद कर जान दे दी थी। जाहिर है, वह यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाई। राजधानी दिल्ली में भी ऐसी ही घटना में माता-पिता की कोरोना से मौत के बाद परेशान किशोरवय भाई-बहन ने खुदकुशी की कोशिश की। दोनों पंखे से लटक कर अपनी जान देना चाहते थे, लेकिन रिश्तेदारों ने समय रहते पुलिस को सूचित कर दिया और दोनों की जान बचा ली गई। अभिभावकों की मौत के बाद से ही दोनों हताश थे और एक रिश्तेदार को फोन कर आत्महत्या के इरादे में बता दिया था। ऐसी खबरें बताती हैं कि देश में कोरोना की दूसरी लहर की भयावहता दर्शा रहे आंकड़ों के बीच मन के मोर्चे पर भी बहुत कुछ बिखर रहा है। संक्रमण का शिकार हो जीवन गंवा रहे लोगों के आंकड़े तो बढ़ ही रहे हैं, पीछे रह जाने वाले अपनों की मन:स्थिति भी चिंता का विषय है।

दरअसल, बड़ों के बिछोह, हमउम्र लोगों से दूरी और समाज से कटे जीवन के दौर में हर उम्र के लोग मानसिक रूप कमजोर हो रहे हैं। खासकर किशोरवय बच्चे इन घटनाओं और हालात से बहुत ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। परीक्षाएं रद्द होने से लेकर महामारी के कारण उपज रहे भय ने किशोरों मन को कई तरह की उलझनों का शिकार बना दिया है। अपनों को खो देने की पीड़ा उनका मनोबल ही नहीं तोड़ रही, बल्कि आत्मघाती कदम उठाने को भी मजबूर कर रही है। कहना गलत नहीं होगा कि कोरोना महामारी के साथ स्वास्थ्य संबंधित चिंताओं ने भी भय और भ्रम को बढ़ाया है। ये स्थितियां उन बच्चों के लिए बेहद घातक हो चली हैं, जो परिस्थितियों को गहराई से समझने की उम्र के दौर में हैं। यही वजह है कि किशोरावस्था वाले बच्चे ऐसी भावनात्मक टूटन का ज्यादा शिकार हो रहे हैं।

दरअसल, छोटे बच्चों को दुनियादारी से सरोकार नहीं रहता। वे बचपन के आनंद में डूबे होते हैं। भविष्य और वर्तमान की चिंताएं भी उन पर असर नहीं डालतीं। लेकिन किशोरावस्था की समझ और सोच वर्तमान ही नहीं, भविष्य की चिंताओं से भी जुड़ी होती है। इस आयु वर्ग के बच्चे अपनों को खोने का दर्द भी जानते हैं और व्यक्तिगत व अकादमिक भविष्य की फिक्र से भी वाफिक होते हैं। यही वजह है कि परीक्षाएं रद्द होना हो या घर तक सिमटी जिंदगी, किशोरों की बड़ी आबादी ये सब मानसिक और भावनात्मक उलझनों को झेल रही है। इस संकटकाल में यह विचारणीय इसलिए भी है कि दुनिया की सबसे बड़ी किशोर आबादी भारत में बसती है। भारत में लगभग साढ़े पच्चीस करोड़ की किशोर आबादी है। हर पांचवें व्यक्ति की उम्र दस से उन्नीस वर्ष के बीच है। यह आयु वर्ग न केवल वर्तमान की जद्दोजहद से दो चार हो रहा है, बल्कि भविष्य की फिक्र भी उसे खाए जा रही है। उम्र के इस दौर में जीवन से जुड़ी चुनौतियां बहुत कुछ नया सिखाने-समझाने वाला परिवेश बनाती हैं।

किशोरवय का दौर शारीरिक, भावनात्मक और व्यवहारगत परिवर्तनों से भरा होता है। पर बीते एक बरस में सब ठहर-सा गया है। महामारी के चलते ऊर्जा और उत्साह से भरा किशोर उम्र का दौर सामाजिक, शारीरिक और शैक्षिक गतिविधियों से दूर हो गया है। यह ठहराव मन को थकान और जीवन को उत्साहहीन बना रहा है। संक्रमण की दूसरी लहर में पूरे के पूरे परिवार संक्रमित हो रहे हैं। ऐसे में बच्चों में अवसाद और मानसिक उलझनें भी जड़ें जमा रही हैं और बच्चे डर, बैचेनी, अनिद्रा और अवसाद की चपेट में भी आ रहे हैं।

महामारी की यह त्रासदी बच्चों के लिए भय और भ्रम से भरी भूलभुलैया बन गई है। बहुत से ऐसे परिवार हैं जहां माता-पिता दोनों की मौत हो गई और बच्चे अकेले रह गए हैं। उनसे जुड़ीं कई चिंताएं अब सरकार और समाज के समक्ष आ रही हैं। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय से कहा है कि अस्पतालों के भर्ती फार्म में बच्चों की समुचित देखभाल सुनिश्चित करने के लिए एक और कालम जोड़ा जाए, जिसमें माता-पिता गंभीर स्थिति में अस्पताल में भर्ती होते वक्त यह बता सकें कि अगर वे महामारी के शिकार हो गए तो बच्चों की देखभाल कौन करेगा। यह चिंता माता-पिता के जीवन गंवा देने की ही नहीं, बल्कि इलाज के दौरान घर पर उनकी गैरमौजूदगी में बच्चों की देखभाल की भी है। मंत्रालय ने इस संकट और पीड़ा को न सिर्फ बच्चों के अस्तित्व के लिए खतरा बताया है, बल्कि बाल श्रम और बाल तस्करी से जुड़े गलत लोगों द्वारा उनका गलत लाभ उठा लेने का अंदेशा भी जताया है। नि:संदेह वैश्विक महामारी के इस आघात से किशोर वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले समूहों में से एक हैं। इसीलिए उनके संरक्षण के लिए हर स्तर पर प्रयास किए जाने आवश्यक हैं।

असल में देखा जाए तो कोरोना संक्रमण की आपदा ने दुनियाभर में हर उम्र के लोगों को प्रभावित किया है। अध्ययन बताते हैं कि वयस्कों की तुलना में यह महामारी बच्चों पर दीर्घकालिक रूप से ज्यादा प्रतिकूल असर डालने वाली साबित होगी। यह बच्चों के आयु वर्ग, वर्तमान शैक्षिक स्थिति, आर्थिक स्थिति, पहले से मौजूद मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति और माता-पिता को हुए संक्रमण के कारण संक्रमित होने के भय जैसे कई कारकों पर निर्भर करेगा। हालांकि संक्रमण के शुरुआती दौर में बच्चों में संक्रमण आंकड़े बेहद कम रहे, लेकिन एक साल से घर बंदी, ऑनलाइन पढ़ाई और बड़ों का इस बीमारी से जूझना बच्चों को भी गहराई से प्रभावित कर गया।

यूनिसेफ के 2019 के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में बच्चों की आबादी ढाई अरब के आसपास है, जो दुनिया की आबादी का लगभग उनतीस फीसद है। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं कि आने वाले समय में बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़ी स्थितियां किस हद तकलीफदेह और चुनौतीभरी हो जाएंगी। भारत में तो बच्चों को मनोवैज्ञानिक मोर्चे पर समझने और संभालने वाली स्वास्थ्य व्यवस्थाएं वाकई जर्जर हैं। परिवार ही बच्चों के संबल और सुरक्षा का केंद्र रहा है। यह विपदा परिवार तो बिखेर ही रही है, रिश्तों-नातों से भी दूरियां बनाने वाली है। यही वजह है कि बाल रोग विशेषज्ञों, मनोवैज्ञानिकों और शिक्षकों ने भी आने वाले समय में कई गंभीर खतरों की चेतावनी दी है। विशेषकर किशोरों की बड़ी आबादी का चिंता, अवसाद या दूसरी तरह की मानसिक परेशानियों का सामना होगा। ऐसे में इस सामुदायिक संकट में हर आयु वर्ग के बच्चों को सहज सुरक्षित महसूस करवाना समाज की साझी और मानवीय जिम्मेदारी है।