संजय वर्मा

हर किस्म की बीमारी-महामारी से बचाव का सामान्य तरीका यह है कि स्वस्थ जीवनशैली अपनाई जाए और वे सारी सावधानियां बरती जाएं, जो हमें रोगों की चपेट में आने से बचा सकती हैं। लेकिन इन तमाम उपायों को अपनाने के बावजूद बहुतेरे लोगों की यह आम शिकायत है कि बचाव के सारे उपाय करने और अच्छा खानपान व जीवनशैली अपनाने के बाद भी न जाने क्यों वे बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। कई बार ये जाने-पहचाने असाध्य रोग होते हैं, तो कई बार कोरोना महामारी जैसे भी हो सकते हैं। चिकित्सकों का मानना है कि जहरीले रसायनों (कीटनाशकों और खादों) की मदद से उगाए जाने वाले अनाज, सब्जियां, तेल-साबुन से लेकर दैनिक उपयोग की चीजों में खतरनाक तत्वों का समावेश स्वस्थ जीवनशैली जीने वाले लोगों को भी बीमार कर रहा है। एक और अहम वजह है, जिससे जुड़ा संकट कोरोना काल में कुछ ज्यादा तेजी से बढ़ा है।

यह संकट है देश भर के गली-कूचों से लेकर अस्पतालों से निकलने वाला और बिना उपचार (ट्रीटमेंट) के खुले में छोड़ दिए जाने वाला अस्पतालों का कचरा (मेडिकल वेस्ट)। कोरोना काल में इसकी मात्रा काफी ज्यादा बढ़ गई है। हालात ये हैं कि लोग इस्तेमाल के बाद मास्कई और दस्ताने उतार कर सड़क किनारे, घर की चारदीवारी के बाहर, कचरे के खुले डिब्बों में यूं ही फेंक रहे हैं। इनमें से काफी चीजें ऐसी हैं, जिनका इस्तेमाल कोरोना संक्रमितों के इलाज में किया गया है। ऐसे में कोरोना विषाणु के प्रसार को रोकने की हर कोशिश नाकाम होने लगती है, क्योंकि इन स्थितियों में यह संक्रमण अनजान जगहों से उन लोगों में भी पहुंच सकता है, जिन्हें इसकी चपेट में आने की कोई आशंका नहीं होती।

समस्या की गंभीरता का अंदाजा देने वाली एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक बीते सात महीनों के दौरान हमारे देश में तैंतीस हजार टन कचरा सिर्फ कोविड-19 के इलाज और बचाव के साधनों के कारण पैदा हुआ है। यह कचरा सिर्फ इसलिए पैदा हुआ क्योंकि लोग मास्क, सैनेटाइजर की बोतलें, इंजेक्शन की सिरिंज, दस्ताने और पीपीई किट आदि को इस्तेमाल के बाद या तो खुद ही खुले में फेंक रहे हैं या फिर वे जिन सफाईकर्मियों को यह कचरा दे रहे हैं, उन्हें इसके निस्तारण के सही तरीके की जानकारी नहीं है। ऐसे में चिंता यह पैदा हो गई है कि दवाओं और टीकों के सहारे कोरोना के खिलाफ जिस जंग को जीत लेने के सपना हर स्तर पर देखा जा रहा है, उसमें यह कचरा बड़ी बाधा बन रहा है।

असल में, चिकित्सा के दौरान उत्पन्न कचरे के हर स्तर पर निस्तारण का सामान्य सुझाव यह है कि ये चीजें किसी भी रूप में पर्यावरण और इंसानों सहित अन्य जीवों के संपर्क में नहीं आनी चाहिए। कोरोना विषाणु के संहारक प्रसार के मद्देनजर यह और भी जरूरी हो जाता है कि ऐसे कचरे का बिना उचित प्रक्रिया के निपटान नहीं होना चाहिए। लेकिन इस काम में इतनी ज्यादा लापरवाही बरती जाती है कि एक स्वस्थ इंसान भी कब ऐसे कचरे की चपेट में आकर किसी गंभीर मर्ज का शिकार बन जाए, कहा नहीं जा सकता। कोविड-19 से जुड़े कचरे पर राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों से मिले आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल जून से सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों ने 32,994 टन ऐसा जैव चिकित्सा अपशिष्ट (बायोमेडिकल वेस्ट) पैदा किया है।

कोविड-19 से जुड़े इस कचरे में पीपीई किट, मास्क, जूते के कवर, दस्ताने, मानव ऊतक, रक्त से दूषित सूईयां व अन्य वस्तुएं, शरीर के तरल पदार्थ जैसे ड्रेसिंग, प्लास्टर कास्ट, रूई, रक्त के साथ दूषित बिस्तर या शरीर के तरल पदार्थ, ब्लड बैग आदि शामिल हैं। ये आंकड़े कुछ समय पहले केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने जारी किए हैं। इस कचरे में सबसे ज्यादा योगदान महाराष्ट्र (3587 टन) का पाया गया। इसके बाद केरल (3300 टन), गुजरात (3086 टन), तमिलनाडु (2806 टन), उत्तर प्रदेश (2502 टन), दिल्ली (2,471 टन), पश्चिम बंगाल (2,095 टन) और कर्नाटक (2,026 टन) का योगदान रहा है।

अंदाजा यह है कि देश के हर राज्य से हर दिन कोविड-19 से संबंधित औसतन डेढ़ टन कचरा रोज निकल रहा है, लेकिन उसके निस्तारण की कोई माकूल व्यवस्था नहीं की गई है। यही वजह है कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कोविड-19 से संबंधित कचरे के निपटान के लिए अलग से दिशानिर्देश जारी किए थे। इन निदेर्शों को सिर्फ कोविड-19 से संबंधित जैव चिकित्सकीय कचरे पर ही लागू किया गया है और ये नियम दूसरे किस्म के कचरे पर लागू नहीं होंगे।

शेष प्रकार के कचरों का निस्ता रण राष्ट्रीय हरित पंचाट (एनजीटी) के सितंबर, 2019 के आदेश के मुताबिक ही किया जाना है। लेकिन मुश्किल यह है कि जैव चिकित्सकीय कचरे को लेकर हमारे देश में हमेशा ही गंभीरता का अभाव रहा है। जैसे वर्ष 2018 में एसोचैम ने इस मुद्दे पर दी गई अपनी रिपोर्ट में बताया था कि सिर्फ दिल्ली-एनसीआर के ही अस्पतालों और प्राइवेट क्लीनिकों से हर साल पांच हजार नौ सौ टन अपशिष्ट निकलता है। रिपोर्ट में दावा किया गया था कि इस कचरे से सामान्य स्वस्थ लोगों में एचआइवी, हेपेटाइटिस बी और सी, पेट की गंभीर बीमारियां (गेस्ट्रो इंफेक्शन), सांस के रोग (रेस्पेरेटरी इंफेक्शन), रक्त संक्रमण, त्वचा संक्रमण के साथ-साथ जहरीले रासायनिक पदार्थों का भी खतरा है।

इनमें सबसे ज्यादा खतरा अस्पतालों के कर्मचारियों को ही है, क्योंकि वे इसके सीधे संपर्क में आते हैं। इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) अपने एक अध्ययन में बता चुका है कि करीब एक दशक पहले इंजेक्शनों के असुरक्षित निस्तारण के कारण पूरी दुनिया में एचआइवी के 33800, हेपेटाइटिस-बी के सत्रह लाख और हेपेटाइटिस-सी के तीन लाख से ज्यादा मामले सामने आए थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर कोविड-19 महामारी के दौर में कोरोना विषाणु से ग्रसित कोई पीपीई किट, दस्ताना या मास्क कूड़े के ढेर पर यूं ही फेंक दिया गया होगा, तो उसका क्या अंजाम निकला होगा।

सवाल है कि आखिर चिकित्सा के दौरान निकलने वाले कचरे का सुरक्षित निपटारा कैसे किया जाए। इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने एक अहम दस्तावेज- सेफ मैनेजमेंट आफ वेस्ट्स फ्रॉम हेल्थकेयर एक्टीविटीज- में इसके लिए एक सक्षम निगरानी तंत्र बनाने और पुनर्चक्रण, भंडारण और परिवहन आदि के दौरान बरती जाने वाली सावधानियों पर जोर दिया गया है। बायो मेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट और हैंडलिंग एक्ट 1998 के संशोधित नियम 2016 के मुताबिक इस कचरे के निस्तारण में कोई गड़बड़ी न हो, इसके लिए जरूरी है कि अपशिष्ट की उचित छंटाई के बाद जिन थैलियों में उन्हें बंद किया जाए, उनकी बारकोडिंग हो। इससे हर अस्पताल से निकलने वाले कचरे की आॅनलाइन निगरानी मुमकिन हो सकती है।

इसके बावजूद यह कचरा अक्सर खुले में, नदी-नालों में और यहां तक कि खेतों तक में पहुंच जाता है। कानून में ऐसी लापरवाही के लिए पांच साल तक की जेल और जुमार्ने का प्रावधान है। लेकिन शायद ही कभी सुना गया हो कि किसी बड़े अस्पताल या जांच प्रयोगशाला संचालक को इस लापरवाही के लिए दोषी ठहराया गया हो।

तथ्य बताते हैं कि बीते दो-तीन दशकों में राजधानी दिल्ली-एनसीआर में ही अस्पतालों, नर्सिंग होम और जांच प्रयोगशालाओं की संख्या में कई गुना इजाफे के साथ अपशिष्ट की मात्रा भी कई गुना बढ़ गई है। भारत में हजारों निजी जांच प्रयोगशालाएं बिना किसी निगरानी और मानकों के चल रही हैं, तो उनसे कचरे के उचित निस्तारण की क्या ही उम्मीद की जा सकती है। देश के अस्पतालों के पीछे मौजूद नालों और बाड़ के पार कचरे के ढेर देख लिए जाएं, तो देश को मेडिकल टूरिज्म का ठिकाना बनाने का हमारा सपना एक झटके में टूट जाएगा।