प्रभात झा
अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म बटेश्वर निवासी कृष्ण बिहारी वाजपेयी के ग्वालियर स्थित घर में हुआ था। उनके पिता शिक्षक थे। इसलिए अटल जी की कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी। उन्होंने अपनी वाणी से लोगों के दिल में जगह बनाई। उन्होंने अपनी वाणी के प्रभाव से करोड़ों लोगों को जोड़ा। अथक साधना से निर्मित अटल जी का जो व्यक्तित्व हमारे सामने है, उनके कौनसे रूप का वर्णन हो और कौनसा अछूता छोड़ दिया जाए, यह निर्णय कर पाना कठिन है। समग्र समेटना तो संभव नहीं। फिर भी उनका स्मरण आते ही उनकी सौम्य छवि आंखों में तैर जाती है। ग्वालियर की गलियों से निकल कर प्रधानमंत्री बनने की इस यात्रा में अनेक पड़ावों से गुजरते हुए अटल जी ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व को अहर्निश साधना के साथ जिन ऊंचाइयों तक पहुंचाया, उन्हें शब्दों में बांधना कठिन है।
भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने कहा था, ‘मैं आपको संघ के पांच पांडव दे रहा हूं। ये भारत के कर्णधार एवं सजग प्रहरी होंगे।’ गोलवलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय को युधिष्ठिर, अटल जी को अर्जुन, जगन्नाथ राव जोशी को भीम, यज्ञ दत्त शर्मा को नकुल और वसंत राव ओक को सहदेव कहा करते थे। अटल जी के लिए उनका ये संबोधन अर्जुन के रूप में सत्य ही चरितार्थ हुआ। अटल जी ने संपूर्ण राष्ट्र को गौरवान्वित किया। वे भारत के प्रत्येक वर्ग में युवा हृदय के सम्राट के रूप में पहचाने गए।
अटल जी पांचजन्य, स्वदेश एवं वीर अर्जुन के संपादक रहे। भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जब बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर जाने की घोषणा की थी, तब अटल जी पत्रकार के तौर पर उनके साथ गए थे। मुखर्जी को जम्मू-कश्मीर के प्रवेश द्वार लखनपुर में जब पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया तो उन्होंने अटल जी से कहा, ‘वाजपेयी गो बैक एंड टेल द पीपल आफ इंडिया, डॉ. मुखर्जी हैज इंटरड जम्मू एंड कश्मीर विदाउट परमिट।’
डॉ. मुखर्जी की यह बात सुन अटल जी वहां से लौटे। इसी बीच मुखर्जी की वहां रहस्यमय हालात में मौत हो गई। अटल जी ने वहीं मन में ठाना कि डॉ. मुखर्जी के अधूरे सपनों को पूरा करना है। इसके बाद ही वे भारतीय जनसंघ के कार्य में पूरी तरह से जुट गए थे।
अटल जी थे तो जनसंघ और भाजपा के, पर सभी दलों के लोग उन्हें अपना मानते थे। उनकी स्वीकार्यता तो इसी से पता लग जाती है कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने उन्हें सन 1994 में प्रतिपक्ष का नेता रहते हुए जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारत के प्रतिनिधिमंडल के नेता के रूप में भेजा था। जबकि ऐसी बैठकों में भारत का प्रधानमंत्री या अन्य वरिष्ठ मंत्री ही नेता के रूप में जाते हैं।
इस घटना से सारा विश्व चकित था। नरसिंह राव ने अपने एक भाषण में कहा था कि ‘अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर अटल जी की जानकारी और विदेश मंत्री के तौर पर उनके अनुभव के कारण आज विश्व में वे अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के शीर्ष विशेषज्ञों में से एक हैं।’ भारत के राजनीतिक विश्लेषकों का मानना था कि अटल जी अगर दस वर्ष पूर्व भारत के प्रधानमंत्री बन गए होते तो भारत का भविष्य कुछ और होता।
सत्ता-लोलुपता के ऊहापोह के बीच निर्विकार भाव से जनसेवा के लिए प्रस्तुत रहने का सामर्थ्य हर किसी में नहीं हो सकता। दलगत राजनीति के जंगलराज में अपने आप को निष्पक्ष रख पाना आसान नहीं है। विदेश मंत्री रूप में, नेता प्रतिपक्ष के रूप में और प्रधानमंत्री के दायित्व का निर्वाह करते हुए अटल जी ने इन मर्यादाओं का पालन किया। लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। प्रतिपक्ष में रहते हुए अटल जी रचनात्मक आलोचना के हिमायती थे। रचनात्मक दृष्टिकोण तभी संभव है जब गहन अध्ययन, सभ्यता और संस्कृति के अंतरंग स्वरूप से सुपरिचय, जीवन मूल्यों के प्रति लगाव और मनुष्य-मनुष्य के बीच रागात्मक संबंधों की स्थापना की लगन हो।
प्रधानमंत्री बनने की यात्रा में अटल जी को सफलता की पुष्पमालाएं ही नहीं मिलती रहीं, बल्कि ऐसे क्षण भी आए जब एक तरफ जनसंघ के संस्थापक डा. मुखर्जी की 1953 में संदिग्ध हालात मौत हो गई। इसी तरह पंडित दीनदयालजी की भी रहस्यमय हत्या हो गई। इसके बाद दल को घोर निराशा और वेदना के भंवर से उबारने वाले नाविक की भूमिका इन्हें ही निभानी पड़ी।
सन 1984 में अटल जी ग्वालियर से चुनाव लड़ रहे थे। वे उस चुनाव में पराजित हो गए। इसके बाद वे रक्षाबंधन पर अपनी छोटी बहन से राखी बंधवाने ग्वालियर गए। सभी पत्रकार उनसे मिलनेपहुंचे। एक वरिष्ठ पत्रकार ने अटल जी से कहा, ‘आपके भाषण सुन कर जनता के मन में अपार श्रद्धा उत्पन्न होती है।’ अटल जी ने त्वरित जवाब देते हुए कहा, ‘भाषण में श्रद्धा और वोट में श्राद्ध।’ यह सुन कर सभी पत्रकारों ने राजनीति की गहराई समझा। अटल जी मनोविनोद में बहुत गहरी बातें कह जाते थे। उन्होंने वाणी और शैली से अपनी अलग पहचान बनाई। वे भारत के ऐसे राजनेता थे जिनकी सभा का संदेश सुन कर लाखों लोग सहज उन्हें सुनने आ जाते थे।
भारतीय राजनीति में विपक्ष में रहते हुए जितने लोकप्रिय और सर्वप्रिय अटल जी रहे, उतनी लोकप्रियता शायद ही किसी अन्य नेता को मिली हो। अटल जी के आचरण और वचन में लयबद्धता और एकरूपता थी। वे जब तक सदन में विपक्ष या सत्ता में रहे, तब तक सदन के राजनीतिक नायक ही रहे। सन 1996 में पहली बार तेरह दिन के लिए प्रधानमंत्री बनने और सन 1999 में मात्र एक वोट से सरकार गिर जाने जैसी दुखद स्थिति में भी न वे स्वयं विचलित हुए, न पार्टी के सदस्यों को हार के कारण दुखी और हतप्रभ होने दिया।
यह सब तभी संभव है जब व्यक्ति में आत्मबल हो और अपने आप पर पूर्ण विश्वास हो। अटल जी ने कहा भी, ‘खरीद-फरोख्त और ऐसी कोई भी जोड़-तोड़ की सरकार बनती है तो उसे चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा’। इसके लिए विरोधी नेताओं ने भी सदन में उनकी प्रशंसा की। प्रत्येक भारतीय ने भी अटल जी के दर्द को महसूस किया। देश के लोगों के आशीर्वाद से सन 1999 के चुनाव में फिर प्रधानमंत्री बने। यही था अटल जी का अटल और विराट व्यक्तित्व।
अटल जी अक्सर कहा करते थे, ‘दोस्त बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं’। यही कारण था वे भारत से बस लेकर लाहौर गए थे, लेकिन जब पाकिस्तान ने आंख दिखाई तो करगिल के युद्ध में उसे बुरी तरह पराजित भी किया। वे छोटे राज्यों के हिमायती थे। उन्होंने बड़ी सरलता से छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड का गठन अपने कार्यकाल में कर दिया था। भारत के गांवों को सड़कों से जोड़ने का ऐतिहासिक फैसला करते हुए उसे फलीभूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए पोकरण में परमाणु परीक्षण कर विश्व को संदेश दिया कि हम किसी से कमजोर नहीं।
अटल जी सिद्धांतवादी, विचार एवं व्यवहार से सरल और जमीन से जुड़े महान नेता थे। वे विपक्षी नेताओं का भी दिल जीत लेते थे। उनका मानना था कि भाजपा कार्यकर्ताओं की पार्टी है। जो नेता है, वह भी कार्यकर्ता है। उनका कहना था कि जो आज विधायक है, वह कल शायद विधायक नहीं रहे। सांसद भी सदैव नहीं रहेंगे। कुछ लोगों को पार्टी बदल देती है, कुछ को लोग बदल देते हैं, लेकिन कार्यकर्ता का पद ऐसा है, जो बदला नहीं जा सकता। कार्यकर्ता होने का हमारा अधिकार छीना नहीं जा सकता।
(लेखक पूर्व भाजपा उपाध्यक्ष हैं)