पुष्परंजन

सआदत हसन मंटो अगर जीवित होते, और कभी कांके आए होते, तो शायद ‘टोबा टेक सिंह’ के बाद राज्यों के विभाजन और उसके परिणाम पर एक बेहतरीन कहानी अवश्य गढ़ते। यों, देश की राजनीति में कांके का कोई खास योगदान नहीं रहा है। ऐसा भी नहीं कि कोई प्रधानमंत्री यहां आकर यह एलान करता कि देश में मनोरोगियों के बेहतर इलाज के लिए और भी संस्थान खोले जाएंगे, या फिर कांके में पागलों के लिए विश्वस्तरीय सुविधा मुहैया कराएंगे। 17 मई 1918 को अंगरेजों ने यहां सिर्फ उन यूरोपवासियों के लिए अस्पताल खोला जो दिमागी रूप से सटक जाते थे। उस वजह से कांके के इस अस्पताल का नाम ‘यूरोपियन मेंटल हॉस्पीटल’ पड़ा। अब इसका नाम सेंट्रल इंस्टीच्यूट आॅफ साइकाइअट्री (सीआइपी) है। दुखद यह है कि भारतीय राजनीति के दो दिग्गज, राहुल गांधी और अमित शाह, इस बार कांके की चुनावी रैलियों में आए, मगर दोनों में से किसी ने भी देश में पागलों की स्थिति पर, और सीआइपी में अंतरराष्ट्रीय स्तर की सुविधाएं देने की बात नहीं की। शायद इन नेताओं ने सोचा होगा, राजनीति में पागलों का क्या काम? ये तो मतदाता भी नहीं होते!

बयासी सदस्यीय झारखंड विधानसभा के लिए भाजपा का विजय-रथ रुका नहीं है। सूबे में पहली बार भाजपा की सरकार बनाने का सेहरा नरेंद्र मोदी के सिर होगा। हारते, तो ठीकरा किसी भकुए के सिर पर फोड़ देने की पर्याप्त व्यवस्था थी। लेकिन झारखंड की राजनीति में केले ने कितना कमाल किया है, इस पर ध्यान कम ही लोग दे पा रहे हैं। आॅल असम स्टूडेंट्स यूनियन की तर्ज पर झारखंड में आॅल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) की स्थापना 22 जून 1986 को की गई। इसके चार साल बाद 15 नवंबर, 2000 को झारखंड राज्य का गठन हुआ था।

आजसू का चुनाव चिह्न केला है। झारखंड को ‘बनाना रिपब्लिक’ बनाने में इस ‘केला पार्टी’ ने काफी योगदान दिया है। ‘केला’ और ‘कमल’ का साथ 2004 के लोकसभा चुनाव में हुआ। बारह महीने भी नहीं बीते कि 2005 के झारखंड विधानसभा चुनाव में केला और कमल का साथ छूट गया। आजसू नेता सुदेश महतो की मित्रता, लोक जनशक्ति पार्टी से हो गई। दस साल बाद एक बार फिर केला और कमल साथ-साथ हैं। पर कितने दिन? कोई सुनिश्चित नहीं कर सकता।

झारखंड में कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (एकी) साथ-साथ रहे हंै, लेकिन दिल्ली के जंतर मंतर पर 22 दिसंबर को जब ‘सेक्युलर फ्रंट’ भाजपा को ललकार रहा था, तब कांग्रेस कहां थी? झारखंड से कश्मीर तक कांग्रेस का बेड़ा अगर गर्क हुआ है, तो उसके पीछे उसके खुद के कारण हैं। यह धर्मनिरपेक्ष ताकतों का दुर्भाग्य है कि वे झारखंड में ‘गुरुजी’ और उनके बेटे की विरासत बचाने में लगी रहीं। इसे मतदाता कहां तक बर्दाश्त करता? चौदह साल में झारखंड में नौ मुख्यमंत्री हो चुके हैं। इस सूबे में सरकारें अस्थिर रही हैं, इसका यह सबसे बड़ा सबूत है। केंद्र से लेकर राज्य तक के झारखंडी नेता दागी, या बागी रहे हैं। इस सूबे के नेताओं की जेल यात्राओं पर मोटी पुस्तक लिखी जा सकती है।

नौवें मुख्यमंत्री झारखंड मुक्ति मोर्चा के हेमंत सोरेन रहे हैं, जिन्हें कांग्रेस और राजद का समर्थन हासिल था। राज्य के आठवें और भाजपा के आखिरी मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा थे, जिन्होंने 13 जुलाई 2013 को इस्तीफा दिया था। सबसे अधिक भाजपा ने झारखंड में 2 हजार 982 दिन तक शासन किया है, उसके बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू और हेमंत सोरेन को 833 दिनों तक चार बार सरकार चलाने का अवसर मिला। कोयले की दलाली और हवाला के आरोप में जेल यात्रा करने वाले निर्दलीय मधु कौड़ा ने 709 दिनों तक मुख्यमंत्री के रूप में शासन किया। अब कौड़ा बुरी तरह हार गए। चौदह साल में 344 और 175 दिनों तक, दो बार राष्ट्रपति शासन को झारखंड के लोगों ने देखा है।

अलग राज्य बनने के बाद से ही झारखंड की नियति रही कि इसे गठबंधन के नेता, खान माफिया, चिटफंडिये लूटते रहे, और वनवासी मूकदर्शक बने रहे। झारखंड का शोषण हुआ है, तो इसकी जवाबदेही उस सरकार की अधिक बनती है, जिसने ज्यादा समय तक इस सूबे पर शासन किया है।

झारखंड में भाजपा और उसके समर्थक दलों के नेता ‘बाप-बेटे की राजनीति’ करने से बरी नहीं रहे हैं। यशवंत सिन्हा के बेटे जयंत सिन्हा, जिन्हें इस बार विरासत में वित्त मंत्रालय मिला है, इसके ताजा उदाहरण हैं। सुदेश महतो भी पुत्र को राज्याभिषेक कराने की राह पर रहे हैं। भाजपा के नेता ताल ठोंक कर नहीं कह सकते कि उनके यहां विरासत की राजनीति नहीं हो रही है। भाजपा में भी कांग्रेस की तरह विरासत की सियासत शुरू है। झारखंड से बाहर, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के बेटे अभिषेक सिंह, जो राजनांदगांव से भाजपा के सांसद हैं, रामविलास पासवान, प्रकाश सिंह बादल जैसे दर्जनों उदाहरण हैं, जो विरासत की राजनीति के खेवनहार हैं।

सच यह है कि जैसे-जैसे भाजपा की सत्ता पर पकड़ मजबूत हो रही है, वंशवाद की राजनीति और तेज हो रही है। चुनाव में वंशवादियों, रजवाड़ों, फंड मैनेजरों और कॉरपोरेट पुत्रों को मिलती जा रही सफलता के कारण ही भाजपा, अमेठी राजघराने में बाप के विरुद्ध बेटे को उतारने का एक नया खेल, खेल रही है। यह विरासत की राजनीति का विकृत चेहरा है, जिसे संघ परिवार नए सिरे से आरंभ कर रहा है। पहले यह खेल, ग्वालियर राजघराने में खूब खेला गया।

कश्मीर में जो कुछ हो रहा है, उसके केंद्र में भाजपा है। भाजपा के लिए अब सिद्धांत नहीं, अवसरवाद ही सत्ता हासिल करने का साधन बन चुका है। मोदीजी जितना दौरा कश्मीर का कर चुके थे, देश के किसी प्रधानमंत्री ने नहीं किया। धारा 370 हटाने की बात पर बंदूक उठाने वाली डॉ हिना भट्ट, अलगाववादी नेता सज्जाद लोन भाजपा के मित्र होंगे, ऐसा सोच कम से कम श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे नेता का नहीं रहा था।

भाजपा का नारा था, ‘जम्मू-कश्मीर से बाप-बेटा और बाप-बेटी की राजनीति को साफ करो।’ पिता, मुफ्ती मोहम्मद सईद विधानसभा चुनाव जीत गए, और उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती अनंतनाग से दूसरी बार लोकसभा में हैं। मजे की बात है कि यही भाजपा अब साझा न्यूनतम कार्यक्रम के बहाने, पीडीपी के साथ सत्ता चलाने को बेचैन है। अब मुफ्ती मोहम्मद सईद के ऊपर है कि कांग्रेस का साथ लें या भाजपा का। भाजपा के साथ जाने पर केंद्र में मंत्रिपद मिलना भी तो ‘साझा न्यूनतम कार्यक्रम’ का हिस्सा होगा। अवसरवाद की राजनीति जो न कराए!

इससे कौन मना करेगा कि कश्मीर और लद्दाख में भाजपा को बढ़त नहीं हासिल हुई, और इस सूबे की राजनीति में भाजपा अब अछूत नहीं है? अब तक जितने भी विधानसभा चुनाव हुए, उनमें से अकेले जम्मू-कश्मीर के चुनाव पर दुनिया भर की निगाहें टिकी हुई थीं। मगर, दूसरे नंबर पर आई भाजपा के मित्र मानेंगे नहीं कि मिशन-44 की हवा कश्मीर में निकल गई, और मोदी मैजिक फेल हो गया। अगर मोदी लहर थी, तो जम्मू में कांग्रेस को आठ सीटें नहीं मिलनी चाहिए थी। सच तो यही है कि कांग्रेस ने भाजपा के अश्वमेधी घोड़े को जम्मू में रोक दिया। क्या जम्मू में भाजपा का जनाधार, कश्मीर घाटी में अलगाववादियों से हाथ मिलाने के कारण खिसका है?

सब लोग मान रहे हैं कि सत्तासी सदस्यीय कश्मीर विधानसभा के लिए साठ फीसद से अधिक मतदान होना पाकपरस्त अलगाववादियों के मुंह पर तमाचा है। लेकिन इसके लिए अमित शाह, मोदीजी, राम माधव को नहीं, कश्मीरी मतदाताओं को सलाम करना चाहिए, जिन्होंने किसी भी धमकी की परवाह न करते हुए इवीएम मशीनों के बटन दबाए। यह संयोग है कि इस समय पाकिस्तान अपने घरेलू लफड़ों और आतंक की गिरफ्त में है। लेकिन इससे यह भ्रम नहीं पाल लेना चाहिए कि घाटी में गोलियां चलनी बंद हो जाएंगी, और मसला-ए-कश्मीर पाकिस्तान के एजेंडे से गायब हो जाएगा।

पाकिस्तान को इतनी राहत अवश्य है कि जम्मू-कश्मीर में भाजपा की सरकार नहीं बनी, वरना उसकी मुश्किलें और बढ़ सकती थीं। चुनाव परिणाम आ चुका, और अब संभव है कि ‘एजेंडा 370’ की वापसी हो। कश्मीर में मतदाताओं को मोहने के लिए टोटके खूब हुए। क्या मोदीजी हर साल दिवाली मनाने कश्मीर जाएंगे? शायद, कश्मीर में मोदीजी अगली दिवाली 2020 में मनाने जाएं। वे आंध्र में बाढ़ से तबाह इक्कीस लाख परिवारों के साथ दिवाली मनाने नहीं गए। दिवाली आंध्र में भी बड़ी संख्या में लोग मनाते हैं। अब, जब मई 2014 में चुनाव संपन्न हो गया, तो मोदीजी भला दिवाली मनाने आंध्र क्यों जाते?

कश्मीर के मतदाताओं ने बहुत सोच-समझ कर वोट दिया है। पीडीपी को नंबर एक बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। 2008 के चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस को 28 सीटें, पीडीपी को 21, कांग्रेस को 17, भाजपा को 11, जम्मू-कश्मीर पैंथर्स पार्टी को तीन, माकपा को एक, पॉपुलर डेमोक्रेटिक फ्रंट को एक, जेकेडीपीएन को एक, और चार निर्दलीयों को विधानसभा की सीटें हासिल हुई थीं। 1996 से नेशनल कॉन्फ्रेंस जम्मू-कश्मीर में सत्ता का स्वाद चखती आ रही है।

कांग्रेस 2002 से ‘किंग मेकर’ की भूमिका में रही थी, लेकिन चुनाव से पहले उसका नेशनल कॉन्फ्रेंस से अलग होना भी दोनों के नुकसान का सबब बना है। झारखंड और जम्मू-कश्मीर के चुनाव में एक समानता यह दिखती है कि भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के लिए किसी ऐसे चेहरे को सामने नहीं रखा, जो अपने सूबे में दमदार और केंद्र पर भारी पड़ता हो। झारखंड में आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री की चर्चा परिणाम के साथ-साथ चलने लगी। अर्जुन मुंडा का दिल्ली में आला नेताओं से मिलना यह दर्शाता है कि वे वनवासी कार्ड के बूते चौथी बार मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं, हालांकि वे चुनाव हार गए हैं। लेकिन आलाकमान की सूझ का कोई भरोसा नहीं कि झारखंड का ‘मनोहरलाल खट्टर’ कोई और बन जाए।

कश्मीर में मोदी लहर का भ्रम टूटने के बावजूद लगता नहीं कि आने वाले विधानसभा चुनावों में ‘मोदी नाम केवलम’ के अश्वमेध घोड़े नहीं दौड़ेंगे। ‘मुख्यमंत्री वही, जो मोदी मन भाए’ का गान फूटेगा, और केंद्रीय संसदीय बोर्ड में किसी की हिम्मत नहीं होगी, जो उसे चुनौती दे दे। यह बिना अध्यादेश के संविधान के अनुच्छेदों को बदल देने का भाजपाई प्रयास है। राजनीति के विद्यार्थी के रूप में हम पढ़ते आ रहे थे कि राज्य विधानमंडलों में विधायक दल अपना नेता स्वयं चुनेगा। दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, केरल, पुदुच्चेरी, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के भगवा ध्वजवाहकों को अब इसके लिए मानसिक रूप से तैयार हो जाना चाहिए। इसका नफा-नुकसान यही होगा कि बाकी पार्टियां भी इसी राह पर चल पड़ेंगी, और भारतीय राजनीति से क्षत्रप दुर्लभ होते जाएंगे!

 

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