मेधा पाटकर
भूमि अधिग्रहण का मुद्दा देश भर में बरसों से उठता रहा है। किसानों, मजदूरों, मछुआरों की जीवनधारा रही भूमि और अन्य संपत्ति जबरन छीन कर राज्य अपना विकास नियोजन आगे बढ़ाता रहा और स्वावलंबी, श्रमजीवी समाज उजड़ता, उखड़ता रहा। 1894 में अंगरेजी काल से शुरू हुआ यह सिलसिला आजादी के साढ़े छह दशक बाद 2013 तक चला और जनहित के नाम पर करोड़ों लोगों को विस्थापित किया गया। उनसे न कुछ पूछा गया न उन्हें कुछ बताया गया। उनके चुने गए ग्राम, तहसील या जिले के त्रिस्तरीय पंचायत राज में बैठे जनप्रतिनिधियों तक भी परियोजनाओं की जानकारी नहीं पहुंची। अंगरेजों की राह पर चलते हुए पुनर्वास के बदले केवल नगद मुआवजा विस्थापितों को मिलता रहा, जिससे वैकल्पिक आजीविका और संसाधन हासिल करना तो दूर, कई बार एक मकान खड़ा करना भी नामुमकिन साबित हुआ।
अगर कहीं पुनर्वास के वायदे और नीति लाई भी गई तो वहां अमल में भ्रष्टाचार और संवेदनहीन नौकरशाही के हाथ अन्याय भुगतते रहे लोग। अधिकारियों के दलाल खड़े हुए, जैसे सरदार सरोवर में, और उन्होंने लूट लिया, कइयों को! हालांकि नियोजनकर्ताओं का पुनर्वास के नाम पर न्याय का दावा रहा है, लेकिन वास्तव में तो विस्थापितों को काफी जद्दोजहद के बाद ही कुछ हासिल हो सका है। ऐसी मैदानी और कानूनी लड़ाइयां जगह-जगह चलीं और उन्हें देख कर अन्य लोगों ने भी जबरन विस्थापन का विरोध किया।
कानून के अपनी जगह पर रहते हुए, अंगरेजों की साम्राज्यवादी संकल्पना और तरीके अपनाते रहे हमारे शासक। ‘राज्य’ की सार्वभौम सत्ता और सभी संसाधनों पर उसकेअधिकार के आधार पर किसी की भी संपदा को सार्वजनिक हित के नाम पर अपने कब्जे में लेने की प्रक्रिया ही ‘अधिग्रहण’ कहलाती गई। अंगरेजों ने तो कानून में थोड़ी गुंजाइश रखी थी, आपत्ति उठाने और उस पर सुनवाई का अधिकार देकर, लेकिन आजाद भारत की सरकारों ने बिल्कुल नहीं बख्शा प्रभावितों को।
इन अनुभवों के बाद खड़े हुए जगह-जगह जनसंगठन। खेती-किसानी और उससे जुड़े मजदूर ही नहीं बल्कि व्यापारी भी अपनी आजीविका छीने जाने से नर्मदा घाटी से लेकर कावेरी डेल्टा तक सशक्त रूप से चुनौती देने लगे। सिंगूर, नंदीग्राम और पॉस्को की लड़ाई ने विदेशी-देशी पूंजीपतियों के सहारे ‘विकास’ और प्राकृतिक संसाधनों के विनाश पर आवाज उठाई, शहादत भी स्वीकार की। मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, लखनऊ, रांची और कोलकाता में शहरी गरीबों ने अपनी आवासीय भूमि को बिल्डरों की तरफ मोड़ने वाली ‘गरीबों के लिए आवास योजना’ पर सवाल खड़ा किया, क्योंकि भूमि के बिना उजड़ी बस्ती बसाना असंभव होता गया। भूमि के मुद्दे से साथ जुड़े हैं भूजल और नदियां। कोका कोला, पेप्सी को भूजल देने के लिए प्लाचीमाड़ा गांव की जमीन दी गई। वह भी ग्रामसभा की मंजूरी के बगैर, और पर्यावरणीय दुष्परिणाम इरूला गांव के आदिवासियों ने भुगते। उनका धरना तीन हजार दिनों तक चला और फैक्टरी बंद रह गई। वही हुआ राजातालाब, वाराणसी में। जगह-जगह विद्युत परियोजनाएं ही नहीं, विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) जैसे कॉरपोरेट लूट के लिए लाए गए औद्योगिक क्षेत्र जब खेती की या गांव की अधिग्रहीत जमीन देकर करोड़पतियों को सभी प्रकार के टैक्स से छूट देने लगे, तो किसानी विरुद्ध कॉरपोरेट का विवाद खड़ा हुआ।
औद्योगीकरण होता है लेकिन खेती और किसानी की कीमत देकर नहीं। हजारों-हजार हेक्टेयर बंजर भूमि अधिग्रहीत होकर रिक्त पड़ी है। फिर भी उद्योग और रोजगार के दावे कर नई भूमि का अधिग्रहण, हरीभरी खेती की बरबादी, किसान-मजदूरों को ही क्या इस देश के तमाम नागरिकों को मंजूर नहीं हो सकता। पिछले दस सालों में खेती की 150 लाख हेक्टेयर जबकि गैर-खेती की और अधिक जमीन हस्तांतरित हुई। और खेती की भरपाई तो क्या, प्रभावितों के नुकसान तक की परवाह नहीं की गई। यह सच्चाई चौंकाने वाली है।
शहरों की भूमि का आबंटन भी बढ़ने लगा, क्योंकि अब शहरी भूमि सबसे बेशकीमती संपदा है। गरीब बस्तियों के कब्जे की भूमि पर बिल्डरों के बिना आवास की पूर्ण योजना प्रस्तुत की गई। मछुआरों को अधिकार चाहिए समंदर किनारे की भूमि का। ग्रामसभा और बस्तीसभा का संसाधनों पर अधिकार हो और किसी शासकीय या निजी या सार्वजनिक-निजी भागीदारी वाली परियोजनाओं लिए भी प्रभावितों की, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति क्षेत्र में ग्रामसभा की और शहरों में बस्तीसभा की मंजूरी जरूरी हो। यही कानूनी अधिकार, संविधान की धारा 143 के तहत (73वां, 74वां संशोधन) ग्राम और वार्ड को दिए गए विकास नियोजन के और संविधान के मार्गदर्शक सिद्धांतों के अनुसार न्यायपूर्ण होगा। यह भूमिका अधिक संयुक्त बनी जबकि विकास के आज के मॉडल के तहत इंडस्ट्रियल कॉरिडोर जैसी परियोजनाओं को प्राथमिकता देने लगे शासक।
जमीन आबंटित करने से कॉरपोरेट नए जमींदार बनते गए और छोटे-मझोले किसान बनने लगे भूमिहीन। भूमिहीनों को भूमि देने के सुधार कार्यक्रम तो भूल ही गए नेता-अधिकारी। वे तो बिल्डर को डेवलपर का नाम देकर भूमि हड़पने, और करोड़ों बनाने में लग गए और बन गए उनके पार्टनर और निवेशक।
इस प्ररिप्रेक्ष्य में, भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दौर में बड़े पूंजीपतियों, उद्योगपतियों के ही पक्ष में बनी सरकार ने भूमि अधिग्रहण निजी परियोजनाओं के लिए भी हो सकता है, यह स्पष्ट रुख अख्तियार कर लिया। ऐसा कानून किसी अन्य देश में न होते हुए भी, भारत के वर्तमान शासकों ने इसे लाने की हिमाकत की। 1894 के कानून में अंगरेजों ने भी इसको मंजूरी नहीं दी थी, लेकिन आजाद भारत के जनप्रतिनिधियों ने दे दी। कंपनीकरण जैसे-जैसे हर क्षेत्र में बढ़ता गया, वैसे-वैसे इस नए प्रावधान का दुरुपयोग होता गया। शासन ने भी स्वयं जमीन अर्जित करते हुए कंपनियों को बांटना शुरू किया, जिसके तहत अर्जित की गई हजारों हेक्टेयर जमीन बिना उपयोग के, वर्षों से पड़ी है। जैसे, महाराष्ट्र में है अस्सी हजार हेक्टेयर। ऐसी मनमानी लूट से नए जमींदार बन रहे हैं, जबकि विकास परियोजना के नाम पर विस्थापित हुए लोग पुनर्वास में वैकल्पिक जमीन न मिल पाने से भूमिहीन होकर पड़े हैं।
नर्मदा घाटी में जब सरदार सरोवर के ग्यारह हजार विस्थापित परिवारों को जमीन मिली तब भी बाकी परिवारों को जमीन के बदले नगद पैसा देना शुरू किया और इसमें हजारों फर्जी रजिस्ट्रियां हुर्इं। सौ करोड़ का भ्रष्टाचार हुआ। बिना पुनर्वास लाखों को डुबाने वाले बांध का काम मोदी शासन में आगे बढ़ना जारी है, तब भी डटकर इस अन्याय का सामना करना है किसानों-मजदूरों को। यह स्थिति कमोबेश कई परियोजनाओं में होने से, भूमि के उपयोग, बंटवारे और अर्जन पर सवाल करते हुए, संसदीय समितियों से सुनवाई के बाद बना 2013 का कानून।
यूपीए सरकार में भी भिन्न विचार थे। चिदंबरम, कमलनाथ एक ओर, और राहुल गांधी, जयराम रमेश दूसरी ओर। भाजपा की ही अध्यक्षता वाली संसदीय समितियों ने निर्णय लिए थे और सर्वदलीय सहमति से नए कानून का मसौदा बना। पर भाजपा के ही, जैसे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और अधिकारियों ने अड़ंगे डाले, नर्मदा में भू-अर्जन ही नहीं, डुबोने का रास्ता सुगम करने के लिए सिंचाई परियोजनाओं की बाबत सामाजिक असर अध्ययन का प्रावधान खारिज करने को मजबूर किया। अब मोदी सरकार लोकसभा और राज्यसभा में बहस, सर्वदलीय बैठकों आदि द्वारा मंजूर किया गया कानून अमल में लाने के पहले ही उसे अव्यावहारिक दर्शा कर खारिज करने चली और वह भी अध्यादेश के द्वारा।
जनतंत्र पर हमला केवल लोकसभा, राज्यसभा को पूछे-बताए बिना यह कानून-संशोधन करने से ही नहीं, बल्कि ग्रामसभा या शहर की वार्डसभा की मंजूरी से संबंधित धारा 243, संविधान के तहत उन्हें दिए गए अधिकारों को नकारने से अधिक हुआ है।
इस मुद्दे पर 2013 के कानून में कम से कम निजी परियोजनाओं के लिए अधिग्रहण के पहले अस्सी प्रतिशत और पीपीपी परियोजनाओं के लिए सत्तर प्रतिशत भूमिस्वामियों मंजूरी की शर्त रखी गई थी। अब नई सरकार कंपनियों के लिए भी जबरन किसानों की भूमि छीनने में कोई अड़चन नहीं चाहती।
पिछली सरकार के समय संसद से पारित हुए कानून में बहुफसली जमीन का अधिग्रहण अंतिम विकल्प के रूप में माना गया था, वह भी जिले की कुल जमीन के एक विशेष प्रतिशत तक ही वह जमीन अधिग्रहीत की जा सकती थी। इस प्रावधान को भी अध्यादेश ने बदल डाला है। जबकि खेती लायक एक फसली जमीन भी गैर-खेती कार्य के लिए हस्तांतरित नहीं होनी चाहिए, खाद्य सुरक्षा की खातिर उसे बचाना होगा। लेकिन अब अध्यादेश के बाद अति उपजाऊ जमीन लेने में भी कोई रुकावट नहीं होगी। आपातकालीन प्रावधान का सहारा लेकर जब से भूमि अधिग्रहण शुरू हुआ है तब से अधिग्रहण और विकास में जनतांत्रिक प्रक्रिया की अधोगति हुई है। केवल प्राकृतिक आपदा से राहत और रक्षा परियोजनाओं में ही आपातकालीन प्रावधान लगाने का 2013 का प्रावधान अध्यादेश ने पलट दिया है।
सबसे महत्त्व का मुद्दा है सामाजिक असर का अध्ययन, वैसे ही जैसे किसी परियोजना को मंजूरी देने से पहले उसके संभावित पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन जरूरी है। परियोजना के सामाजिक असर को निर्णय-प्रक्रिया का आधार बनाने से, विस्थापन कम-से-कम करने वाला विकल्प- तकनीक, स्थान आदि- चुनने में मदद होती, लोगों की सहभागिता होती। लेकिन राजग सरकार यह चाहती नहीं। कितनी भी सामाजिक कीमत चुकानी पड़े, बड़ी परियोजनाएं अंधाधुंध आगे बढ़ाने में इन्हें हिचक नहीं। अध्यादेश से यही जाहिर है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद और आज के सत्ताधारियों के रवैए में कोई फर्क नहीं दिखता है।
पुनर्वास के दावे आज तक खोखले साबित हुए हैं। दरअसल, पुनर्वास मात्र नगद मुआवजा नहीं होता, उसे बढ़ाया क्यों न जाए। शासन के अनुसार घोषित मुआवजे की बाजार दर वास्तव में बहुत कम, यानी अधिग्रहीत संपत्ति या उसकी कीमत के बराबर की संपत्ति खरीदने के लिए अपर्याप्त होती है। मुआवजे का हिसाब संबंधित इलाके में संपत्ति की रजिस्ट्री में दर्ज कीमत के मुताबिक लगाया जाएगा। पर हर कोई जानता है कि आमतौर पर वह दर्ज कीमत, वास्तविक कीमत से कम होती है। कंपनियां, पूंजीपति यही चाहते हैं कि पैसा फेंकें और जमीन हड़प लें। इसमें लगी होड़ में किसान हार जाते हैं। जिन विस्थापनों के खिलाफ लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी गई और आंदोलन हुए उनमें भी पुनर्वास के वायदे मुकम्मल तौर पर पूरे नहीं किए गए। अलबत्ता इन संघर्षों ने पूरे विस्थापन को व्यापक विमर्श का विषय बनाने में जरूर सफलता हासिल की, और 2013 में बने कानून का श्रेय उनको भी जाता है। अब भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के बाद इन संघर्षों के वाहकों पर किसानों और आदिवासियों की जमीन बचाने के लिए फिर से लड़ने का दारोमदार आ गया है।
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