गिरिराज किशोर
जब भी कहीं सत्ता परिवर्तन होता है तो जनता सोचती है कि आने वाले दिन कैसे होंगे। इस बार दो प्रकार के सोच सामने आ रहे हैं। एक वर्ग वह है जो सरकार के हर गलत निर्णय का ऐसे समर्थन कर रहा है जैसे उनका यह उपक्रम सरकार के गलत कामों को भी सही साबित कर देगा। जनतंत्र में यह हमेशा संभव नहीं होता। बल्कि ऐसा करके वे सबसे बड़ी हानि सत्तासीन दल की करते हैं। जो कांग्रेस सरकार के साथ हुआ वह इसी तरह के वर्ग के कारण हुआ। खुशामद और ‘यस सर कल्ट’ ही मीठे जहर की तरह सरकार के एक-एक अंग में फैल कर उसे निष्क्रिय बना देता है।
कांग्रेस को तो इस स्थिति में पहुंचने में लगभग छह दशक लगे। लेकिन जिस प्रकार यह सरकार अपने आपको एक अवतारी सरकार मान कर चल रही है, यह जनतंत्रात्मक सरकार की मानसिकता से भिन्न है। ‘शोले’ फिल्म के उस विदूषक जेलर की तरह जो सब कुछ बदल देने की बात करता हुआ दिखाया जाता है, ऐसा ही सब कुछ बदल देने का रियाज इस सरकार के सामूहिक गान में भी नजर आने लगा है। क्या बदला क्या नहीं, यह तो बाद में पता चलेगा।
दूसरा वर्ग हर बात पर सवाल उठाता है। मैं फेसबुक पर देखता हूं कि किसी भी आलोचना को वे शक की नजर से देखते हैं, जैसे ऐसा करने वाले मानसिक रूप से या तो विकलांग हैं या अल्पज्ञ हैं। सत्तापक्ष के कुछ युवा समर्थकों को लगता है वे जो सोचते हैं वही सही है। जनतंत्र में ऐसी मानसिकता खतरनाक है, वह तानाशाही की मानसिकता तरफ ले जाती है। जब आलोचना को अपमान माना जाने लगता है तो वह असहिष्णुता को जन्म देता है। असहिष्णुता हिंसा का पहला सोपान है।
इस बार लोकसभा चुनाव के दौरान मोदीजी ने राजनीतिक वक्तृत्व का मुहावरा ही बदल दिया। उनमें ओजस्विता के साथ चपलता भी थी और वे भावुकता को नकारात्मक शब्दावली के साथ इस्तेमाल कर रहे थे। जैसे काला धन सौ दिन में ले आया जाएगा, अच्छे दिन आ रहे हैं आदि। विश्वनाथ प्रताप सिंह कहते थे कि सत्ता में आने के बाद वे बोफर्स घोटाले का पर्दाफाश कर देंगे। पर न पर्दाफाश वीपी सिंह कर पाए न भाजपा सरकार।
भाजपा के सिरमौर ने जो सिक्केचुनाव के मैदान में उछाले उनमें सबसे चमकदार सिक्का था कि काला धन मिलने पर हर व्यक्ति के खाते में पंद्रह लाख रुपया जमा कर दिया जाएगा। न जनता ने पूछा और न नेताजी ने बताया कि आखिर कितना काला धन है कि सरकार का काम भी चल जाएगा और एक सौ बीस करोड़ लोगों के खातों में भी पंद्रह-पंद्रह लाख जमा कर दिया जाएगा। बाद में भी वित्तमंत्री, उच्चतम न्यायालय को काला धन धारकों की सूचना देने में, पिछली सरकार की तरह, लारा-लप्पा करते रहे।
जब सर्वोच्च न्यायालय ने चौबीस घंटे में सूची मांगी तो गोपनीयता का फीता खत्म हो गया। अब कहा जा रहा है कि पंद्रह लाख वाली बात तो चुनावी जुमला थी। पता नहीं ऐसे कितने जुमले उछाले गए जो निरर्थक थे। दूसरा, सौ दिन में महंगाई कम कर दी जाएगी। पर महंगाई तो कांग्रेस के जमाने से अधिक है। वित्तमंत्री थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद आंकड़ा ले आते हैं कि महंगाई इतने प्रतिशत कम हुई। लोग बाजार खूंदते रहते हैं, वह कौन-सा बाजार है जहां बताए गए प्रतिशत पर सब्जी, अनाज या दूध मिल रहा है।
प्रधानमंत्री ने ओबामा को बताया था कि एक गरीब घर में उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया गया था। उसने बाजरे की रोटी और एक कटोरा दूध सामने रखा। उनका बच्चा, जिसने मां के दूध के सिवा कभी दूध पिया ही नहीं था, ललचाई नजर से देख रहा था। उन्होंने दूध का कटोरा उसे दे दिया, वह गटागट पी गया। तब तो दो-चार रुपए लीटर रहा होगा अब तो पचास रुपए लीटर है। इस महंगाई में बच्चों तक को दूध मयस्सर नहीं। मांओं का दूध भी हो सकता है सूख गया हो।
इसका मतलब महंगाई कम करने का भी जुमला था। यही यूपीए-2 सरकार भी करती रही। उससे भी खतरनाक खेल लोगों की भावना के साथ अब खेला जा रहा है। पेट्रोल का अंतरराष्ट्रीय मूल्य 166 रुपए प्रति लीटर से गिरकर 40 रुपए प्रति लीटर के इर्दगिर्द है। इंडोनेशिया जैसे मुल्कों में तेल का मूल्य बहुत कम हो गया। अगर तेल की कीमत के अनुपात में मूल्य कम किए जाते तो महंगाई कम हो सकती थी और देश के करोड़ों लोगों को राहत मिल सकती थी। मगर लाभ या तो सरकार को पहुंच रहा है या तेल कंपनियों को।
एक और नारा दिया गया सबका साथ सबका विकास। लगा इससे बढ़िया नारा विकास के संदर्भ में बन ही नहीं सकता। यह भी वोट-खींचू नारा था। लेकिन जब हिंदुत्व नई सरकार के आते ही गरमाया तो सबका साथ सबका विकास का अर्थ ही गड़बड़ा गया।
सबका मतलब क्याकेवल हिंदू? भागवतजी, साक्षीजी, कई साध्वियां, तोगड़िया, योगीजी, शंकराचार्य वासुदेवानंद, सब अलग-अलग वाणी बोलने लगे। जब संसद में विरोधी दलों ने पूछा आप स्पष्टीकरण दें तो प्रधानमंत्री चुप रहे, आरोप लगा विरोधी दलों पर कि संसद नहीं चलने दे रहे।
भले ही विरोधी दल कमजोर हों, पर उनकी आवाज को अनदेखा करना दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं, गैर-जनतांत्रिक भी है। चर्च जलाए जा रहे हैं, वह भी दिल्ली में। गृहमंत्री ने कहा, सख्त दफाएं लगाई जाएंगी। दरअसल पार्टी अध्यक्ष ने दिल्ली चुनाव को चींटी की संज्ञा दी थी। चींटी लगता है हाथी पर हावी है।
मोदीजी का जादू पार्टी पर सिर चढ़ कर बोल रहा है। लेकिन जादू स्थायी नहीं होता। जब ओबामा आए और प्रधानमंत्री ने ओबामा की मित्रता को देश के सामने ट्राफी की तरह पेश किया तो लोग झूम उठे कि संसार की सबसे शक्तिशाली शख्सियत को, हमारे प्रधानमंत्री आधे नाम से संबोधित कर रहे हैं। जब विदा होने से पहले ओबामा ने सलाह दी कि विकास भेदभाव से नहीं होगा, समन्वय से होगा, मैंने जब यह बात फेसबुक पर लिखी तो एक सज्जन ने, जो अपने को मोदी-भक्त कहते हैं, ओबामा को कागजी शेर और मुझे सीआइए का एजेंट बता दिया। ये सब लक्षण असहिष्णुता के हैं। यह असहिष्णुता अगर बढ़ी तो देश में असहज वातावरण हो सकता है।
कभी सोचता हूं कि मध्यपूर्व के देशों में मुस्लिमों के बीच ही कट्टरपन के कारण जिस प्रकार खूंरेजी हो रही है वह किसी तरह के कट्टरपन के कारण किसी भी देश में हो सकती है। भारतीय उपमहाद्वीप भी 1947 में इस प्रकार के कट्टरपन का शिकार हो चुका है। जब राजनीतिक शक्ति का केंद्रीकरण धार्मिक आधार पर होता है तो इस तरह कट्टरवादी ताकतें एकत्र होने लगती हैं।
ओबामा ने गांधी के संदर्भ से कहा कि जिस प्रकार का कट्टरपन भारत में पनप रहा है अगर महात्मा गांधी होते तो उन्हें धक्का लगता। उसकी प्रतिक्रिया में तोगड़िया ने कहा कि भारत हिंदू राष्ट्र बन कर रहेगा। शिवसेना का वक्तव्य आया कि संविधान से धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द निकाल दिए जाने चाहिए और अभी हिंदू महासभाइयों ने कहा कि गोडसे का मंदिर बन कर रहेगा। मान लीजिए मंदिर बन गया तो क्या वे गांधी के सर्वमान्य सिद्धांतों सत्य, अहिंसा और शांति को नष्ट करने में कामयाब हो जाएंगे? इस तरह के वक्तव्यों से दूसरे देश भी चौंक रहे हैं और देश भी असुरक्षित है। खासतौर से तब, जब सरकार प्रतिक्रया-विहीन है।
निवेश भी तभी संभव होगा जब दूसरे देश आश्वस्त होंगे कि देश में सम्यकता है, समन्वय है। सरकार को सोचना पड़ेगा कि इन कट्टरवादी ताकतों को संरक्षण देना है या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि को सुधारना है।
अध्यादेशों के माध्यम से सरकार चलाना भी यह संकेत देता है कि राजनीतिक स्तर पर सबकुछ ठीक नहीं है। बताया जाता है कि अब तक पैंसठ हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। हजारों किसान कर्जे में डूबे हैं। हजारों भुखमरी के कगार पर हैं। इसके बावजूद हमारी सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाई है।
अब किसान की भूमि बिना उसकी मर्जी के सरकार अधिग्रहीत कर सकती है। इस असुरक्षा के साथ किसान खेती कैसे कर पाएगा? पहले ही युवा वर्ग खेती से विमुख होता जा रहा है। इस तरह का कानून बन जाने पर तो उसके मन में जमीन को लेकर असुरक्षा और बढ़ जाएगी। आने वाली पीढ़ी खेती का काम, जिसे एक पुरानी कहावत में उत्तम बताया गया है, जोखिम भरा समझेगी।
गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ में किसान को उसके क्षेत्र में स्वायत्त बनाने की बात कही है जिससे गांव अपने में स्वायत्त बन सकें। इंदिरा गांधी ने हरित क्रांति के द्वारा इस देश को पीएल-480 के तहत मिलने वाले सड़े-गले अनाज से मुक्त करा कर आत्मनिर्भर बनाया था। बल्कि हम अनाज निर्यात करने लगे थे। प्रस्तावित कानून हमें पहले वाली स्थिति में ले जाने का खतरा उत्पन्न कर देगा। अपने देश की परंपरागत खेती-आधारित आत्मनिर्भर आर्थिक व्यवस्था को नष्ट करके देश को पर-निर्भर बनाना कहां तक उचित है?
हम यूरोप नहीं बन सकते और यूरोप भारत नहीं बन सकता। राष्ट्रपति ने भी अध्यादेश आधारित सरकार चलाने का विरोध किया है, लोकसभाध्यक्ष ने भी अध्यादेश-संस्कृति का विरोध किया है।
दिल्ली के इस चुनाव में शीर्षस्थ स्तर पर जिस नकारात्मक शब्दावली का प्रयोग किया गया उससे देश स्तब्ध था। अपने को नसीब वाला कहना और दूसरों को बदनसीब ठहराना, दूसरे पक्ष को जंगलों में निष्कासित कर देने का सुझाव, भगोड़ा और नक्सलवादी कह कर अपमानित करना आदि जनसाधारण को अस्वीकार्य लगा। यही नहीं, अपने आपको गरीब मां का बेटा कहना अखरता था। लालबहादुर शास्त्री तो सिर पर कपड़े बांध कर गंगा पार करके स्कूल जाते थे। वे सदा परंपरागत कपड़े पहनते थे। सोवियत यूनियन भी अपने वही कपड़े पहन कर गए थे।
लेकिन ओबामा के आगमन पर कथित दस लाख के सूट की चर्चा ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया। सवाल भी उठे कि दस लाख सरकार ने दिए या उपहार में सूट आया? इन सब बातों की ओर लोगों का अनायास ध्यान आकर्षित हुआ। वह खांसता हुआ, मफलर लपेटे डाइबिटिक नौजवान उस तामझाम और शब्दावली पर भारी पड़ा। उसे हराने के लिए दो करोड़ का आरोप लगाया गया। लोकसभा चुनाव के समय तो आम आदमी पूछता था कि शाही प्रचार पर खर्च करने के लिए पैसा कहां से आ रहा है। चूंकि पिछली सरकार की आर्थिक अनियमितताओं ने लोगों को नई सरकार लाने के लिए तैयार कर दिया था इसलिए वे चुप थे। इस बार दो करोड़ के आरोप ने उस शाही खर्च की पीड़ा को सामने ला दिया है। कोई जवाब है!
चुनाव के नतीजे टीवी पर देखते हुए लगा कि दिल्ली ने भाजपा की आत्ममुग्धता, उसके नेतृत्व की अहंमन्यता और हर मोर्चे पर विफलता की कहानी लिख दी।
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