शीतला सिंह

लखनऊ में विधाई निकायों के पीठासीन अधिकारियों के सतहत्तरवें सम्मेलन में लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी समस्या सांसदों और विधायकों का वेल में जाना बताया गया। इसे रोकने के लिए कड़ी दंडात्मक व्यवस्था का भी सुझाव लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने दिया है, जिसके अनुसार ऐसे आचरण को सदन की सदस्यता समाप्त कर देने लायक माना जाना चाहिए। मगर इसके लिए कानून में व्यवस्था करनी पड़ेगी और यह लोकतांत्रिक इतिहास में एक नया अध्याय होगा। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल, जो समापन सत्र को संबोधित कर रहे थे, उन्होंने कहा कि प्रश्नकाल और शून्यकाल की कभी हत्या नहीं होनी चाहिए। मगर सदस्यों के विपरीत आचरण और व्यवहार के चलते ये भी नहीं हो पाते, क्योंकि सदन अव्यवस्थित हो जाता है। उनकी भी राय यही थी कि इस संबंध में कड़े निर्णय करने पड़ेंगे।

लोकतंत्र के प्रयोग में कहां-कहां, क्या-क्या खामियां आ रही हैं, उन्हें कैसे दूर किया जाए, इसके लिए नई व्यवस्थाएं भी करनी होंगी, लेकिन यह इस पर निर्भर करेगा कि सदस्यों की असहमति के अधिकार की सीमाएं क्या हों या उन पर भी अंकुश लगाया जाना चाहिए। चूंकि सरकार और सत्ता के पास असीमित अधिकार होते हैं, इसलिए असहमति के अधिकार के विभिन्न प्रयोगों से लोग इसे चुनौती देना चाहते हैं। माना जाता था कि कम से कम संसद अधिक मर्यादित हैं, उसमें अपने विरोधियों को सबक सिखाने के मकसद से धरने-प्रदर्शनों के समय इस्तेमाल की जाने वाली गतिविधियां कम होती हैं। मगर अब यह बात उसके बारे में भी नहीं कही जा सकती। वहां भी लोग उत्तेजित होकर सदन के वेल में पहुंचने लगे हैं।

सदन विचार के लिए होते हैं, इसलिए वहां गतिविधियां विचार और संबोधन तक ही सीमित होनी चाहिए। मगर तब यह तर्क दिया जाता है कि सत्तारूढ़ दल को भी अपने असीमित अधिकारों का प्रयोग करने से बचना चाहिए। मर्यादाएं स्थापित करने का सबसे बड़ा दायित्व तो सत्तारूढ़ दलों यानी सरकारों का है। ऐसे देश में जब इन सदनों की सदस्यता बहुमत के बजाय सबसे अधिक समर्थन वाली संख्या पर आधारित होती है, सरकारों के लिए यह नहीं माना जा सकता कि वे जनाधिकार संपन्न हैं। सरकार बनाने और चलाने के अधिकार सदन में निर्वाचित संख्या के बहुमत पर आधारित होते हैं। पर अभी तक देश में ऐसी कोई सरकार नहीं बनी, जिसे सकल जनसंख्या के दस प्रतिशत से अधिक का समर्थन रहा हो। इसलिए जिसे हम विपक्ष कहते हैं, बहुमत जनता भले विभाजित हो, वह सबसे अधिक जनता और मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करता है।

इसलिए सत्तारूढ़ दलों के प्रति रोष स्वाभाविक है, क्योंकि इस विभाजित जनमत में संसद और विधानसभा की अधिक सीटें तो प्राप्त की जा सकती हैं, जनता का समर्थन नहीं। चूंकि राजनीतिक दलों की दृष्टि में वर्गीय स्वार्थ ही मूल होते हैं, इनमें सहमति न होने के कारण देश में राजनीतिक दलों की संख्या बढ़ती जा रही है। जनता के आधे से अधिक का समर्थन प्राप्त सरकारें स्वप्न हो गई हैं। इसके कारण भी हैं।

कहा जाता है कि आधे से अधिक जनता अशिक्षित है, इसलिए एकल संक्रमणीय पद्धति नहीं अपनाई जा सकती, जिससे मतों की प्राथमिकताओं के आधार पर एक मत का भी विभाजन हो सकता है, मगर समाधान निकालने के लिए इस दिशा में कोई प्रयोग नहीं हुआ है, क्योंकि जो दल सत्ता में थे या पहुंचते हैं उनके लिए वर्तमान यानी अपेक्षया अधिक मत पाने वाला विजयी माना जाए, इसमें सहायक है। यही कारण है कि संविधान के मूल अधिकारों में जो व्यवस्थाएं की गई थीं वे भी पूरी नहीं हो पाई हैं।

समतावादी लोकतंत्र केवल कागजी हवाला बन गया है, जिसका परिणाम है कि जो जितना समर्थ है उतना ही अधिक लाभ उठाने वाला है। लोकतंत्र को बचाना फिलहाल देश की सबसे बड़ी आवश्यकता है, लेकिन उसका स्वरूप क्या होगा, जिसे हम जनता का वास्तविक शासन करार दे सकें, इस पर विचार करना ही पड़ेगा। मतदान की अनिवार्यता और उसके विभाजन के परिणामों को कैसे सुसंगत बनाया जाए, इस पर विचार आवश्यक हो जाता है।

संसद और विधान मंडलों में करोड़पति सदस्यों की संख्या बढ़ती जा रही है। पहली लोकसभा से लेकर आज तक इनकी संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। आज देश में छियालीस प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं, मगर वास्तविक रूप में सदनों में इन लोगों का कोई प्रतिनिधि नहीं है। उनका प्रतिनिधित्व भी धनिक वर्ग के लोग कर रहे हैं। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जो पात्रताएं निर्धारित की गई थीं, जिनका जनप्रतिनिधित्व कानून में भी हवाला दिया गया है, वे जैसे हाशिए पर चली गई हैं।

अब स्थिति यह है कि चुनाव में निर्णायक तत्त्व संपत्ति होती जा रही है। निर्वाचित लोग भले समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की शपथ लें, लेकिन हकीकत यह है कि इनमें से किसी ने भी उन्हें अपने जीवन में आत्मसात नहीं किया है। यह शपथ सत्ता और लाभ के लिए फर्ज अदायगी करना भर है। इसी प्रकार सत्ता में बैठे लोगों में भ्रष्टाचार और बेईमानी बढ़ती जाए, तो सदन भी स्वार्थों के लिए प्रयुक्त होने ही लगेगा, उनकी कथनी और करनी में फर्क भी दिखेगा। यही कारण है कि पिछले बीस वर्षों से सदन में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था के प्रति अधिकतर दलों ने समर्थन जताया था। केवल कुछ थोड़े से लोगों ने विरोध किया था, पर वह अस्तित्व में क्यों नहीं आ पाया?

इसलिए लोकतंत्र की कमियों, दोषों और बुराइयों पर बैठ कर विचार किया जाना चाहिए। अगर राजनीतिक दल चुनावों में अरबों रुपए खर्च कर रहे हैं, जबकि चुनाव खर्च की अधिकतम सीमा निर्धारित है, तो इस दोष निवारण के लिए कठोर कदम उठाया ही जाना चाहिए। इसके लिए यह प्रावधान हो कि खर्चा चाहे उम्मीदवार करे, उसकी पार्टी या मित्र, वह निर्धारित सीमा से अधिक नहीं होना चाहिए। जहां तक लोकतंत्र को बचाने का प्रश्न है, आखिरकार यह काम लोक ही करेगा, स्वार्थों के लिए समर्पित राजनीतिक दल नहीं। यह तभी संभव होगा जब लोकतंत्र को वास्तविक बनाने के लिए निर्वाचन पद्धति में सुधार किया जाए, जिसमें कोई भी व्यक्ति, जिसे कुल मतदाताओं का पचास प्रतिशत से अधिक का समर्थन न मिला हो, निर्वाचित न घोषित किया जा सके तभी राजनीतिक दल मिल बैठ कर वह रास्ता निकालेंगे। जब संयुक्त और गठबंधन की सरकारें हो सकती हैं, तो आधे से अधिक मतदाताओं का विश्वासपात्र सदस्य क्यों नहीं?

सबसे पहले इन सदनों को जनप्रतिनिधि मूलक बनाने की प्रक्रिया शुरू करनी होगी, जिससे सरकारों को जनाधिकार प्राप्त की श्रेणी में रखा जा सके। संसद और विधानसभा में निर्वाचित सदस्य तो हैं, लेकिन उन्हें जनता का वास्तविक प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता। वे सीमित वर्ग और उसके स्वार्थों का ही प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। जब चिंता लोकतंत्र के नाम पर हो, तो इस पर भी विचार किया जाना चाहिए।

यह प्रश्न पहले भी उठा था, लेकिन प्राथमिकताओं को कैसे चिह्नित किया जाए, यह मतदाताओं की निरक्षरता के कारण कठिन लग रहा था, क्योंकि पहली बार वोट डालने के लिए हर उम्मीदवार के अलग बक्से निर्धारित होते थे, जिसमें वह अपनी पसंद के उम्मीदवार का चयन करके मत डाल सके। गोंडा जिले में एक मामला ऐसा उठा कि जिलाधिकारी सहित छह संबद्ध अधिकारियों ने मिल कर बक्से की सील तुड़वा कर शासक दल के उम्मीदवार के पक्ष में मत डलवा दिया। इस मामले का खुलासा अदालत द्वारा हुआ। तब यह रास्ता चुना गया कि अब अलग बक्से नहीं, बल्कि एक ही पर्चे पर सारे उम्मीदवारों के नाम और चुनाव चिह्न होंगे, मतदाता अपनी पसंद के उम्मीदवार पर मुहर लगा सकता है।

अब तो इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (इवीएम) का इस्तेमाल शुरू हो गया, जिससे मशीन पर चिह्नित नाम या निशान दबा कर मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकता है। इसलिए अब नई पद्धति में सुधार किया जा सकता है कि पहली बार जिस चुनाव चिह्न को दबाए उसे पहली प्राथमिकता और उसके बाद अगर कोई बटन दबाता है तो उसे द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ प्राथमिकता मान लिया जाए। इसके लिए इवीएम मशीन में रंग भी निर्धारित किए जा सकते हैं, जो विभिन्न प्राथमिकताओं को दर्शाते हों। जब विज्ञान तमाम सारी कमियों को दूर कर रहा है, तो यह काम मुश्किल नहीं।

चुनाव चिह्न भी तो इसी के चलते अस्तित्व में आया था, क्योंकि सभी मतदाताओं के नाम चाहे किसी भी लिपि में क्यों न हो, निरक्षर होने के कारण पढ़ने में असमर्थ थे। इसीलिए चुनाव चिह्नों का सहारा लिया गया। अब तो जहां चालीस-पचास उम्मीदवार होते हैं उनके लिए भी अलग-अलग चिह्न खोज लिए जाते हैं।

शिक्षितों की संख्या भी निरंतर बढ़ती जा रही है, साक्षरों का अनुपात सत्तर के पास पहुंच रहा है। इसलिए एकल संक्रमणीय चुनाव पद्धति अपनाने के लिए पात्रताओं के नए मानक रंगों के आधार पर खोजे जा सकते हैं, लेकिन इसके लिए संसद की इच्छा चाहिए, क्योंकि जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन, परिवर्तन और परिवर्धन का अधिकार उसे ही है।

मगर वर्तमान चुनाव पद्धति का लाभ सभी दल उठा रहे हैं। उन्हें आधे मतदाताओं के समर्थन के बजाय बंटवारे में बड़ा दल होने का लाभ मिलता है। जाति, धर्म, संप्रदाय आदि की प्रवृत्तियां इसमें सहायक होती हैं, लेकिन अगर अनिवार्यता आधे से अधिक मत प्राप्त करना हो तो अधिकतर मामलों में यह चुनाव पद्धति निरर्थक हो जाएगी। इसलिए चुनाव में खर्च कोई भी करे, यह उम्मीदवार के खाते में ही पड़ना चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र में अगर दल बनाने की स्वतंत्रता का उपयोग करना है, जो अनुच्छेद-19 (1) में वर्णित है, तो मतदान में इस बात का ही ध्यान रखना चाहिए कि किसे आधे से अधिक लोगों का समर्थन मिला है।

यह सवाल उठेगा कि प्राथमिकताओं का प्रयोग अगर मतदाता न करना चाहें तो उन्हें बाध्य कैसे किया जाएगा, लेकिन जब कोई अन्य विकल्प शेष न रह जाए तभी बड़े खेमे को महत्त्व देना चाहिए। इसका तभी प्रयोग किया जाए जब अन्य विकल्प न रह गए हों। इसलिए लोकतंत्र को वास्तविक बनाने के लिए यह बहुत आवश्यक है कि जिन्हें हम जनाधिकार प्राप्त प्रतिनिधि मानते हैं वे सर्वाधिक मतों से ही निर्धारित हों, इसलिए वर्तमान दोषों और कमियों को दूर करने के साथ ही वास्तविक लोकतंत्र की रचना का प्रयत्न आवश्यक है।

 

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