विजय विद्रोही

उत्तर प्रदेश में संघ परिवार की तरफ से अचानक धर्मांतरण (जिसे वे घर वापसी कहते हैं) के कार्यक्रमों में तेजी आई है। संघ परिवार लंबे समय से अपनी यह मुहिम चला रहा है। उसका दावा है कि वह अब तक सात लाख लोगों की इस तरह घर वापसी करवा चुका है। लेकिन बहुत समय बाद ऐसा हुआ कि धर्मांतरण कैमरों में बाकायदा कैद किया गया (या कहें कि करवाया गया)। पहली बार ऐसा हुआ कि समाचार चैनलों पर इस पर लंबी-चौड़ी बहस हुई और संसद में भी लगातार मोदी सरकार को घेरा गया। राज्यसभा में तो विपक्ष ने मांग कर डाली कि धर्मांतरण पर बहस के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संसद में मौजूद रहें और पूरी बहस के बाद देश को बताएं कि वे आखिर इस विषय पर क्या सोचते हैं।

पहली बार ऐसा हुआ कि संघ परिवार की एक शाखा के एक पदाधिकारी का खत सामने आया। इसमें ईसाई के धर्मांतरण पर दो लाख और मुसलिम के धर्मांतरण पर पांच लाख रुपए खर्च करने की बात कही गई। पहली बार ऐसा हुआ कि मुसलिम से हिंदू बनाए गए कुछ लोगों ने स्वीकार किया कि वे बांग्लादेश के नागरिक हैं। ऐसे आरोप लगने के बाद संघ परिवार का एक वर्ग खासा नाराज भी हुआ। भाजपा ने जरूर इस आंदोलन की आड़ में धर्मांतरण रोकने का कानून बनाने की चुनौती विपक्ष के सामने रखी। विपक्ष इस पर दाएं-बाएं होता रहा और मोदी को घेरने की रणनीति बनाता रहा। लेकिन मोदी टस से मस नहीं हुए। जरा-जरा सी बात पर ट्वीट करने वाले मोदी ने इस गंभीर मसले पर खामोशी अख्तियार रखी।

ऐसा नहीं है कि पहली बार धर्मांतरण रोकने के लिए कानून बनाने की मांग देश में उठी हो। संघ परिवार शुरू से कहता आया है कि ईसाई मिशनरियां और मुसलिम संगठन लालच देकर धर्मांतरण करवाते हैं। अकेला संघ परिवार ही ऐसा है जो ऐसों की घर वापसी करवाता है। इस बार भी संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू ने कह दिया कि ईसाई मिशनरियों को विदेश से पैसा मिलता रहा है धर्मांतरण के लिए, और भाजपा तो शुरूसे यह चाहती रही है कि इस पर रोक लगाने के लिए कानून बने।
यह बात सही है कि ईसाई मिशनरियों ने आदिवासी इलाकों में धर्म परिवर्तन का अभियान चलाया था। 1869 के आसपास अंगरेजों ने भारत में ईसाई मिशनरियों को इस तरह के धर्म परिवर्तन करने की इजाजत दी थी। हालांकि एक सच्चाई यह भी है कि पिछले बीस सालों में संघ की शाखा वनवासी कल्याण परिषद के सक्रिय होने के बाद इस अभियान में कमी आई है और ‘घर वापसी’ का उलटा सिलसिला भी कुछ जगह शुरु हुआ है।

यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि अगर ईसाई मिशनरियों ने लालच में धर्म परिवर्तन करवाए तो वह गलत था, संविधान के खिलाफ था। लेकिन यही बात संघ परिवार पर भी लागू होती है, जो दो से पांच लाख रुपए खर्च करने की बात कर रहा है। 1967 में ओड़िशा और मध्यप्रदेश में कानून बना। अरुणाचल प्रदेश में 1978 में धर्मांतरण विरोधी कानून लागू हुआ। इस बीच गुजरात और छत्तीसगढ़ में 2003 में और हिमाचल प्रदेश में 2006 में ऐसा ही कानून लाया गया। राजस्थान समेत कुछ भाजपा शासित राज्यों के विधेयक राष्ट्रपति के पास अटके हुए हैं। 1954 और 1960 में संसद में ऐसे विधेयक भी रखे गए जो पास नहीं हो सके।

आखिरी बार 1979 में जनता पार्टी की सरकार ऐसा विधेयक लाई थी लेकिन मुसलिम और अन्य संगठनों के भारी विरोध के बाद विधेयक पेश नहीं किया जा सका था। भाजपा नेता सुधांशु त्रिवेदी का कहना है कि पचास और साठ के दशक में ईसाई मिशनरियों ने कोरोसीन की दवा देकर और बाइबिल पर हाथ रखवा कर आदिवासियों का जबरन धर्म परिवर्तन करवाया।

यह आरोप अपनी जगह सही हो सकता है। लेकिन तब की कोरोसीन की गोली और अब के दो से पांच लाख रुपए में क्या कोई फर्क किया जा सकता है! हैरानी की बात है कि दोनों ही मुद्दों पर मोदी चुप्पी साधे रहे। न तो कोई ट्वीट आया और न ही सूत्रों के हवाले से उनके नाराज होने की कोई खबर। यहां यह सवाल उठाया जाना इसलिए भी जरूरी है कि अगर उनके संसदीय कार्यमंत्री कानून बनाने की बात करते हैं तो देश को पता होना चाहिए कि प्रधानमंत्री इस पर क्या सोच रखते हैं। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि गुजरात में मुख्यमंत्री मोदी 2003 में धर्मांतरण विरोधी विधेयक लाए थे, जिसे तत्कालीन राज्यपाल सुंदर सिंह भंडारी ने मंजूरी भी दे दी थी। लेकिन मोदी ने उसे किन्हीं नामालूम वजहों से लागू नहीं किया।

इस कानून में 2006 में मोदी ने मुख्यमंत्री रहते हुए संशोधन करवाया था। संशोधन में कहा गया था कि जैन और बौद्ध भी हिंदू धर्म का हिस्सा हैं, लिहाजा आपस में धर्म परिवर्तन को धर्मांतरण नहीं माना जाएगा। इस संशोधित विधेयक को तब के राज्यपाल नवलकिशोर शर्मा ने रोक लिया था।

मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे ईसाई फोरम ने 2009 में गुजरात हाइकोर्ट में इस विधेयक को चुनौती दी। इस पर हाइकोर्ट ने गुजरात सरकार को नोटिस जारी किया। लेकिन अभी तक गुजरात सरकार ने नोटिस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। विधेयक जबरन या धोखे या लालच में कराए गए धर्म परिवर्तन को अवैध बताता है और तीन से चार साल तक की सजा का प्रावधान रखता है ।

धर्म परिवर्तन करने वाले को जिला मजिस्ट्रेट को एक महीने पहले सूचना देनी होगी। वे फिर आपत्तियों को आमंत्रित करके उस पर सुनवाई करेंगे और फैसला देंगे। यानी विधेयक में ऐसी व्यवस्था की गई थी कि धर्म परिवर्तन करने वाला पहले दस बार सोचे। लेकिन विधेयक यह भी कहता है कि अगर कोई अपने मूल धर्म में लौटना चाहे तो उस पर यह कानून लागू नहीं होगा।

आंबेडकर ने दलितों से बौद्ध धर्म अपनाने की अपील की थी और तब सवर्णों के अत्याचारों से त्रस्त दलितों ने बड़ी संख्या में धर्म परिवर्तन किया था। गुजरात के विधेयक में इसलिए भी यह संशोधन किया गया कि बौद्ध धर्म अपनाने वाले दलितों को मूल धर्म में लौटाने की कोशिशों में जिला मजिस्ट्रेट के पास जाने की जरूरत को निकाल दिया जाए। बड़ा सवाल यह भी उठता है कि आखिर जैन धर्म मानने वालों को दोबारा हिंदू बनाने की जरूरत क्या है। जैन खुद को अल्पसंख्यक घोषित करने की मांग करते रहे हैं और इसमें वे सफल भी हुए हैं। जो खुद को अल्पसंख्यक बता रहा है उसे गुजरात सरकार धर्मांतरण के घेरे से बाहर क्यों रख रही है!

इसी तरह मध्यप्रदेश विधानसभा में पारित धर्मांतरण विरोधी विधेयक को देखा जा सकता है। वहां 1967 से ही ऐसा कानून बना हुआ था। तब की कांग्रेस सरकार ने यह कानून बनवाया था। धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम नाम से बना यह कानून कहता है कि धर्म परिवर्तन करने वाले को एक महीने के भीतर जिला प्रशासन को सूचना देनी होगी कि उसने स्वेच्छा से अपना धर्म बदल लिया है । लेकिन भाजपा की शिवराजसिंह सरकार 2006 में संशोधित विधेयक लेकर आई। इसमें कहा गया कि जो धर्म बदलना चाहता है उसे एक महीने पहले जिला मजिस्ट्रेट को सूचित करना होगा, उसे बताना होगा कि वह कौन-सा नया धर्म अपनाने जा रहा है, क्यों अपनाने जा रहा है और धर्म परिवर्तन कौन धर्मगुरु संपन्न कराएगा।

विधेयक कहता है कि अगर किसी ने किसी महिला या अनुसूचित जाति या जनजाति के व्यक्ति का जबरन या धोखे या लालच से धर्म बदलवाया तो उसे एक साल तक की सजा हो सकती है। इस विधेयक में यह भी कहा गया कि मूल धर्म में लौटने पर उसे धर्मांतरण की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा, लिहाजा उस पर ये सारे प्रावधान लागू नहीं होंगे।

राष्ट्रपति ने इस विधेयक को रोक दिया तो पिछले साल वहां की सरकार एक नया विधेयक लेकर आई। उसमें धर्मगुरुओं को भी कानून के दायरे में लाया गया। कहा गया कि अगर किसी धर्मगुरु ने पंद्रह दिन पहले जिला मजिस्ट्रेट को यह नहीं बताया कि वह किसका धर्म परिवर्तन करवाने वाला है तो उसको भी एक साल की सजा दी जा सकती है। इस विधेयक में महिला, अनुसूचित जाति या जनजाति के किसी व्यक्ति का जबरन धर्म परिवर्तन करवाने वाले को चार साल तक की सजा हो सकती है, इसके अलावा उसे एक लाख रुपए का जुर्माना भी भरना पड़ सकता है। अन्य पर तीन साल तक की सजा और पचास हजार रुपए के जुर्माने का प्रावधान है।

छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने भी ऐसा ही विधेयक विधानसभा में पारित करवाया। यह भी राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए अटका पड़ा है। इसी तरह का विधेयक राजस्थान में पिछली वसुंधरा सरकार ने विधानसभा से पारित कराया था, जिसमें सजा पांच साल की रखी गई। यह विधेयक तब की राज्यपाल प्रतिभा पाटील ने लौटा दिया था। वसुंधरा सरकार ने फिर से विधेयक पास करवाया।

इस बार चूंकि राज्यपाल इसे रोक नहीं सकती थीं लिहाजा उन्होंने इसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया। उसके बाद खुद प्रतिभा पाटिल राष्ट्रपति बन गर्इं और विधेयक वहीं अटका रहा। अभी तक अटका है। इस विधेयक में भी कहा गया है कि मूल धर्म में स्वेच्छा से लौटने वालों पर यह कानून लागू नहीं होगा।

इन विधेयकों का ईसाई और अन्य संगठन इस आधार पर विरोध करते रहे हैं कि ये विधेयक संविधान के अनुच्छेद 19 और 25 के खिलाफ हैं जिनमें नागरिकों को किसी भी धर्म को अपनाने और उसका प्रचार-प्रसार करने की आजादी दी गई है। इनका कहना है कि संविधान तो इतनी आजादी देता है, जबकि ये विधेयक मजिस्ट्रेट को सारे अधिकार देते हैं। होना तो यह चाहिए कि स्वेच्छा से धर्म बदलने वाला जिला मजिस्ट्रेट को सूचित करे, न कि ऐसा करने की अनुमति मांगे। साफ है कि ज्यादातर आदिवासी, दलित और अन्य गरीब तबकों के लोग ही धर्म परिवर्तन की तरफ जाते हैं। ऐसे लोगों पर दबाव भी आसानी से बनाया जा सकता है। लिहाजा ईसाई मिशनरियों को हतोत्साहित करने के उद््देश्य से ही ये विधेयक लाए गए लगते हैं।

सवाल उठता है कि जब हमारे संविधान में साफ कहा गया है कि कोई भी नागरिक अनुच्छेद 25 के अनुसार स्वतंत्र रूप से किसी भी धर्म का आचरण करने और उसका प्रचार करने का अधिकार रखता है, धोखे से या लालच से या जबरन धर्मांतरण करवाने वाले को धारा 295 (क) के तहत एक साल की सजा हो सकती है, फिर क्यों कुछ राज्य सरकारें धर्म परिवर्तन पर अलग से कानून बनाना चाहती हैं? हमें यह भी देखना चाहिए कि इन कानूनों का कितना इस्तेमाल इन राज्यों में जबरन धर्म परिवर्तन रोकने के लिए किया गया।

 

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