अरुण माहेश्वरी

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत में अपने अंतिम भाषण में भारतीयों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करने वाली संविधान की उस धारा 25 की याद दिलाई जिस धारा को बदलना आज आरएसएस के प्रमुख उद्देश्यों में एक है। सऊदी अरब से अपने देश लौट कर एक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय प्रार्थना सभा में उन्होंने फिर से कहा कि भारत एक खूबसूरत देश है, लेकिन पिछले कुछ सालों से वहां तमाम लोगों के धार्मिक विश्वासों के प्रति जो असहिष्णुता बढ़ी है उससे, अगर महात्मा गांधी होते तो, उन्हें गहरा सदमा लगता।

एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष की, वह भी अमेरिका जैसे महाशक्तिशाली देश के राष्ट्राध्यक्ष की ऐसी बेबाक टिप्पणी से एकबारगी किसी को लग सकता है कि यह मर्यादा का उल्लंघन और भारत के अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप है। लेकिन इस बात को समझने की जरूरत है कि आखिर ओबामा इतने उतावलेपन के साथ ऐसी बातों को क्यों दोहरा रहे हैं।

यह तो निश्चित है कि वे कोई हवाई बातें नहीं कर रहे हैं। भारत में वे जिस धार्मिक असहिष्णुता के बढ़ने की ओर ओबामा इशारा कर रहे हैं, वह कोई अमूर्त चीज नहीं है। उनका साफ संकेत उस धार्मिक असहिष्णुता की ओर है, जिसे फैलाने में आरएसएस अपने जन्मकाल से ही लगा हुआ है। ओबामा और अमेरिकी प्रशासन को इस बारे में रत्ती भर संदेह नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विकास और दूसरे प्रकार की तमाम आडंबरपूर्ण बातें कितनी भी क्यों न करें, अंततोगत्वा वे इसी संघ परिवार के एक अभिन्न अंग हैं; उन पर आरोप लगते रहे हैं कि 2002 के गुजरात जन-संहार केसमय, मुख्यमंत्री रहते हुए, उन्होंने अपने संवैधानिक कर्तव्य से आंख मूंद ली थी।

अमेरिका दुनिया के उन प्रथम देशों में एक है जिसने 1950 के जमाने में ही आरएसएस के संगठन और उसकी विचारधारा के बारे में सुव्यवस्थित ढंग से अध्ययन करना शुरू कर दिया था। सीआइए द्वारा पोषित अमेरिकी संस्था ‘इंस्टीट्यूट ऑफ पैशिफिक रिलेशन्स’ के तत्त्वावधान में जेए कुर्रान जूनियर द्वारा किया गया शोध, ‘मिलिटेंट हिन्दुइज्म इन इंडियन पॉलिटिक्स: ए स्टडी ऑफ द आरएसएस’ को आरएसएस के बारे में किया गया शायद अपने ढंग का पहला विस्तृत अध्ययन कहा जा सकता है। सन 1951 में ही कुर्रान के इस शोध का प्रकाशन हो गया था और तब से लेकर अब तक अमेरिकी सत्ता-संस्थान इसी के आधार पर आरएसएस की हर गतिविधि का अद्यतन लेखा-जोखा रखता आ रहा है।

वर्तमान संदर्भ में थोड़ा अप्रासंगिक होने पर भी यहां यह बताना उचित होगा कि 1950 का वह समय दुनिया में शीतयुद्ध का समय था। उस समय किए गए इस शोध में भारत को ‘स्तालिन ऐंड कंपनी’ के हाथ से बचाने के एक कट्टर कम्युनिस्ट-विरोधी औजार के तौर पर भी आरएसएस को चिह्नित किया गया था। इसके बावजूद, इसमें एक सांस्कृतिक संगठन के आरएसएस के नकाब को तार-तार करते हुए उसके सांप्रदायिक राजनीतिक उद््देश्यों और उसके संगठन के गोपनीय, षड्यंत्रकारी चरित्र को बहुत ही वस्तुनिष्ठ ढंग से पेश किया गया था। इसके साथ ही, इस शोध के अंत में इस निष्कर्ष पर भी पहुंचा गया था कि ‘ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं जिनमें फिलहाल छोटी-सी शक्ति का यह संगठन भारत के सर्वोच्च आसन को पा ले।’

कुर्रान के उस शोध के प्राक्कथन की पहली पंक्ति ही थी: ‘यह एक उग्रवादी हिंदू संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अध्ययन है जो भारतीय गणतंत्र में राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए प्रयत्नशील है।’ उन्होंने आगे लिखा: ‘चूंकि (केंद्रीय) सरकार धर्मनिरपेक्ष नीति से प्रतिबद्ध है, इसीलिए आरएसएस के आदर्शो की खुली घोषणा से उसकी गतिविधियों पर पाबंदी लग सकती है। आरएसएस उस वक्त तक सरकार से वैर मोल लेना नहीं चाहता जब तक वह इस बात से आश्वस्त न हो जाए कि उसमें सरकार से निपट लेने की यथेष्ट शक्ति आ गई है।’

कुर्रान के उस शोध का तीसरा अध्याय था- आरएसएस का कार्यक्रम। इसमें आरएसएस के संविधान की धारा 3 और 4 के उद्धरण के जरिए उसके घोषित लक्ष्यों का उल्लेख करने के बाद ही कुर्रान ने साफ शब्दों में लिखा था कि ‘‘इस संविधान से संघ को हिंदू समाज के जिस प्रकार के सुदृढ़ीकरण और पुनर्जीवीकरण को समर्पित बताया गया है, उसकी कोई साफ तस्वीर सामने नहीं आती। इसमें एक हिंदू राष्ट्र की उग्र तथा असहिष्णु पैरवी का कोई संकेत नहीं है। दरअसल, संघ के संविधान में औपचारिक तौर पर घोषित उद््देश्यों और संघ की वास्तविक योजनाओं में बुनियादी तौर पर फर्क है।… उसके संविधान में उल्लिखित सहिष्णु हिंदू दर्शन तथा उसके सदस्यों में कूट-कूट कर भरे गए उन्मादपूर्ण हिंदू-परस्त और अहिंदू-विरोधी लक्ष्यों के बीच कोई संगति नहीं है। संविधान और उनका घोषित दर्शन संघ के वास्तविक उद्देश्यों का धुंधला और छल भरा प्रतिबिंब ही है।’’

आरएसएस का राजनीति से कोई संबंध न होने की बात को भी इसमें सरासर झूठ और हास्यास्पद कहा गया है। वह अपने को एक सांस्कृतिक संगठन कहता है, लेकिन संस्कृति से उसका तात्पर्य कभी भी वह नहीं रहा है जो आमतौर पर समझा जाता है। संस्कृति उसके लिए सिवाय राजनीतिक वर्चस्व कायम करने के, और कुछ नहीं है।

कहने का तात्पर्य यह है कि आरएसएस अपने आप में एक गुप्त ढंग से काम करने वाला राजनीतिक संगठन होने के बावजूद सारी दुनिया इस संगठन के विचारधारात्मक स्रोत, इसके काम करने के षड्यंत्रकारी तौर-तरीकों से भलीभांति परिचित है। अमेरिकी प्रशासन तो खासतौर पर लंबे अरसे से उस पर गहराई से नजरें टिकाए हुए है। यही वह प्रमुख कारण था कि अमेरिकी प्रशासन ने नरेंद्र मोदी को अमेरिका का वीजा नहीं दिया था। सरकार बना लेने के बाद भी, सिर्फ विकास-विकास का राग अलापने से आरएसएस स्वत:स्फूर्त ढंग से दुनिया की नजरों के संदेह के घेरे से बाहर नहीं आ गया है। ऊपर से, संघ परिवारियों के ‘घर-वापसी’ अभियान, अल्पसंख्यकों के उपासना-स्थलों पर हमलों और ऐसी दूसरी कारगुजारियों से यह संदेह का घेरा ज्यादा विस्तृत और गहरा ही हुआ है।

इसके अलावा, यह समझने की बात है कि 1950 से लेकर 1990 तक की दुनिया की परिस्थिति और आज की दुनिया की परिस्थिति में जमीन-आसमान का फर्क आ चुका है। 1990 में समाजवाद के पराभव के साथ ही शीतयुद्ध का वह काल समाप्त हो चुका था, जब सोवियत प्रभाव को रोकने के लिए अमेरिका ने जिन ताकतों का खुल कर प्रयोग किया उनमें धार्मिक कट््टरपंथी और जेहादी ताकतें भी शामिल थीं। इस मायने में भारत में भी आरएसएस को निश्चित तौर पर अमेरिकी समर्थन मिलता रहा था। 1990 के राम जन्मभूमि आंदोलन के समय सारी दुनिया में विश्व हिंदू परिषद की शाखाओं के फैलाव में अमेरिकी प्रशासन की कितनी भूमिका रही, इस पर शोध करने की जरूरत है। फिर भी, इतना तो सर्वविदित है कि राम मंदिर आंदोलन में अमेरिका से भारी मात्रा में पैसा आया करता था।

लेकिन 1990 के बाद का अमेरिकी अनुभव इस बात का गवाह है कि जिन धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों को उसने कम्युनिस्टों को रोकने के लिए पैदा किया था, वे ही परवर्ती दिनों में भस्मासुर की तरह अमेरिका के लिए ही खतरा बन गर्इं। इस नई सदी के प्रारंभ में ही, उन ताकतों ने न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को ढहा कर अमेरिका को ही अपने हमले का निशाना बना लिया।

सारी दुनिया के राजनीतिक टिप्पणीकारों ने तब एक स्वर में कहा था कि 9/11 के बाद, अब दुनिया वैसी नहीं रही जैसी अब तक थी। ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ की तरह की नई विचारधारात्मक दलीलें सामने आने लगीं और धार्मिक उग्रवाद अमेरिका के एक प्रमुख शत्रु के रूप में देखा जाने लगा। अफगानिस्तान, इराक, पूरा मध्य एशिया और पाकिस्तान का भी उत्तर-पश्चिमी सीमांत इलाका तब से लगातार धधक रहा है।

आज नरेंद्र मोदी, भारत और ओबामा के संदर्भ में इन चर्चाओं का तात्पर्य यही है कि जो धार्मिक कट््टरवाद किसी समय अमेरिकी विदेश नीति का एक प्रमुख औजार हुआ करता था, वही आज उसका शत्रुमाना जाता है। और, नरेंद्र मोदी की विडंबना यही है कि वे जिस आरएसएस से निकले हैं, अमेरिकी दृष्टिकोण में आज के समय में वह कमोबेश वैसे ही तत्त्वों की श्रेणी में पड़ता है जिन्हें अमेरिका अपना प्रमुख शत्रु मान रहा है। यही कारण है कि ओबामा प्रधानमंत्री मोदी के सारी भंगिमाओं से परे, उनके राजनीतिक उत्स, भारत की मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों को लेकर कहीं ज्यादा सशंकित हैं। भारत की अंदरूनी राजनीति के और भी तमाम पहलुओं पर उनकी निगाहें लगी हुई हैं।

जहां तक भारत को एक विशाल बाजार के रूप में पाने का सवाल है, अमेरिका जानता है कि इस मामले में मनमोहन सिंह भी उसके कम सहयोगी नहीं थे। भारत में आर्थिक उदारवाद के अग्रदूत वे ही थे। और आज भी कांग्रेस अपनी उन नीतियों से जरा भी पीछे नहीं हटी है। इसके विपरीत, भारत जैसे एक एटमी शक्ति वाले विशाल देश में आरएसएस जैसी ताकत के उभार के दूरगामी परिणामों को लेकर वह और भी शंकित हो उठता है। भारत में मोदी जिस प्रकार सारी सत्ता को अपने हाथों में केंद्रीभूत करके पड़ोसी देशों पाकिस्तान, नेपाल आदि पर धौंस जमाने की कोशिश कर रहे हैं उससे भी एक जंगखोर विस्तारवादी शक्ति के उभार की अतिरिक्त आशंका पैदा होती है।

यह सच है कि अमेरिका भारत को अपनी सामरिक विश्व-रणनीति का हिस्सा बनाना चाहता है, लेकिन उतना ही बड़ा सच यह भी है कि वह यह काम पाकिस्तान की कीमत पर नहीं करना चाहता। उसका यही रुख इस बात का संकेत है कि एक विशाल, उन्मादित शक्ति के भरोसे वह इस क्षेत्र में अपनी कोई रणनीति तैयार करना नहीं चाहता। आरएसएस की विचारधारा से परिचित होने के नाते कोई भी इसमें एक और हिटलर के जन्म की आशंकाओं को देख सकता है, जिसने सारी मानवता के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगा दिया था। इसीलिए ओबामा द्वारा भारत के संदर्भ में बार-बार धार्मिक असहिष्णुता का उल्लेख और महात्मा गांधी का स्मरण अकारण नहीं है।

 

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