केसी त्यागी
पिछले वर्ष अगस्त में भारत-पाकिस्तान के विदेश सचिवों की होने वाली बैठक भारत सरकार ने निरस्त कर दी थी। तर्क दिया गया कि हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेताओं के साथ पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित की मुलाकात से ‘रचनात्मक प्रक्रिया’ को झटका लगेगा। दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि इस प्रकार की मुलाकातों का सिलसिला पिछले पचास वर्षों से निरंतर जारी है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान भी इसी प्रकार की मुलाकातों और यात्राओं और भोज निमंत्रण आदि का सिलसिला जारी रहा। इस बार 44+ के लक्ष्य के साथ जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में उतरी भारतीय जनता पार्टी पीडीपी के साथ मिल कर वहां अब सरकार बनाने की प्रक्रिया में है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर में सरकार के गठन की प्रक्रिया को तीव्र बनाने के लिए ‘क्रिकेट कूटनीति’ का बहाना बना कर पुन: विदेश सचिव स्तर की वार्ता को न सिर्फ हरी झंडी दी है बल्कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से कुशल क्षेम भी पूछी है। यों प्रधानमंत्री ने कथित क्रि केट कूटनीति के नाम पर क्रिकेट के विश्वकप में हिस्सा लेने वाले अन्य सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को भी फोन कर उनकी टीमों के लिए शुभकामनाएं दीं, पर इनमें ज्यादा महत्त्व शरीफ से हुई बातचीत का ही है, क्योंकि पाकिस्तान से भारत के रिश्ते महीनों से खटास भरे रहे हैं। सार्क देशों के शिखर सम्मेलन के दौरान काठमांडो में हुई वार्ता के वे चित्र भी सामने आए जब सम्मेलन में नवाज शरीफ की तरफ देखना भी नरेंद्र मोदी को गवारा नहीं था। जबकि कूटनीति में वार्ता के द्वार बंद होने पर भी संकेतों की भाषा जारी रखी जाती है। महीनों बाद मोदी सरकार के रुख में अचानक आए इस बदलाव को समझना जरूरी है।
26 अक्तूबर 1947 तक रियासत का नेतृत्व महाराजा हरीसिंह, जो कि डोगरा वंश के एक हिंदू राजा थे, के द्वारा नियंत्रित था। किन परिस्थितियों में हरीसिंह ने कश्मीर का भारत में विलय स्वीकार किया, जबकि कश्मीर मुसलिम बहुमत वाली रियासत थी, इस पर चर्चा करना आज का मुद््दा नहीं है। भारतीय जनता पार्टी जिस धारा 370 का आज विरोध करती है, उस धारा का विरोध मंत्रिमंडल की बैठक में शामिल रहे डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नहीं किया था। मुखर्जी हिंदू महासभा के नेता के रूप में कैबिनेट का हिस्सा थे और बाद में भारतीय जनसंघ के प्रथम संस्थापक अध्यक्ष हुए। सन 1950 में नेहरू-लियाकत समझौता लागू करने के सवाल पर उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और ‘दो संविधान, दो झंडे, दो निशान’ के विरोध में सत्याग्रह किया। बाद में शेख अब्दुल्ला के मुख्यमंत्री रहते दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। भाजपा और संघ के लोग इसे भी अब्दुल्ला की साजिश करार देते हुए तभी से नारा लगाते आ रहे हैं, ‘जहां कुर्बान हुए मुखर्जी, वह कश्मीर हमारा है।’
अब परिस्थितियां बदल रही हैं। मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती की अगुआई वाली पीडीपी ने जम्मू-कश्मीर में सरकार के गठन को लेकर एक लंबे प्रस्ताव का मसविदा भाजपा नेताओं को सुपुर्द किया है। इस मसविदे में ग्यारह प्रमुख मांगों का उल्लेख किया है जिनमें धारा 370 को प्रभावी बनाना, अफस्पा (सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून) को निष्प्रभावी करना, पाकिस्तान से वार्ता जारी रखना, घाटी में हुर्रियत नेताओं को इसमें शामिल करना, सभी राजनीतिक बंदियों की रिहाई और उनके खिलाफ चल रहे मुकदमों की वापसी और सेना द्वारा इस्तेमाल की जा रही भूमि को खाली कराना, विद्युत परियोजनाओं को लौटाना, कोयला खदानों का आबंटन, सिंधु जल संधि का मुआवजा आदि मांगें शामिल हैं।
अपने मुख्य चुनावी घोषणापत्र और नीति वक्तव्य को पीडीपी ने एक दस्तावेज के रूप में प्रस्तुत किया है जो ‘सेल्फ रूल’-2008 के नाम से प्रसिद्ध है। भाजपा की विचारधारा पीडीपी की घोषित नीतियों के एकदम विपरीत रही है।
2008 में अमरनाथ विवाद, जो कि अमरनाथ श्राइन (देवालय) बोर्ड को जमीन मुहिया कराने पर उठा था, उसमें पीडीपी पूरी तरह से विरोध में थी और भाजपा ने जीतेंद्र सिंह के नेतृत्व में जम्मू में लगभग तीन महीने की हड़ताल कराई थी। डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी को स्वायत्तता की मांग कड़वी लगती थी और भाजपा पारंपरिक रूप से कश्मीर की स्वायत्तता का विरोध करती आई है। पर आज सत्ता-लाभ के लिए वह ‘सेल्फ रूल’ (स्वशासन)-प्रेमी पीडीपी से भी गठजोड़ करने को राजी है।
सन 2008 में प्रकाशित ‘सेल्फ रूल फ्रेमवर्क फॉर रेसोल्युशन’ में पीडीपी ने साफ-साफ बताया है कि उनका मिशन सेल्फ रूल (स्वशासन) है, न कि स्वायत्तता। प्रस्ताव के अनुसार, सेल्फ रूल स्वायत्तता से पूरी तरह अलग अवधारणा है। उनका मानना है कि सेल्फ रूल राजनीतिक विलय के लिए आवश्यकता के बिना प्रभुता को साझा करने का एक तरीका है।
इस प्रस्ताव के अंतर्गत पीडीपी ने कई संवैधानिक पुनर्गठनों की, नई राजनीतिक अधिरचना की और आर्थिक एकीकरण की मांग की है। पीडीपी के राजनीतिक पुनर्गठन के प्रस्ताव को अगर संक्षेप में देखें इसमें धारा 370 को बरकरार रखने की मांग तो है ही, धारा 249 को हटाने की मांग भी पीडीपी ने की थी, ताकि संसद राज्य के मामलों में हस्तक्षेप न कर पाए। साथ ही धारा 251 में से धारा 249 का संदर्भ हटाने की उसकी मांग है। पीडीपी का कहना है कि धारा 368 अनुपयुक्त है, क्योंकि यह स्वशासन की अवधारणा के विपरीत है। यही कारण है कि वह धारा 356 को भी हटाने की वकालत करती आई है।
‘सिक्स्थ एमेंडमेंट आॅफ स्टेट’, जिसके अनुसार सदर-ए-रियासत के पद (राज्यपाल) पर नियुक्ति अब राष्ट्रपति करते हैं, पीडीपी के अनुसार सेल्फ रूल की संकल्पना को कमजोर करता है। वे आॅल इंडिया सर्विसेज एक्ट को भी कश्मीर के संदर्भ से हटाना चाहते हैं, जिसके कारण, पीडीपी के अनुसार, सभी महत्त्वपूर्ण कार्यालय आॅल इंडिया सर्विसेज के कैडर के अफसरों से परिपूर्ण हैं। इनके अलावा वे और कई सारे संवैधानिक बदलाव चाहते हैं। पीडीपी का मानना है कि ये सभी धाराएं सेल्फ रूल के मार्ग को अवरुद्ध करती हैं।
आर्थिक क्षेत्र में पीडीपी ‘ग्रेटर जम्मू एंड कश्मीर’ में दोहरी मुद्रा का प्रसार चाहती है, जिसके अनुसार इस भौगोलिक क्षेत्र में भारतीय और पाकिस्तानी दोनों मुद्राएं वैध होंगी। पीडीपी के अनुसार ‘प्रीफरेंशियल ट्रेड एग्रीमेंट’ होना चाहिए जो कि कई प्रकार के शुल्क (टैरिफ) घटाएगा। इसकी दूसरी अवस्था में ‘वृहत्तर जम्मू-कश्मीर’ को एक मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने की अवधारणा है, जहां भारतीय आयात पर भी ‘वृहत्तर जम्मू-कश्मीर’ के नियमानुसार शुल्क लागू होंगे।
देखा जाए तो पीडीपी की कई मांगें असुविधाजनक और अव्यावहारिक हैं। वहीं भारतीय जनता पार्टी पंचम स्वर में हमेशा राष्ट्रवाद का नारा लगाती आई है। तो क्या कारण है कि आज स्वघोषित राष्ट्रवादी भारत से स्वशासन की मांग करने वाली पीडीपी से राखी बंधवाने को तैयार हैं? भाजपा परंपरागत रूप से धारा 370 का विरोध करती आई है, पर आज न जाने किस दैवयोग से एक ऐसी पार्टी के साथ गठजोड़ करने को तैयार है जो न केवल धारा 370 को सुनिश्चित करती है बल्कि जम्मू-कश्मीर में सेल्फ रूल या स्वशासन की मांग उठाती आई है। यही ही नहीं, जो भाजपा अफस्पा यानी सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून की सबसे ज्यादा वकालत करती थी, वह आज अफस्पा के प्रतिकूल राग अलापने लगी है।
श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि आबंटन संबंधी विवाद का अभी कोई सर्वमान्य हल नहीं निकल पाया है, जिस विवाद का नेतृत्व जम्मू में भारतीय जनता पार्टी और घाटी में पीडीपी ने किया था। 2008 में पीडीपी और कांग्रेस के गठबंधन में उस समय दरार पैदा की गई थी जब महबूबा मुफ्ती ने श्राइन बोर्ड को अस्थायी निर्माण के लिए दी जाने वाली 99 एकड़ वनभूमि का करार तुरंत समाप्त न किए जाने पर राजनीतिक संकट और बड़े आंदोलन की धमकी दे डाली। एक जुलाई 2008 को आंदोलनकारियों (मुख्यत: पीडीपी और हुर्रियत कॉन्फ्रेंस) के दबाव में वह अस्थायी आदेश वापस लेना पड़ा था।
पीडीपी ने गुलाम नबी आजाद सरकार से न सिर्फ समर्थन वापस लिया बल्कि इस आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाने में बड़ी भूमिका अदा की थी। हिंसा की घटनाओं में कई दर्जन लोगों की मौत हुई, हजारों घायल हुए। उस समय आंदोलनकारियों द्वारा हाइवे जाम कर लगाए गए मार्ग-अवरोध को भाजपा ने आइएसआइ द्वारा संचालित कारगुजारी बताया था।
जम्मू संभाग में इस आंदोलन की प्रतिक्रिया में चले आंदोलन का नेतृत्व भाजपा के नेता लीलाकरण शर्मा और जीतेंद्र सिंह (अब केंद्र सरकार में मंत्री) कर रहे थे। इकसठ दिनों तक जम्मू संभाग पीडीपी की तरफ से चले आंदोलन के विरोध में बंद रहा। घाटी में इस टकराव की परिणति 11 अगस्त 2008 को अब तक सबसे बड़े प्रदर्शन के रूप में हुई, जिसमें पांच लाख से अधिक कश्मीरियों ने इस्लामाबाद की ओर कूच किया था। मुफ्ती मोहम्मद सईद के ताजा साक्षात्कार संघ परिवार के लिए मुसीबत बने हुए हैं, जिनमें उन्होंने प्रथम संविधान, सेल्फ रूल में निहित संसद के कानूनों को घाटी में निष्प्रभावी होने देने, दोनों संविधानों के प्रति निष्ठा व्यक्त करने, केंद्र और राज्य दोनों की ध्वजाओं के प्रति साझा सम्मान प्रदर्शित करने, धारा 370 के बगैर कश्मीर का भारत में विलय निरुद्ध होने, पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को स्थायी नागरिकता प्रदान करने जैसी बातें प्रमुख हैं।
सभी की निगाहें अब तक के सबसे बेमेल, अवसरवादी गठजोड़ की ओर लगी हैं। घाटी-निवासी भी इस पर बड़ी हैरानी से सोच रहे हैं कि घर वापसी, लव जेहाद, हिंदू राष्ट्र, मुसलिम पर्सनल लॉ में बदलाव, समान नागरिक संहिता, धारा 370, सेल्फ रूल, हुर्रियत वार्ता, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर समेत समूचे कश्मीर में समान व्यापार, आदि मुद््दों का साझा न्यूनतम कार्यक्रम से तालमेल किस प्रकार बैठेगा। कोई एक लाख नौजवान ‘आजादी’ की तलाश में गायब हैं’। उनकी घर वापसी और पुनर्वास की क्या व्यवस्था होगी, यह भी प्रमुख प्रश्न है।
कश्मीर में सड़सठ वर्ष के बाद भगवा फहराने की जिद क्या डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी की ‘शहादत’ और भाजपा की विचारहीनता, बांग्लादेश में पाक जनरल नियाजी की आत्म-समर्पण की यादों की वापसी करेगी? इतिहास तय करेगा कि डॉ मुखर्जी की कौन-सी मृत्यु संघ परिवार को ज्यादा पीड़ा देगी, शारीरिक या वैचारिक!
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