इस समय देश में कुछ परीक्षाओं के परिणाम आ चुके हैं और कुछ आने वाले हैं। कहने की जरूरत नहीं कि बच्चों के साथ ही उनके अभिभावक भी बच्चों के परीक्षा परिणाम और उनके भविष्य को लेकर भारी दबाव में रहते हैं। यह परीक्षा परिणाम से उपजे मानसिक दबाव का ही दुष्परिणाम है कि उत्तर प्रदेश माध्यमिक बोर्ड का परिणाम आते ही कई बच्चों ने अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि पिछले चार-पांच साल में खराब नतीजों के चलते कई बच्चे खुदकुशी कर चुके हैं। फिलहाल इस गंभीर मुद्दे पर चिंतन और मनन की आवश्यकता है। कहना न होगा कि परीक्षा में हासिल अंकों से नाखुश होकर अकेले पश्चिम उत्तर प्रदेश के तीन बच्चों ने आत्महत्या कर ली। पहली घटना मुजफ्फरनगर की है जहां एक छात्रा ने कम नंबर आने की वजह से ट्रेन के आगे कूद कर जान दे दी। दूसरी घटना बुलंदशहर जिले की है, जहां इंटर के एक छात्र ने फेल होने पर फांसी लगा ली। तीसरी घटना में बरेली जिले के एक हाईस्कूल की छात्रा ने आग लगा कर इसलिए जान दे दी कि वह स्कूल में अव्वल नहीं आ पाई थी। अगर देखा जाए तो इन तीनों ही घटनाओं में समानता यह है कि तीनों ने ही खेलने-खाने और भविष्य के सपने बुनने की उम्र में यह आत्मघाती कदम उठाया। तीनों ही बच्चे कहीं न कहीं अपने भविष्य के बारे में खुद की राय को अलग रखते हुए परीक्षा में अच्छे अंक लाने को लेकर अपने-अपने परिवारों के दबाव में थे। बच्चों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति के विषय में हम कभी परीक्षाओं के साथ-साथ अच्छे परिणाम का दबाव, तो कभी अभिभावकों की अपेक्षाओं को दोषी ठहराते हैं। परंतु हम यह भूल रहे हैं कि आज का वैश्विक दौर कड़ी प्रतिस्पर्धा का है। जिंदगी की इस होड़ ने बच्चों की नींद उड़ा दी है। बच्चे रोजगार से जुड़े भविष्य को लेकर असमंजस की स्थिति में हैं। इसलिए बच्चे अब पहले की तुलना में ज्यादा निर्मम, आक्रामक और एकल होते जा रहे हैं। अगर आज बच्चे की वास्तविक जिंदगी में परीक्षा परिणाम तक असहनीय हो रहा है तो इसके लिए कहीं न कहीं हमारा पारिवारिक व शैक्षिक माहौल दोषी है। कहने की जरूरत नहीं कि आज बच्चों का स्वाभाविक नैसर्गिक विकास बाधित हो रहा है। उनका बचपन तमाम तरह की विसंगतियों से भरता जा रहा है। गौरतलब है कि बच्चों का घर से भाग जाना, आक्रामक होना, एकांत में रहना, दोस्तों के दबाव में रह कर लगातार सोशल मीडिया में डूबे रहना जैसे कारकों की पृष्ठभूमि इसी पारिवारिक और शैक्षिक माहौल में तैयार हो रही है।
बच्चों के कैरियर विकास के दबाव और माता-पिता की बच्चों से असीम अपेक्षाओं के कारण बच्चे जो आत्मघाती कदम उठा रहे हैं, उसके लिए केवल बच्चों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए बच्चों को समाज की शैक्षिक मांग और समाज की परिस्थितियों के अनुकूल ढालने और कैरियर संबंधी विकास को निश्चित दिशा देने का काम भी परिवार व स्कूल जैसी संस्थाओं का ही है। शहरों और महानगरों में अब शैक्षिक और भौतिक जीवन की प्राथमिकताओं में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। इसका ज्ञान न तो परिवार और न ही स्कूल दे रहे हैं। यही कारण है कि स्कूल व परिवारों में बेहतर शिक्षण और बेहतर देखभाल चुनौती बन रही है। बच्चों द्वारा उठाए जा रहे इन आत्मघाती कदमों के लिए सामाजिक माहौल भी कम दोषी नहीं है। आज संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और एकल परिवार समाज के आदर्श बन रहे हैं। बच्चों का बचपन धीरे-धीरे सूना हो रहा है। माता-पिता और बच्चों के बीच स्वस्थ संवाद न रहने से सामाजिक और शैक्षिक दुनिया का उपयोगी परिचय बच्चों के जीवन से फिसल रहा है। यह इसी का परिणाम है कि बच्चों में सामूहिकता, धैर्य व संयम, अनुशासन, मूल्य व परंपराएं और संवेदनाएं जैसे शब्द उनके एकल जीवन से खिसक रहे हैं। इसी संदर्भ में यहां यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि यह स्कूल, माता-पिता और बच्चों के बीच स्वस्थ संवाद न होने का ही परिणाम है कि आज की फिल्में, दूरदर्शन, चैनलों और सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यम इन एकल परिवारों में सेंध लगा कर बच्चों के बीच परिवार व स्कूल के स्थानापन्न बन रहे हैं। बच्चों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति परीक्षा और उसके परिणाम के चलते कम, बल्कि परिवारों में उनके कैरियर से जुड़ी गला काट प्रतिस्पर्धा की प्रवृत्ति को लगातार बढ़ाने के कारण अधिक हो रही है। शोध बताते हैं कि भारतीय सामाजिक ढांचे में आ रहे सतत बिखराव, शिक्षा व बच्चों के कैरियर विकास के बीच बढ़ती दूरी और अनभिज्ञता, संयुक्त परिवार प्रणाली का विखंडन, नगरों में माता-पिता के कार्यशील होने से बच्चों की उपेक्षा जैसे कारक इसके लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी हैं। वास्तविक स्थिति यह है कि आज मां-बाप अपने बच्चों की तुलना अन्य बच्चों से करने के साथ-साथ अपना ध्यान बच्चों पर कम, उनके परीक्षा नतीजे पर ज्यादा टिकाए रहते हैं। मां-बाप की इस सोच का दुष्परिणाम यह है कि परीक्षाओं में अथवा परीक्षा के परिणामों में बच्चों का श्रेष्ठ प्रदर्शन न होने पर मां-बाप बच्चों के प्रति उपेक्षा का भाव रखने लगते हैं। मनोचिकित्सकों का भी मानना है कि स्वयं को आत्महत्या की ओर ले जाने वाले बच्चे गहरे अवसाद में पहुंच जाते हैं। अवसाद की यह स्थिति बच्चों में पनपते असफलता के भाव अथवा अप्रत्याशित त्रासदी अथवा सदमे का ही परिणाम होती है।
वर्तमान में तेजी से पनप रहे कैरियर विकास अथवा बच्चे के कक्षा में अव्वल बने रहने के मनो-भय से जुड़ी निरंतर प्रताड़ना बच्चों को गहरे अवसाद, निराशा और उन्हें कमजोर व हीन भावना की ओर ले जा रही है। इसी कारण बच्चा खुद को अपराध बोध के भाव से ग्रस्त मान रहा है। कड़वी सच्चाई यह है कि एकल परिवारों में बच्चों से भावनात्मक रिश्ते और विद्यालयों में शिक्षक व छात्रों के बीच सीखने-सिखाने के रिश्ते समाप्त हो रहे हैं। मां-बाप को अपने कारोबार और भोगवादी पार्टियों, स्कूल और शिक्षकों को अपनी व्यावसायिकता और शिक्षा से जुड़े नीति-नियंताओं को अपनी राजनीतिक पार्टी से जुड़े मुद्दों से ऊपर उठ कर इतनी फुरसत नहीं जो वे बच्चों की वास्तविक शिक्षा अथवा समसामयिक शैक्षिक नीति निर्माण की ओर ध्यान केंद्रित करें। एक ओर वैश्वीकरण का आकर्षण है तो दूसरी ओर प्रगति व विकास के नए मानदंड हैं जो बच्चों व युवाओं को अवसादग्रस्त बना रहे हैं। स्कूलों में तोता-रटंत शिक्षा और परिवारों में मात्र स्कूली होमवर्क और प्रतिस्पर्धा का माहौल बच्चों को उनके बचपन और जीवन के यथार्थ से उन्हें दूर ले जा रहा है। लिहाजा हमें बच्चों के प्रति तटस्थता का भाव त्याग कर उनसे निरंतर सघन संवाद स्थापित करने की महती आवश्यकता है। केवल इतना नहीं, भविष्य की वैश्विक आवश्यकताओं और बच्चों के व्यक्तित्व के अनुसार ही उनके कैरियर के चयन में भी सावधानी बरतने की जरूरत है। कहना न होगा कि बच्चों के सृजनात्मक व्यक्तित्व के निर्माण के लिए परिवार, शिक्षा व स्कूल आज भी बच्चों में पनप रहे अवसाद और उनमें हिंसा व आत्मघात की प्रवृत्ति को रोकने में सहायक होने के साथ में उनकी ऊर्जा का सार्थक प्रयोग करने में भी पूर्ण सक्षम हैं। इसलिए इस संपूर्ण शैक्षिक व्यवस्था को समाज व राष्ट्रोपयोगी बनाने के साथ-साथ हमें स्वयं को भी बच्चे की पढ़ाई उसके कैरियर और बचपन के बीच तालमेल बैठाने की महती आवश्यकता है। तभी हम इन बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करते हुए उन्हें समाज व राष्ट्र के लिए उपयोगी बनाने में कामयाब हो पाएंगे।