ज्योति सिडाना
महिलाओं के पास अपने जीवन के विषय में निर्णय लेने का अधिकार और सम्मानपूर्ण जीवन जीने का अधिकार संरक्षित है। फिर भी खुलेआम उनके मानवधिकारों का उल्लंघन होता है। महिलाओं द्वारा उठाई गई विरोध की आवाज को संस्कारों और परंपराओं की दुहाई देकर दबा दिया जाता है।
भारत अध्यात्मवाद की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाला देश रहा है। अनेक परंपराएं और प्रथाएं यहां की संस्कृति का हिस्सा रही हैं। समाज के विकास के शुरूआती दौर में विवाह और परिवार जैसी संस्थाएं अस्तित्व में नहीं थीं। मानव सभ्यता के प्रारंभ के बाद स्थायी निवास और निजी संपत्ति की अवधारणा ने ही विवाह संस्था को जन्म दिया। इसलिए विवाह संस्था को मानव समाज की सार्वभौमिक व आधारभूत सामाजिक संस्था माना जाता है।
आदिम समाज में विवाह के अनेक रूप प्रचलित थे, लेकिन मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ उनमें भी व्यापक बदलाव आते गए। पर आज इक्कीसवीं सदी में भी ऐसी वैवाहिक परंपराएं विद्यमान हैं जो महिलाओं की स्थिति में किसी भी प्रकार के बदलाव की संभावना को नकारती हैं। जैसे राजस्थान में आटा-साटा विवाह प्रथा (जिसे विनिमय विवाह भी कहा जाता है) या फिर नाता प्रथा (जिसे चादर डालना भी कहा जाता है) मौजूद है।
आटा-साटा चलन के तहत जिस घर से एक लड़की बहू बना कर लाई जाती है उसी घर में अपनी लड़की बहू बना कर भेजनी पड़ती है। यानी लड़की के बदले लड़की का विनिमय किया जाता है। दूसरी तरफ नाता प्रथा में एक महिला को उसके पति की मृत्यु के उपरांत अथवा तलाक होने पर या वैवाहिक संबंधों में तनाव के कारण अथवा पति के बीमार होने पर किसी अन्य पुरुष को उसे बेच दिया जाता है। इस प्रथा में परिवार के पुरुष सदस्यों और जाति पंचायतों की अहम भूमिका होती है।
भारतीय संविधान में लैंगिक समानता के मूल्य को स्थापित किया गया है। लेकिन विडंबना यह है कि भारतीय समाज में व्यावहारिक जीवन में यह समानता कभी मूर्त रूप ले ही नहीं पाई। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि यह कैसा सभ्य समाज है जहां आज भी ऐसी कुप्रथाएं और परंपराएं प्रचलित हैं जिनमें महिलाओं की इच्छाओं और अधिकारों का कोई मतलब नहीं रह जाता।
समाज के धार्मिक आदर्शों और संस्कारों की दुहाई तब कहां चली जाती है जब समाज के पुरुष और पंच-सरपंच ही महिला को महज खरीद-फरोख्त की वस्तु बना देते हैं। हकीकत तो यह है कि इक्कीसवीं सदी में भी महिलाओं की स्थिति में कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं आया है। आज भी समाज की सोच महिला को वस्तु से अधिक कुछ नहीं मानने वाली ही है। जबकि इसके विपरीत विचार रखने वालों का तर्क होता है कि आज महिला स्वतंत्र है, शिक्षित है, कामकाजी है, आत्मनिर्भर है (कुछ हद तक) इसलिए यह कहना कि महिलाओं की स्थिति में कोई खास अंतर नहीं आया, गलत है। परंतु इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि महिलाओं की स्वतंत्रता, शिक्षा, नौकरी में उनकी कितनी और कैसी मर्जी शामिल होती है।
संविधान में दी गई स्वतंत्रता व समानता अगर सही अर्थों में मूर्त रूप ले पाई होती तो आज महिलाएं इस तरह आत्महत्या करने को बाध्य नहीं होतीं। हाल में आटा-साटा कुप्रथा के कारण राजस्थान के नागौर जिले के एक गांव में एक विवाहिता ने खुदकुशी कर ली। मरने से पहले लिखे पत्र में पीड़िता ने इस कुप्रथा को बंद करने की पहल करने का आग्रह किया। उसने लिखा- ह्यमेरे मरने की वजह वह समाज है जिसने आटा-साटा जैसी कुप्रथा को मान्यता दे रखी है।
इसमें लड़कियों को जिंदा मौत मिलती है। इस प्रथा के कारण सत्रह साल की लड़की का विवाह सत्तर साल के व्यक्ति के साथ करने से भी गुरेज नहीं किया जाता।ह्य यह एक तथ्य है कि विवाह संबंधी मामलों में आज भी लड़कियों की इच्छा, पसंद या फैसले कोई मायने नहीं रखते। न ही उनकी शिक्षा मायने रखती है, न ही उम्र। इसलिए अनपढ़ या उम्रदराज पुरुष के साथ उनका विवाह कर देना भी सामान्य-सी बात है। फिर भी अगर समाज कहता है कि महिला और पुरुष में अब गैर-बराबरी नहीं है तो फिर लैंगिक भेदभाव की अवधारणा को पुन: परिभाषित करने की आवशयकता है।
कुछ प्रबुद्धजन तर्क देते हैं कि लड़कियों की स्वतंत्रता और शिक्षा का ही परिणाम है कि आज समाज में तलाक की दर बढ़ी है, लड़कियां परिवार की मर्जी के विरुद्ध जाकर अंतरजातीय और अतंरधार्मिक विवाह करने लगी हैं, जिससे समाज में असंतुलन और अव्यवस्था पैदा हुई है। इसलिए इनका घर की चार दीवारी तक सिमट कर रहना ही सही था। और संभवत: इस सोच को मूर्त रूप देने के लिए ही आटा-साटा और नाता जैसी प्रथाएं आज भी जीवित हैं जिनके दुष्परिणामों पर न तो यह पुरुष समाज चर्चा करना पसंद करता है और न ही इस पर कोई प्रश्न उठाया जाता है।
महिलाओं के पास अपने जीवन के विषय में निर्णय लेने का अधिकार और सम्मानपूर्ण जीवन जीने का अधिकार संरक्षित है। फिर भी खुलेआम उनके मानवधिकारों का उल्लंघन होता है। महिलाओं द्वारा उठाई गई विरोध की आवाज को संस्कारों और परंपराओं की दुहाई देकर दबा दिया जाता है। इसलिए यहां कुछ महत्त्वपूर्ण सवालों की चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। जैसे- पुरुष तो अपने आप में पूर्ण है, पर महिला अपूर्ण क्यों? आखिर इस तरह की सोच का तार्किक आधार क्या है? महिला के भविष्य को पवित्रता के साथ संबद्ध किया जाता है और उसके समूचे भविष्य को विवाह से सुनिश्चित कर दिया जाता है। आखिर क्यों? पवित्रता का मूल्य केवल महिलाओं के साथ ही जोड़ कर क्यों देखा जाता है?
समाज विज्ञानी जॉर्ज सीमेल तर्क देते हैं कि पुरुष व स्त्रियों की समानता की चर्चा करना ही आधुनिकता नहीं है, अपितु आधुनिकता को यौन-संबंधों, घरेलू गतिविधियों, मनो-भावनात्मक क्षेत्रों, श्रम विभाजन, संस्कृति, भाषा, पोशाक इत्यादि क्षेत्रों में तार्किक ढंग से प्रयुक्त करके ही प्राप्त किया जा सकता है। ऐसे अनेक पुरुष हैं जो समानता की चर्चा तो करते हैं परंतु व्यवहार में पुरुष होने का भाव नहीं छोड़ना चाहते। अत: आधुनिक होना पुरुषों व महिलाओं दोनों के लिए आसान नहीं है। इसे संस्कृति की त्रासदी की संज्ञा दी जा सकती है। नारीवादी लेखिका आॅड्रे लॉर्ड तर्क देती हैं कि जब हम बोलते हैं तो हमें डर रहता है कि हमारी आवाज को दबा दिया जाएगा। मगर हम चुप रहते हैं, तब भी हम डरते हैं। इसलिए बोलना ही बेहतर है। उनके इस तर्क की प्रासंगिकता को जानकर ही संभवत: कुछ महिलाओं ने आवाज उठाना शुरू किया, जिसके कारण मी-टू जैसे आंदोलन अस्तित्व में आए।
भारत में अनेक संवैधानिक प्रावधान हैं जो महिलाओं को विभिन्न अधिकार प्रदान करते हैं। परंतु आटा-साटा और नाता जैसी कुप्रथाएं दशार्ती हैं कि संकीर्णतावादी और परंपरागत सोच पुरुष एवं महिलाओं को आज भी क्रमश: स्वामी एवं दास के रूप में ही देखती हैं। ये कुप्रथाएं घटनाएं हमें बार-बार प्रशासन, कानून, मीडिया, राज्य, शिक्षा एवं परिवार की भूमिकाओं के मूल्यांकन के लिए बाध्य करती हैं। होना तो यह चाहिए कि इन घटनाओं में लिप्त दोषियों को कठोर दंड दिए जाएं।
शिक्षित युवाओं को अपने जातीय और धार्मिक संगठनों को बाध्य करना होगा कि वे इन कुप्रथाओं के नाम पर महिलाओं की खरीद-फरोख्त को प्रतिबंधित करें ताकि लैंगिक न्याय एवं लैंगिक समानता के मूल्य स्थापित हो सकें। इन घटनाओं के प्रति महिला आयोगों ने क्या दृष्टिकोण अपनाया है, यह भी विचारणीय है। आवश्यकता इस बात की है कि आधुनिक समाज में महिला विरोधी प्रथाओं को समाप्त करने के लिए स्वयंसेवी संगठन और राजनीतिक दल मिलजुल कर कोई प्रयास करें और न्यायपालिका संज्ञान लेकर इन घटनाओं पर रोक लगाने के लिए कदम उठाएं, तभी बराबरी मूलक समाज की स्थापना मूर्त रूप ले पाएगी।