मीनाक्षी अरोड़ा
एक ओर जहां सभी देश पानी की कमी से जूझ रहे हैं और जल संसाधनों के अंधाधुंध दोहन और पिघलते हुए ग्लेशियरों के कारण पानी की उपलब्धता अपने-आप में एक अहम चुनौती बनी हुई है वहीं चीन तिब्बत के ग्लेशियर जल संसाधनों को अधिक-से-अधिक बोतलबंद करने पर तुला हुआ है। हाल ही में तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र (टीएआर) सरकार की ओर से एक दस वर्षीय योजना का मसविदा जारी किया गया है। इस मसविदे के हिसाब से तिब्बत पर्यावरणीय रूप से बहुत ही संवेदनशील इलाकों में बोतलबंद पानी के उद्योग का विस्तार करने पर जोर दे रहा है। 2020 तक पचास लाख क्यूबिक मीटर बोतलबंद पानी उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। जबकि चीन की आधिकारिक समाचार एजेंसी झिनहुआ के मुताबिक 2014 तक तिब्बत ने 1 लाख 53 हजार क्यूबिक मीटर बोतलबंद पानी का उत्पादन किया है। अगर आंकड़ों को देखें तो 2020 तक सरकार का निर्धारित लक्ष्य 2014 के मुताबिक वाकई में एक बड़ी छलांग लगाने जैसा है।
चीन के नियंत्रण वाले तिब्बती क्षेत्र में लगभग सैंतीस हजार ग्लेशियर हैं। तिब्बत में पानी की पर्याप्त मात्रा तो है ही, चीन के बाकी हिस्सों की तुलना में यहां पानी काफी सस्ता भी है। लेकिन यह रईसी ज्यादा समय तक नहीं चलने वाली। चीनी वैज्ञानिकों का ही कहना है ग्लेशियरों पर जितनी बर्फ हर साल बन रही है उससे कहीं ज्यादा तेजी से पिघल रही है। ग्लेशियर पानी का ऐसे शुद्ध रूप हैं जो हिमालयी नदियों को सदानीरा बनाए रखते हैं। ऐसे में बर्फ से ढंकी चोटियों पर मौजूद पानी को अगर ऊपर ही बोतलबंद कर दिया जाए तो उसे सबसे ज्यादा शुद्ध पानी माना जाता है और शायद यही वजह है कि कंपनियां हिमालयी ग्लेशियरों के जलस्रोतों को बोतलबंद करके बेचने की बड़ी कवायद कर रही हैं। उन्हें उम्मीद है कि वे लोगों से इस मूल्यवान जल संसाधन की बड़ी कीमतें वसूल कर बड़ा मुनाफा कमा सकती हैं। हालांकि यह उत्पादन चीन में वार्षिक रूप से उत्पादित बोतलबंद पानी का एक बहुत छोटा-सा हिस्सा है, फिर भी इसे देश के बोतलबंद पानी उद्योग में उछाल के नए बिंदु के तौर पर देखा जा रहा है।
ग्लेशियर के जल संसाधनों को बोतलबंद किए जाने से तिब्बत के पर्यावरण को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। हिमालयी ग्लेशियरों से छेड़छाड़ चीन या हिमालय पर निर्भर एशियाई देशों के लिए खतरा उत्पन्न कर सकती है। हाल ही में चीन की एक गैर-लाभकारी संस्था ‘चाइना वाटर रिस्क’ ने ‘बोटल्ड वाटर इन चाइना- बूम आॅर बर्स्ट?’ नाम से एक रिपोर्ट जारी करते हुए चीन को इस खतरे से आगाह भी किया है।
सवाल उठता है कि चीन द्वारा बोतलबंद पानी के उद्योग को बढ़ावा देना कहां तक सुसंगत है। अगर बोतलबंद पानी का उत्पादन ज्यादा बढ़ा लगा तो उससे चीन और निचले देशों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? पिछले तीन दशकों में किंघई-तिब्बत पठार में ग्लेशियर पहले ही पंद्रह फीसद घट चुका है। बोतलबंद पानी का उद्योग हिमालयी ग्लेशियरों में बढ़ने से बहुत-से अनदेखे पर्यावरणीय खतरे खड़े होंगे। इसलिए सरकारों और निवेशकों को आगे बढ़ने से पहले अपनी योजनाओं पर फिर से सोच-विचार लेना चाहिए।
हालांकि पानी के बढ़ते हुए प्रदूषण ने बोतलबंद पानी की मांग को दिन-ब-दिन बढ़ा दिया है। इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि कंपनियां किंघई-तिब्बत पठार जैसे ऊंचे इलाकों में बोतलबंद पानी के उत्पादन के लिए इकट्ठा हो रही हैं। चीन का सबसे बड़ा राष्ट्रीय उद्यान इसी क्षेत्र में मौजूद है और साथ ही यही वह क्षेत्र है जहां से बड़ी अंतरराष्ट्रीय नदियां भी निकलती हैं। इस इलाके को थर्ड पोल यानी तीसरा ध्रुव के नाम से भी जाना जाता है। क्योंकि इसमें उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के अलावा सबसे बड़ा साफ पानी का भंडार है। किंघई-तिब्बत पठार बोतलबंद पानी उद्योग के निशाने पर पहले से ही बना हुआ है। 2014 में सरकार ने टीएआर में बोतलबंद पानी के लिए अट्ठाईस कंपनियों को लाइसेंस दिए हैं। इसी के साथ लगे शिनजियांग, किंघई और युन्नान प्रांतों में भी तेजी से बोतलबंद पानी का उद्योग पनप रहा है। इसमें कुछ कंपनियां तो ऐसी हैं जो सीधे ग्लेशियरों से ही पानी को बोतलबंद कर रही हैं।
कंपनियां एवरेस्ट की पहाड़ियों के ग्लेशियर से भी पानी निकाल रही हैं। टिंगड़ी के नजदीक पश्चिमी तिब्बत में बोतलबंद पानी की एक फैक्टरी का यह दावा है कि यह एवरेस्ट के ग्लेशियरों से पानी लाकर पिला रही है। डिब्बों पर उत्तरी एवरेस्ट का निशान लगा होने से हालांकि यह साफ पता तो नहीं चलता कि पानी भी एवरेस्ट से लाया गया है या कंपनी एवरेस्ट को एक ब्रांड के तौर पर इस्तेमाल कर रही है। कोमोलैंग्मा ग्लेशियर वाटर ऐसी ही एक कंपनी है जो एवरेस्ट के बेस कैंप से अस्सी किलोमीटर की दूरी पर स्थित कोमोलैंग्मा नेशनल नेचर रिजर्व से पानी लेकर बोतलबंद करती है, तो दूसरी ओर पामीर एन्शिएंट ग्लेशियर वाटर कंपनी ताजिकिस्तान के नजदीक पामीर पहाड़ियों में अटा नाम की चोटी की तलहटी के स्प्रिंग वाटर को बोतलबंद कर रही है।
इसमें कोई शक नहीं कि तिब्बत में भूजल का एक बड़ा भंडार है जिसे अभी तक इस्तेमाल ही नहीं किया गया है। लेकिन अगर कहें कि प्राकृतिक पेयजल उद्योग पर्यावरण-हितैषी होगा या हरित खपत को बढ़ावा देगा तो यह कपोल कल्पना ही है। जैसा कि कनाडा के सामाजिक कार्यकर्ता मॉड बार्लो कहते हैं: ‘बोतलबंद पानी का उद्योग धरती के सबसे ज्यादा प्रदूषण करने वाले उद्योगों में से एक है और साथ ही सबसे कम नियमन वाले उद्योगों में से भी एक है।’ हाल ही में चीन में विकास का मॉडल जारी करते हुए एक मसविदा तैयार किया गया है। हालांकि विकास योजना का मसविदा तीन बिंदुओं पर रोशनी डालता है- सामाजिक स्थिरता, पर्यावरण और सुरक्षा। फिर भी चीन में पानी उद्योग पर्यावरणीय नीतियों की अनदेखी करते हुए लगातार बढ़ रहा है।
बोतलबंद पानी के उद्योग के न केवल पर्यावरण संबंधी बहुत-से अनदेखे खतरे हैं बल्कि नियमों और क्रियान्वयन से संबंधित भी बहुत-सी चुनौतियां खड़ी होने वाली हैं। अगर चीन अपने जल संसाधनों की सुरक्षा के लिए चिंतित है और नदियों के आसपास के सभी संरक्षित क्षेत्रों में दोहन संबंधी गतिविधियों पर पूरी तरह से पाबंदी लगाता है तो उस स्थिति में ये उद्योग किस तरह से काम करेंगे, उनके लिए क्या नियम-कायदे बनाए जाएंगे? किंघई-तिब्बत पठार न सिर्फ चीन के लिए बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण एशिया के लिए भी पानी का अहम स्रोत है। इस क्षेत्र में एशिया की दस बड़ी नदियों का उद््गम है जिनमें चीन की दो बड़ी नदियां यांगत्सी और येलो शामिल हैं। चीन को थोड़े-से विकास के लिए इस मूल्यवान जल संपदा का दोहन करने के बजाय लंबे समय की समृद्धि पाने के लिए संरक्षण करना चाहिए। लेकिन फिलहाल विकासवादी घोषणाओं और नीतियों को देखें तो वे पर्यावरण की नीतियों और योजनाओं से मेल खाती नजर नहीं आ रही हैं।
यह क्षेत्र जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से बहुत ही संवेदनशील है। विभिन्न रिपोर्टें बता रही हैं कि पिछले तीन दशकों में किंघई-तिब्बत पठार के ग्लेशियर पंद्रह प्रतिशत छोटे हो गए हैं। अल्पकाल के लिए तो पिघलते हुए ग्लेशियरों का पानी बोतलबंद करना अच्छा लग सकता है, लेकिन अगर भविष्य की ओर देखें तो इससे निचले क्षेत्रों में नदियां सूख जाएंगी और भारी तबाही हो सकती है। क्योंकि चीन इन नदियों और ग्लेशियरों के ऊपर की ओर स्थित है इसलिए चीन के अंदर कोई भी विकासवादी गतिविधि इस क्षेत्र की जल सुरक्षा पर बड़ा प्रभाव डाल सकती है। पहले ही एक अंतरराष्ट्रीय नदी के क्षेत्र पर 124 गीगावाट की जल विद्युत परियोजना ने इस क्षेत्र में बहुत-सी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं।
क्या एक संरक्षित क्षेत्र से, जहां पहले से ही ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं, पानी लेना संगत है? क्या चीन को तिब्बत के पिघलते हुए ग्लेशियरों की कोई चिंता है? अगर इतनी ऊंचाई पर जाकर पानी को बोतलबंद किया जाएगा तो उसमें अलग तकनीकी और बाजार तक पहुंचाने के लिए परिवहन की भी जरूरत पड़ेगी। इस सब की कीमत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, साथ ही परिवहन और तकनीकी से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को भी। तिब्बत की स्थानीय सरकार बार-बार कह रही है कि यहां बोतलबंद पानी उद्योग लगाने से बोतलबंद पानी का निर्यात बढ़ेगा। क्या चीन की जल-सुरक्षा के लिए यह सही रास्ता है?
यह सही है कि बढ़ते प्रदूषण के साथ पानी की गुणवत्ता एक चिंता का विषय है। ऐसे में बोतलबंद पानी इस चिंता को दूर करता है। लेकिन इसके पर्यावरणीय खतरों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऊंचाई से पानी लाने के लिए इस्तेमाल होने वाली तकनीक और परिवहन बढ़ते जलवायु परिवर्तन के खतरों में इजाफा ही करेंगे। इतना ही नहीं, तिब्बत के पठार से उठने वाली हवाएं भी मौसम बदलने में मददगार होती हैं। सच तो यह है कि दक्षिण एशिया में मानसूनी हवाएं तिब्बत की वजह से ही हैं जो गर्मी के मौसम में पूर्वी पाकिस्तान से लेकर मध्य चीन तक बरसात लेकर आती हैं। ऐसे में तिब्बत के पठार के साथ की गई किसी भी तरह की छेड़छाड़ महंगी पड़ सकती है और लाखों-करोड़ों लोगों की जिंदगियां प्रभावित हो सकती हैं। ऐसे में सरकारों और कंपनियों को समझदारी के साथ आगे बढ़ने के नए रास्ते खोजने होंगे।