अरुण माहेश्वरी

सन 1989 के बाद चौथाई सदी का समय बीत चुका है। माना जा सकता है कि इस बीच सोवियत समाजवाद के भव्य महल के धराशायी होने से उड़ी धूल जम चुकी है। इस दुखांत की सारी ‘कारुणिक और प्रहसनात्मक’ उपलब्धियां कमोबेश सामने हैं। समाजवाद के पराभव से उड़ी धूल ही नहीं, सारी दुनिया को बेइंतहा समृद्धि का सपना दिखाने वाले वैश्वीकरण का भ्रम और इससे जुड़ा पश्चिम के देशों का मिथ्याचार भी पूरी तरह से सामने आ चुका है। और तो और, गैट संधि और डब्ल्यूटीओ के खिलाफ, अर्थात वैश्वीकरण के मिथ्याचार के खिलाफ 1999 के सिएटल के प्रदर्शन से लेकर 2011 के ‘आक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ तक के आंदोलनों की तस्वीर मुकम्मल रूप से आज सबके सामने है। ध्यान से देखें तो वह सारी सामग्री इकट्ठी हो चुकी है जिससे इतिहास के ढेर पर पड़े मानव समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण की प्रतिश्रुति के साथ उभरे ‘समाजवादी’ अध्याय की छानबीन की जा सके; कोरी निर्गुण और अमूर्त चर्चा के बजाय सगुण और ठोस चर्चा के जरिए इसके उदय और अस्त की पूरी परिघटना की लाक्षणिकताओं को सूत्रबद्ध किया जा सके।

आज इतना तो साफ है कि दो शिविरों, पूंजीवादी और समाजवादी शिविरों में दुनिया के विभाजन और प्रतिद्वंद्विता के जरिए समाजवाद की अनिवार्य विजय के सारे अनुमान आधारहीन साबित हुए हैं। समाजवाद के अंतर्गत आर्थिक विकास का स्तर अमेरिका और विकसित औद्योगिक देशों में सामने आए पूंजीवादी उत्पादन की अवस्था को स्थानापन्न करने के लिए नाकाफी था। उलटे, पूंजीवादी उत्पादन में कहीं ज्यादा विकास की संभावना और क्षमता मौजूद है। इसीलिए जिन देशों में आज भी कम्युनिस्ट पार्टियों का शासन कायम है, वहां समाजवाद का पूंजीवाद के साथ एक नाभि-नाल किस्म का संबंध विकसित करके कम्युनिस्ट पार्टी के शासन का रक्षा-कवच तैयार किया जा रहा है और यह एक हद तक सफल भी हुआ है। रूस में वैश्वीकरण ने जो तबाही पैदा की, उसकी तुलना में चीन में वैश्वीकरण की प्रक्रिया फलदायी दिखाई देती है।

लेकिन कुल मिला कर पिछले सालों में जो सामने आया है उससे समाजवाद की अपराजेयता के बारे में कम्युनिस्टों की अब तक की तमाम अवधारणाएं ही गलत साबित नहीं हुई है, इसने उन सारी परिस्थितियों को गुणात्मक रूप से बदल दिया है जिनमें एक न्यायपूर्ण और समतापूर्ण समाज के निर्माण की लड़ाई को आगे जारी रखना है। पुराने सोच और पुराने औजारों के साथ अब शायद एक कदम भी आगे बढ़ना मुमकिन नहीं है। वे सहयोगी नहीं, पांव की बेड़ियां हैं। और कम्युनिस्ट पार्टी का शासन! जिसने अपने तत्त्वावधान में पूंजीवाद को विकसित करने का बीड़ा उठा लिया हो, उसके ऐतिहासिक सार-तत्त्व को हम क्या कहेंगे? मार्क्स की शब्दावली में कहें तो हमने देखा कि कैसे यथार्थ में अब तक की समाजवादी सरकारें किसी पूंजीवादी गणतंत्र की सीमाओं को नहीं लांघ पाई हैं, कैसे सर्वहारा अब भी सिवाय अपने विचारों की उड़ान और कल्पना के, पूंजीवादी गणतंत्र के आगे जाने में असमर्थ है।

यही वह बिंदु है जो समाजवाद से जुड़े सारे प्रसंग पर बिल्कुल नए कोण से विचार के लिए आमंत्रित करता है। हम जिसे समाजवाद की समस्याएं बता रहे हैं, वे समाजवाद की समस्याएं हैं या कम्युनिस्ट पार्टी की, इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। दुनिया में पूंजी के वर्चस्व के खिलाफ समानता की लड़ाई बंद नहीं हुई है, न होगी। पूरे लातिन अमेरिका का घटनाचक्र इस बात का सबसे ज्वलंत उदाहरण है। वहां के अधिकतर देशों में अमेरिकी प्रभुत्व को खुली चुनौती दी जा रही है। खुद अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी और बुश की पराजय और लगातार दो बार बराक ओबामा का चुना जाना भी संकेतपूर्ण है। ‘सिएटल’ से ‘आक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ तक का वैश्वीकरण के खिलाफ प्रदर्शन भी किसी न किसी प्रकार से न्याय और समानता के लिए मनुष्य की लड़ाई का ही हिस्सा है। वैश्वीकरण से उपजे आर्थिक संकट के खिलाफ यूरोप में भी यूनान, स्पेन में चल रहे जन-आंदोलन कम तात्पर्यपूर्ण नहीं हैं।

मगर इस पूरी परिघटना से जो चीज क्रमश: लुप्त होती जा रही है वह है कम्युनिस्ट पार्टियों की भूमिका। इतिहास ने समाजवाद को नहीं, न्याय और समता की लड़ाई को नहीं, प्रत्याख्यायित किया है कम्युनिस्ट पार्टियों को, उनके समूचे ताने-बाने को। सोवियत समाजवाद का पराभव कम्युनिस्ट पार्टी का पराभव है और इसीलिए सोवियत समाजवाद के पराभव के संदर्भ में अगर समाजवाद की समस्या पर विचार करना है तो कम्युनिस्ट पार्टियों की समस्या पर विचार करना होगा। इसे समाजवाद के बारे में किसी तात्त्विक चिंतन की दिशा में ले जाना विषय को सिर के बल खड़ा करने, यथार्थ को अमूर्त विचारों में तब्दील करने के समान होगा।

इसी प्रकार, यह न मार्क्सवाद की समस्या है। हालांकि स्लावोय जिजेक की तरह कोई कह सकता है कि सत्ता विमर्श में जैसे ईसाई धर्म की कल्पना सेंट पॉल्स के बिना नहीं की जा सकती, वैसे ही मार्क्सवाद की कल्पना बिना लेनिन, स्तालिन और सोवियत समाजवाद के नहीं की जा सकती।

लेकिन विचारों का भौतिक रूप इतिहास में बार-बार नए-नए रूपों में प्रकट होता है, किसी परम ब्रह्म की तरह ही। ईसाई धर्म के सत्ता विमर्श में सेंट पॉल्स जैसे अब सिर्फ एक संदर्भ बिंदु हैं, समाजवाद की लड़ाई में सोवियत समाजवाद को भी एक महत्त्वपूर्ण संदर्भ बिंदु के तौर पर ही लिया जाएगा। इसीलिए समाजवाद की असल समस्या पर विचार करना है तो कम्युनिस्ट पार्टियों की समस्या पर ध्यान देना होगा।

अब देखने की बात यह है कि कम्युनिस्ट पार्टी का ढांचा मौजूदा सामाजिक ढांचे का वास्तव में क्या कोई क्रांतिकारी विकल्प है, या यह कोरी कल्पना और विचारों की उड़ान भर है; यथार्थ में, सारत: यह पूंजीवादी गणतंत्र का ही एक लघु रूप, उसकी सीमाओं को लांघने में असमर्थ ढांचा है। मसलन, हम संसदीय या दलीय जनतंत्र के पूरे ढांचे को ही लें।

इसमें शासक दल का नेता, संसद में अपने बहुमत के जरिए खुद को पूरे देश का, पूरी जनता का नेता बताता है। इसके विपरीत सच यह है कि उसके लिए जनता से तात्पर्य अपने दल के सदस्य या समर्थक भर होते हैं। जो उसके दल में नहीं, प्रकृत अर्थों में वह उसके लिए जनता में भी नहीं होते हैं। और यही वजह है कि अंतिम निष्कर्ष में, जनता की स्वायत्तता का दम भरने वाला जनतंत्र वास्तव में खोखला होता है। जनता के एक बड़े हिस्से की आवाज का इसमें कोई मूल्य नहीं होता।

और, दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टी! जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद पर आधारित पार्टी। वह इस ‘दलीय जनतंत्र’ से भिन्न कैसे है? कम्युनिस्ट पार्टी गुटों से मुक्त पार्टी नहीं होती और गुटों में विभाजित पार्टी का नेतृत्व समस्त पार्टी-सदस्यों का नहीं, खास गुटों का प्रतिनिधित्व करता है। पार्टी-सदस्यों की हैसियत गुटों के जरिए व्यक्त होती है। जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद का एक मूलभूत सिद्धांत है- बहुमत के सामने अल्पमत का आत्म-समर्पण। इसीलिए पार्टी में अल्पमत का कोई मूल्य नहीं होता, वह कितना ही बड़ा या छोटा क्यों न हो। व्यक्तिगत सदस्य की तो औकात ही क्या! इसीलिए यह ढांचा भी उतना ही खोखला है जितना दलीय जनतंत्र।

सर्वाधिकारवादी सत्ता का मूल मंत्र है- जनता वही है जो शासन का समर्थन करे। ठीक इसी प्रकार, कम्युनिस्ट पार्टी में भी मान लिया जाता है कि नेतृत्व सभी सदस्यों का नेतृत्व करता है, और सदस्य वही है जो नेतृत्व का समर्थन करता है। कम्युनिस्ट पार्टियों में सर्वाधिकारवाद के विश्वव्यापी अनेक ठोस और भयानक अनुभवों के बावजूद उनका इस ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावादी’ ढांचे से, अर्थात अल्पमत पर बहुमत के शासन की धारणा से मुक्त न हो पाना ही यह बताने के लिए काफी है कि वह किसी नए और भिन्न समाज के निर्माण का हेतु नहीं बन सकती। इसीलिए घूम-फिर कर बौद्धिकों के बड़े तबके के बीच यह सवाल रह जाता है कि अगर पूरे समाज में इनके प्रभुत्व-विस्तार से सामाजिक पुनर्विन्यास में किसी भी बुनियादी परिवर्तन की संभावना ही नहीं है, एक दमनकारी शासन को दूसरे दमनकारी शासन से स्थानापन्न भर करना है, तो फिर इतने त्याग-बलिदान से शासन के इस एक और दमनमूलक ढांचे को ही क्यों ढोया और आरोपित किया जाए?

कहना न होगा, इसीलिए बेहतर समाज के लिए मनुष्य की लड़ाइयां सारी दुनिया में तमाम मोर्चों पर, आर्थिक-सामाजिक अधिकारों से लेकर पर्यावरण और मानवाधिकारों तक जारी हैं, लेकिन इन सबसे कम्युनिस्ट पार्टियां गायब हैं!

संसदीय और दलीय जनतंत्र के लंबे इतिहास में एक गहरे वैचारिक सूत्र की तरह ‘कानून का शासन’ की अवधारणा बराबर काम करती रही है ताकि दलीय जनतंत्र के शुद्ध फासीवाद में पतन की तरह की विकृतियों पर अंकुश लग सके। राज्य और नागरिक के अधिकारों के बीच संतुलन बना रहे, इसकी सांस्थानिक व्यवस्थाएं विकसित हुई हैं। दलीय जनतंत्र को अधिक से अधिक कारगर बनाने के लिए अब लगातार ‘सहभागी जनतंत्र’ के विचारों पर बल दिया जाता है, विभिन्न वर्गीय और जातीय समूहों के बीच सत्ता की भागीदारी और शासन के समावेशी चरित्र के विकास की बात कही जाती है।

इसी प्रकार, कम्युनिस्ट पार्टियों का भी अपना कार्यक्रम, संविधान और अनेक प्रकार की आंतरिक विरूपताओं पर नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्थाएं हैं। लेकिन राजनीति का बहुलांश शासन के दैनंदिन कामों से जुड़ा होता है। पार्टी के कार्यक्रम, संविधान और दूसरी व्यवस्थाओं के बावजूद पहली बात तो यह है कि अब तक के अनुभवों में ये सारी व्यवस्थाएं पार्टी में सदस्य की स्वायत्तता को अक्षुण्ण रखने के लिहाज से यथेष्ट साबित नहीं हुई हैं। और अंतिम सच यह है कि यह पूरा तामझाम भी दलीय जनतंत्र का एक प्रतिरूप ही है, उसका गुणात्मक रूप से भिन्न विकल्प नहीं है।

उलटे, संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली में जिस प्रकार के ‘सहभागी जनतंत्र’ के विकास की, विभिन्न वर्गों के हितों के समावेशी रूप के जिन विचारों की जद्दोजहद चल रही है, कम्युनिस्ट पार्टियों में इस प्रकार के ‘सहभागी’ और ‘समावेशी’ ढांचे के विकास की किसी प्रकार की कोई जद्दोजहद नहीं दिखाई देती। ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ को पार्टी के गठन का ऐसा पवित्र सिद्धांत मान लिया गया है, जिस पर सवाल उठाना किसी पाप से कम नहीं है। यह स्वाभाविक प्रश्न क्यों नहीं उठता है कि जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के आधार पर समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण का विचार दलीय जनतंत्र के ढांचे से क्या रत्ती भर भी भिन्न है? फिर कैसी क्रांति, कैसा परिवर्तन!

ऐसे ही तमाम सैद्धांतिक सवालों की रोशनी में यह जरूरी है कि हम समाजवादी राज्यों और कम्युनिस्ट पार्टियों की अंदरूनी क्रियाशीलता पर ठोस रूप में विचार करें। तभी यह भी ज्यादा अच्छी तरह से समझा जा सकेगा कि आज की दुनिया में बचे हुए समाजवादी देशों की सरकारों की नीतियों का मूल आधार क्या है और कम्युनिस्ट पार्टी का ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ का सैद्धांतिक आधार कैसे पार्टी के अंदर की अनेक व्याधियों के मूल स्रोत के रूप में काम कर रहा है।

 

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