हमारी अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य से जुड़े संकेत शुभ नहीं दिखते। चार बातें तो साफ दिखती हैं। पहली, चालू वित्त वर्ष (2015-16) की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में विकास दर का आंकड़ा सात फीसद पर जाकर अटक गया। दूसरी, मानसून के समय से पहले लौट जाने से देश के बड़े हिस्से में सूखे की स्थिति बन गई है। तीसरी, बैंकों पर कर्ज वसूली का गहराता संकट और चौथी है मंदी की गिरफ्त में धंसता शेयर बाजार, जिसके तार अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों से भी जुड़े हैं। इस विकट स्थिति से निपटने के लिए जिस दृढ़ संकल्प और तैयारी की जरूरत है, उसका अभाव स्पष्ट नजर आता है।

चार दशक पहले खुली अर्थव्यवस्था अपनाते समय तर्क दिया गया था कि विकास गति बढ़ेगी तो उसका लाभ समाज के सभी तबकों को होगा। समझाया गया कि गरीबी मिटाने का सबसे कारगर तरीका जीडीपी में वृद्धि है, क्योंकि जब खुशहाली आएगी तो लोगों को रोजगार मिलेगा और रोजगार मिलेगा तो गरीबी अपने आप मिट जाएगी। निश्चय ही कोटा परमिट राज खत्म होने के बाद बाजार में रौनक बढ़ी है, लेकिन इसके साथ-साथ अमीर और गरीब के बीच आय की खाई भी निरंतर चौड़ी हुई है। ऐसे में आर्थिक विकास दर की सच्चाई को जानना और भी जरूरी हो जाता है।

सेंट्रल स्टेटिस्टिक्स आॅफिस (सीएसओ) ने चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही की विकास दर का आंकड़ा जारी किया, जो सात प्रतिशत है। सरकार का अनुमान है कि इस साल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर 8.1 प्रतिशत रहेगी, लेकिन शुरुआत खराब हुई है। इससे ठीक पहले की तिमाही (जनवरी-मार्च) में जीडीपी आधा प्रतिशत (7.5) अधिक थी। सीएसओ के अनुसार गत तिमाही में कृषि विकास की दर 1.9 प्रतिशत रही, जबकि उद्योग और सेवा क्षेत्र में यह क्रमश: 6.5 और 8.9 फीसद आंकी गई।

यानी सेवा क्षेत्र को छोड़ कर, शेष दोनों क्षेत्रों का विकास सुस्त रहा। इस दौरान सर्वाधिक रोजगार मुहैया कराने वाले मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का आंकड़ा 7.2 प्रतिशत और निर्माण का 6.9 प्रतिशत पर अटक गया। केवल होटल, व्यापार, परिवहन और संचार में थोड़ी रौनक देखने को मिली, जहां विकास दर दो अंक में (12.8 फीसद) दर्ज की गई। अनुमान है कि निर्यात के मोर्चे पर शिथिलता के कारण विकास दर तीन फीसद गोता खा गई। डॉलर के मुकाबले रुपए के उतार-चढ़ाव का भी अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) और एशियाई विकास बैंक (एडीबी) ने चालू वित्त वर्ष में भारत की विकास दर 7.5 से 7.8 फीसद के बीच रहने का अनुमान लगाया है। यह आंकड़ा सरकारी अंदाजे से कम है। अगर अगले नौ माह में हालात नहीं सुधरे, तो आइएमएफ और एडीबी की भविष्यवाणी भी विफल हो सकती है। जीडीपी की ताजा चाल की तुलना पिछले वर्षों से की जाए, तो स्थिति और स्पष्ट हो जाती है। विश्व बैंक के अनुसार 2014 में भारत की विकास दर 7.4 प्रतिशत थी और गत पांच सालों में जीडीपी का सबसे ऊंचा आंकड़ा 2010 में देखने को मिला, जो दो अंकों में था। तब केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार थी। उस ऊंचाई तक पहुंचने के लिए मोदी सरकार को काफी परिश्रम करना पड़ेगा।

अर्थव्यवस्था में गति लाने के लिए केंद्र सरकार हर संभव प्रयास कर रही है। निजी क्षेत्र के ढीले प्रदर्शन की भरपाई और बाजार में तरलता बढ़ाने के लिए वह जम कर पैसा खर्च कर रही है। सीएजी के अनुसार चालू बजट का 69.3 प्रतिशत धन पहले तीन माह में ही फूंका जा चुका है। गत वर्ष इसी अवधि में केवल 61.2 फीसद धन खर्च हुआ था। सरकार ने इस साल अप्रैल-जून के बीच परोक्ष करों से पंद्रह खरब रुपए जमा किए और व्यय किए साठ खरब रुपए। खर्चे की यह रकम वित्त वर्ष 2014-15 के प्रथम तिमाही के मुकाबले 19.3 प्रतिशित अधिक है। यह नीति अपनाने वाले लोग भूल जाते हैं कि सरकारी धन से किसी देश की अर्थव्यवस्था को सहारा तो दिया जा सकता है, लेकिन उसमें प्राण नहीं फूंके जा सकते।

फिलहाल सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती विनिर्माण क्षेत्र को गति देना है, क्योंकि इसके बिना रोजगार के नए अवसर पैदा करना असंभव है। आज बड़ी संख्या में किसान और मजदूर खेती छोड़ कर अन्य क्षेत्रों में काम खोज रहे हैं। विनिर्माण क्षेत्र ही ऐसा है, जहां खेतिहर मजदूरों को खपाया जा सकता है। आज जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी महज पंद्रह प्रतिशत है। उदारीकरण का दौर शुरू होने के वक्त भी अर्थव्यवस्था में मैन्युफैक्चरिंग का योगदान इतना ही था। भले भारत की गिनती दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में की जाती है, लेकिन यहां विकास दर में प्रति अंक वृद्धि पर सबसे कम नौकरियां मिलती हैं। यानी विकास का नया मॉडल अपनाने से बेरोजगार आबादी को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ है।

आज पूरी दुनिया में चीन और भारत ही ऐसे दो देश हैं, जिनकी आबादी एक अरब से ऊपर है और दोनों में विकास गति को लेकर होड़ है। दोनों ने अर्थव्यवस्था में सुधार का काम लगभग साथ-साथ शुरू किया था, मगर अपना आधारभूत ढांचा मजबूत कर चीन हमसे कहीं आगे निकल चुका है। विदेशी निवेश के लिए उसने घरेलू बाजार अपनी शर्तों पर खोला। भारत की तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हावी नहीं होने दिया। खेती पर निर्भर करोड़ों किसानों और मजदूरों को खपाने के लिए मैन्युफैक्चरिंग पर ध्यान दिया। आज उसका मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर हमसे दस गुना विशाल और रोजगार प्रदान करने का सबसे बड़ा जरिया है। दूसरी ओर भारत में बेरोजगारों की फौज कम होने का नाम ही नहीं ले रही है।

एक सरकारी अध्ययन के अनुसार 2012-22 के बीच कृषि क्षेत्र में रोजगार निरंतर घटेगा, जिससे हर साल रोजगार के अस्सी-नब्बे लाख अतिरिक्त अवसर सृजित करने होंगे। इस हिसाब से 2025 तक सरकार को बीस करोड़ अतिरिक्त नौकरियों का इंतजाम करना होगा और यह लक्ष्य निर्माण क्षेत्र के भरोसे ही भेदा जा सकता है। अगर विकास दर इसी ढर्रे पर चली तो यह लक्ष्य अर्जित करना असंभव है।

शेयर बाजार से अर्थव्यवस्था की नब्ज टटोलने वाले भी आजकल चिंतित हैं। वैसे पूरे देश की सवा अरब आबादी में से केवल चार-पांच करोड़ लोग शेयर बाजार में पैसा लगाते हैं और उनमें से मात्र दस से बीस हजार बड़े निवेशक हैं। ये लोग बाजार के असली खिलाड़ी हैं और अपने शेयरों की कीमत ऊपर-नीचे कर मोटा पैसा कमाते हैं। सितंबर के दूसरे सप्ताह में मुंबई का संवेदी सूचकांक गोता खाकर पच्चीस हजार अंक से नीचे पहुंच गया, जो सवा साल का सबसे खराब प्रदर्शन है।

डॉलर के मुकाबले कमजोर पड़ता रुपया भी चिंता का विषय है। लगता है, विदेशी निवेशकों का भारत के बाजार से मोहभंग हो चुका है, इसीलिए वे अपना पैसा दूसरी जगह लगा रहे हैं। घरेलू कंपनियों के नतीजे भी कोई उत्साहजनक नहीं रहे हैं। फिक्की के ताजा सर्वे के अनुसार अगले छह माह में सिर्फ पच्चीस प्रतिशत कंपनियों की क्षमता विस्तार की योजना है। ऐसे में मेक इन इंडिया का सपना कैसे साकार हो सकता है!
आज अनेक बड़े कॉरपोरेट और उद्योग कर्ज लौटने में आनाकानी कर रहे हैं। सार्वजनिक बैंकों का एनपीए खतरनाक सीमा रेखा लांघ चुका है।

मौजूदा स्थिति का असर अर्थव्यवस्था पर तो पड़ ही रहा है, सार्वजनिक बैंक लहूलुहान हो चुके हैं। इन बैंकों में आम आदमी के खून-पसीने की कमाई का पैसा जमा है। अगर उद्योगों के कर्ज बैंक राइट आॅफ या रिस्ट्रक्चर किए जाते हैं, तो उसकी कीमत अंतत: जनता को चुकानी पड़ती है। एक तरफ वसूली का संकट है, दूसरी तरफ रिजर्व बैंक पर दबाव बना कर सरकार कर्ज सस्ता कराना चाहती है।
इंदिरा गांधी ने जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तब तर्क दिया गया था कि देश के बड़े बैंक औद्योगिक घरानों के हाथ का औजार हैं।

उनमें जमा जनता का पैसा कॉरपोरेट जगत के हित में इस्तेमाल होता है। राष्ट्रीयकरण के बाद सार्वजनिक बैंकों ने जनकल्याण से जुड़ी योजनाओं को अमली जामा पहनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लगता है अब फिर उन्हें निजी हाथों में सौंपने की तैयारी की जा रही है। सार्वजनिक बैंकों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के बजाय पेशेवर बनाने की आड़ में उनका निजीकरण किया जा रहा है। ऐसे में आम आदमी के कल्याण से जुड़ी योजनाएं तो उनकी वरीयता सूची से स्वत: बाहर हो जाएंगी।

भले जीडीपी में कृषि का योगदान घट कर पंद्रह प्रतिशत से भी कम रह गया है, फिर भी देश की आधी से अधिक आबादी खेती पर निर्भर है। मानसून के असमय रूठने से मुश्किल बढ़ गई है। हमारे देश में जून से सितंबर के बीच मानसून सक्रिय रहता है। लेकिन इस बार सितंबर माह के शुरू में ही बादल लौट गए। मौसम विभाग के अनुसार सत्रह फीसद कम वर्षा होने का अनुमान है। अगर पूर्वोत्तर को छोड़ दिया जाए तो यह औसत घट जाएगा।

औसत से बाईस प्रतिशत कम वर्षा होने पर सरकार किसी इलाके को सूखाग्रस्त घोषित करती है। आज उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत का विशाल क्षेत्र सूखे के कगार पर खड़ा है। इसका असर खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ना लाजिमी है। अगर खाने-पीने की चीजों की कमी होगी तो महंगाई स्वत: बढ़ेगी और उसकी सर्वाधिक मार गरीब पर ही पड़ेगी।

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