जड़, जंगल, जमीन रहेगी तो दुनिया रहेगी, नहीं तो जीव भी नहीं रहेगा। पर्यावरणविद और वनस्पतिशास्त्री इसकी हिफाजत के लिए लगातार चिंता जता रहे हैं, इसके बावजूद इस ओर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। रासायनिक खादों से खेती लगातार महंगी और फसल अस्वास्थ्यकर होती जा रही है। इस दशा से चिंतित स्वीडन में भारतीय वैज्ञानिक डॉ. रविकांत पाठक पिछले कई वर्षों से इसको बदलने में लगे हुए हैं।

उनके प्रयासों का जबर्दस्त असर दिखा और नतीजा यह है कि बुंदेलखंड जैसे सूखे इलाके में भी हरियाली दिखने लगी है। जहां पानी नहीं था, वहां बागों में पेड़ों पर फलों के गुच्छे लटक रहे हैं। उनकी इस सफलता को देखकर आसपास के दूसरे गांवों में भी यह प्रयोग शुरू किया जा रहा है।

हालांकि उनका प्रयास बेहद सफल रहा, लेकिन जिस ऊंचाई पर पहुंचकर वह गांव-गिरांव की बातें सोचते हैं, वह बहुतों को चकित कर देने वाला है। डॉक्टर रविकांत पाठक स्वीडन के गोथनबर्ग विश्वविद्यालय में वायुमंडलीय वैज्ञानिक और एसोसिएट प्रोफेसर हैं। साथ ही वह एक समाज सुधारक, लक्ष्य के प्रति निरंतर सक्रिय रहने वाले चट्टानी सोच के हिमायती कार्यकर्ता भी हैं।

जखनी गांव के जलदूत, सर्वोदय कार्यकर्ता और जलग्राम स्वराज अभियान समिति के अध्यक्ष तथा ‘खेत में मेड़, मेड़ पर पेड़’ तकनीकी के प्रणेता उमाशंकर पांडेय के मुताबिक “डॉ. पाठक न केवल एक पर्यावरणविद है, बल्कि वह उच्च शिक्षित होकर भी एक सामान्य और सादगी भरा जीवन जीने वाले गांधीवादी विचारधारा के राष्ट्रभक्त इंसान भी हैं।”

बताया कि बुंदेलखंड के जिस हमीरपुर जिले के छेड़ी बसायक गांव में उनका जन्म हुआ था, वह बहुत ही पिछड़ा और पानी विहीन इलाका है। गरीबी और तंगहाली में बचपन बिताए डॉ. पाठक अपनी इस दशा को अपने लक्ष्य में कभी आड़े नहीं आने दिया।

यही वजह है कि वह अपनी प्रतिभा से न केवल आईआईटी मुंबई पहुंचे, बल्कि हांगकांग, अमेरिका और स्वीडन तक में उन्होंने अध्ययन और अध्यापन किया। उन्होंने हांगकांग में रिसर्च किया, अमेरिका में वैज्ञानिक बने और स्वीडन में पढ़ाया, लेकिन गांव की जड़ को नहीं छोड़ा। विदेशों में रहकर भी वे हर साल गांव आते हैं और कई तरह के सामाजिक कार्य करते हुए लाखों लोगों के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।

डॉ. रविकांत पाठक सिर्फ खेती और उसकी उर्वरता की बात ही नहीं करते हैं, बल्कि गौशाला, आहार, आरोग्य और बच्चों के आंतरिक विकास और उनमें राष्ट्रीय चरित्र व नेतृत्व गढ़ने की बात भी करते हैं। उनका कहना है कि अगर खेती रहेगी, तो वन रहेगा, भूजल बचेगा, गायों की रक्षा होगी, पौधे बचेंगे, हरियाली रहेगी, प्रदूषण खत्म होगा, बिना रसायन वाला अच्छा आहार ग्रहण करने से बच्चों का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा तो उनका चारित्रिक और नैतिक विकास होगा तथा राष्ट्रप्रेम की भावना बढ़ेगी।

उन्होंने भारत उदय गुरुकुल नाम से एक संस्था की स्थापना की है। उनका कहना है कि “इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य बच्चों के लिए एक शिक्षण संस्थान स्थापित करना है, जो उन्हें रोचक ढंग से सीखने, तनाव मुक्त, टिकाऊ और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए उपयोगी बनाकर उच्च नैतिक अखंडता और आत्म-सम्मान के साथ विश्व नागरिक बनने के लिए तैयार करेगा।

अपने गांव में वह तीस एकड़ की भूमि में जैविक खेती करवाकर स्वच्छ और स्वास्थ्यकर फसलों का उत्पादन तो कर ही रहे हैं सैकड़ों लोगों को रोजगार भी दिए हैं। उनके बाग में पपीता, मुसम्मी, केला, आम, आंवला, अमरूद, अनार के गुच्छे शोध का विषय बने हुए हैं। उनका कहना है कि “हमें गांवों की ओर लौटना होगा, गांव का जीवन ही श्रेष्ठ जीवन है।”