देर आयद दुरुस्त आयद। देश में सस्ती दवाएं उपलब्ध करवाने की कार्य-योजना पर अमल शुरू हो गया है। स्वास्थ्य-सेवा उद्योग में सार्वजनिक-निजी क्षेत्र सहयोग और भारी मुनाफे के खेल के बीच यह एक अच्छा संकेत है। नई दिल्ली स्थित एम्स में सरकार ने प्रायोगिक तौर पर एक परियोजना (पॉयलट प्रोजेक्ट) शुरू की है, जिसमें हृदय-रोग और कैंसर से संबंधित दवाइयां सस्ती कीमत पर उपलब्ध करवाई जाएंगी। भारत सरकार के ‘अमृत कार्यक्रम’ के तहत एम्स में रिटेल काउंटर खोला गया है, जहां पर सस्ती दवाइयां मुहैया होंगी। दावा है कि कैंसर के उपचार के लिए कीमोथेरेपी में इस्तेमाल होने वाला इंजेक्शन तिरानबे प्रतिशत की छूट के साथ 888 रुपए में मिलेगा। हृदयरोग और कैंसर से संबंधित अन्य दवाएं भी इस काउंटर पर बाजार से काफी कम कीमत पर उपलब्ध करवाई जाएंगी। भविष्य में अन्य सरकारी अस्पतालों में भी यह सुविधा उपलब्ध करवाने की योजना है।
उदारीकरण के दौर में स्वास्थ्य सेवाएं भी बाजार के हवाले कर दी गर्इं। इसका परिणाम यह है कि आज देश की अस्सी प्रतिशत आबादी पैसे के अभाव में सही इलाज से वंचित है। हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा दुनिया के अठारह मुल्कों में करवाए गए अध्ययन से पता चला कि भारत में हृदय रोग से संबंधित दवाएं आम आदमी की पहुंच से बाहर हो रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन में पीजीआई-चंडीगढ़ के कम्युनिटी मेडिसन विभाग ने सहयोग दिया। अध्ययन के मुताबिक भारत में उनसठ प्रतिशत परिवार हृदय रोग से संबंधित दवाओं की पहुंच से बाहर हैं। वे आर्थिक अभाव के कारण ये दवाएं खरीद नहीं सकते। देश मेंपांच केंद्रों पर यह अध्ययन किया गया था, जिसके तहत चंडीगढ़ और हरियाणा के शहरी तथा ग्रामीण इलाके भी शामिल किए गए थे। सच्चाई यह है कि योजनाबद्ध ढंग से सरकार स्वास्थ्य-सेवा से हाथ खींच रही है।
स्वास्थ्य-सेवा में भारी विकास के नाम पर इसे निजी क्षेत्र के हवाले किया जा रहा है। यह प्रयोग किसी जमाने में लातिन अमेरिकी देशों में किया गया। पर अनुभव अच्छा नहीं रहा। निजीकरण के कारण वहां स्वास्थ्य-सेवाएं पूरी तरह से चरमरा गई थीं। भारत में इस समय इलाज का बाजार सौ अरब डॉलर का है, जो 2020 तक बढ़ कर 280 अरब डॉलर हो जाएगा। स्वास्थ्य सेवा उद्योग में वार्षिक विकास दर बाईस प्रतिशत के करीब है। स्वास्थ्य क्षेत्र में जागरूकता आने के कारण देश की सत्तर प्रतिशत ग्रामीण आबादी की स्वास्थ्य जरूरतें भी बढ़ी हैं। इसके लिए भविष्य में देश के अस्पतालों में छह से सात लाख अतिरिक्त बिस्तरों की जरूरत है। इसे पूरा करने के लिए पच्चीस से तीस अरब डॉलर का निवेश करना होगा। दुर्भाग्य की बात है कि सरकार इसके लिए पूरी तरह से निजी क्षेत्र पर निर्भर दिख रही है। निजी क्षेत्र स्वास्थ्य-सेवा में भारी मुनाफे को देखते हुए निवेश को तैयार है। यही कारण है कि भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र में 2000 से 2015 तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के तौर पर 3.4 अरब डॉलर की पूंजी आई। जबकि दूसरी तरफ भारत सरकार को अच्छी स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करवाने के लिए अगले चार साल में चौबीस अरब डॉलर की जरूरत पड़ेगी।
सरकारों की लापरवाही देखें। देश में नए एम्स भी खोले गए हैं, लेकिन सरकारें इसे सुचारुरूप से चलाने में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही हैं। पटना और रायपुर का एम्स इसका उदाहरण है। यहां पर डॉक्टरों की कमी है। बताया जाता है कि निजी क्षेत्र सरकारी क्षेत्र के बड़े चिकित्सा अनुसंधान केंद्रों को विकसित करने में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। सरकारें इनके दबाव में सार्वजनिक क्षेत्र के मेडिकल कॉलेजों और अनुसंधान केंद्रों को मजबूत करने के बजाय उन्हें कमजोर कर रही हैं। सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में न तो डॉक्टरों की नियुक्ति हो रही है न ही अन्य सेवाओं का विस्तार हो रहा है।
देश के गरीब राज्यों में चिकित्सा-व्यवस्था की हालत काफी खराब है। यहां सरकारी अस्पताल बद से बदतर हालत में हैं, निजी अस्पतालों की चांदी कट रही है। बिहार, बंगाल, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ जैसे गरीब राज्यों के शहरों में पिछले कुछ सालों में निजी अस्पतालों की शृंखला नजर आने लगी है। इन राज्यों में गरीबों के लिए सामान्य बीमारियों का इलाज करवा पाना भी आसान नहीं है। इलाज इतना महंगा है कि इन प्रदेशों की पांच प्रतिशत आबादी भी उसका खर्च नहीं उठा सकती है। अगर लोगों को गंभीर बीमारी है तो वे अपनी जमीन बेचें या पैसे के अभाव में मरने को तैयार रहें। किसी भी निजी अस्पताल में साधारण बीमारी के इलाज पर तीस से पचास हजार का खर्च होना तय है। पटना जैसे शहर में प्राइवेट क्षेत्र में विशेषज्ञ डॉक्टरों की ओपीडी में तीस-तीस दिन की प्रतीक्षा-सूची है। क्योंकि जान-बूझ कर बिहार के कई सरकारी मेडिकल कॉलेजों को बर्बाद किया गया।
देश में स्वास्थ्य सेवाओं को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के तौर पर विकसित करने की योजना बनाई गई है। एक तबका पूरी तरह से स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के पक्ष में है। जबकि सच्चाई यह है कि तमाम विकसित देशों में स्वास्थ्य सेवाओं में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका आज भी बरकरार रखी गई है। यहां तक कि अमेरिका में भी, जहां लोग निजी तौर पर काफी सक्षम हैं, स्वास्थ्य के क्षेत्र का आधा खर्च सार्वजनिक क्षेत्र की तरफ से आता है। अमेरिका में गरीबों के लिए विशेष फंड का इंतजाम है, ताकि कोई गरीब चिकित्सा-सुविधा से वंचित न रहे। लेकिन हमारे देश में सरकारें अपनी जिम्मेवारी से भाग रही हैं। निजी क्षेत्र सिर्फ मुनाफा देख रहा है। उसे चिकित्सा-अनुसंधान में कोई रुचि नहीं है, वह तुरंत पूंजी लगा कर लाभ कमाने के जुगाड़ में है। उसे स्वस्थ लोगों की सर्जरी और इलाज कर मुनाफा कमाने में भी संकोच नहीं!
अलग-अलग राज्यों में स्वास्थ्य क्षेत्र में अलग-अलग चुनौतियां आ गई हैं। अगर बंगाल, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे राज्यों में अब भी हैजा, मलेरिया, कालाजार और अन्य वैक्टीरिया-जनित संक्रमण एक मुख्य समस्या है तो उत्तर भारतीय राज्यों में गैर-संक्रामक रोगों का प्रभाव बढ़ा है, जिनमें मधुमेह और रक्तचाप और इनसे होने वाली अन्य बीमारियां शामिल हैं। उत्तरी राज्यों में निजी अस्पतालों के एजेंट गांवों में मरीज ढूंढ़ते हैं, उनकी साधारण बीमारी को गंभीर बता कर शहर के अस्पताल में लाते हैं। पीजीआई-चंडीगढ़ के डॉक्टरों की मानें तो निजी क्षेत्र के अस्पतालों में गैस से होने वाले दर्द को भी हृदय रोग बता कर स्टंट डाला जा रहा है। गैस से होने वाले दर्द को हार्निया बता कर उनका ऑपरेशन किया जा रहा है।
दवाएं और जांच-उपकरण बनाने वाली कंपनियां मौके का पूरा फायदा उठा रही हैं। कोई नई बीमारी जब महामारी का रूप लेती है तो उसकी जांच के नाम पर लोगों को लूटा जाता है। हाल ही में डेंगू के प्रकोप के दौरान यह खेल दिखा। इस बीमारी का टेस्ट किट बाजार में आठ सौ रुपए में उपलब्ध था, जो लागत से कई गुना ज्यादा था। दवाओं के अलावा लैब टेस्ट में भी भारी लूट मची हुई है। जिस जांच की लागत पचास रुपए है, उसके लिए लोगों से पांच सौ रुपए वसूले जा रहे हैं। किडनी से संबंधित आइएफटी जांच सरकारी अस्पतालों में जहां पचास रुपए तक में हो जाती है, वहीं निजी क्षेत्र के लैब इसके लिए चार सौ से पांच सौ रुपए तक वसूलते हैं। एलएफटी से लेकर कोलस्ट्राल टेस्ट में भी यही हालत है।
सरकारी अस्पतालों में जांच-शुल्क बहुत कम होने के कारण यहां भारी भीड़ रहती है। इससे प्राइवेट लैबों के धंधे पर असर पड़ता है। वे जान-बूझ कर अब सरकारी अस्पतालों की सेवाओं की आउटसोर्सिंग करवा रहे हैं। पर इसका परिणाम यह हो रहा है कि लोगों को सस्ती जांच की सुविधा सरकारी अस्पताल में भी नहीं मिल पा रही है। सरकारी अस्पतालों में आउटसोर्सिंग के माध्यम से बॉयोकेमेस्ट्री और पैथोलॉजी से संबंधित टेस्टों को महंगा किया जा रहा है। चिकित्सा क्षेत्र के लैबों में निजी निवेशकों की एक बड़ी टीम और शृंखला पूरे देश में फैली हुई है, जिनका प्राथमिक उद््देश्य भारी लाभ कमाना है। कई जगहों पर तो निजी क्षेत्र के खिलाड़ी सरकारी अस्पतालों की जांच-मशीनों को जान-बूझ कर खराब करवा रहे हैं। महीनों तक मशीन खराब रहती है और लोगों की भीड़ प्राइवेट लैब की तरफ जाने को मजबूर होती है।
चिकित्सा के क्षेत्र में मध्यमार्गी नीति अपनाने की जरूरत है। सवा सौ करोड़ की आबादी को सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी के बिना इलाज नहीं मिल सकता है। लेकिन निजी क्षेत्र की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। अलबत्ता यह जरूरी है कि वे अपने मुनाफे की परिभाषा में बदलाव करें। भारत जैसे देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में धार्मिक और सामाजिक संगठन भी अहम भूमिका निभा सकते हैं। चंडीगढ़ इसका एक बेहतर उदाहरण है। शहर में स्थित कई मंदिरों और गुरद्वारों में इस समय साधारण बीमारियों के इलाज के लिए स्वास्थ्य केंद्र चल रहे हैं। यहां बीमारियों से संबंधित जांच भी सस्ती दर पर कराई जा सकती है। छोटी-मोटी बीमारियों के लिए यहां पर डॉक्टर भी मौजूद रहते हैं। उत्तर भारत में भारत विकास परिषद ने भी चिकित्सा के क्षेत्र में अच्छा काम किया है। लोगों को सस्ता इलाज और सस्ते टेस्ट उपलब्ध करवाने के लिए परिषद ने कई केंद्र खोले हैं। धार्मिक संगठनों और मंदिरों के पास काफी पैसा है। उन्हें इसका इस्तेमाल लोगों को सस्ता इलाज मुहैया कराने के लिए करना चाहिए।(संजीव पांडेय)